Wednesday, November 27, 2019

उसने कहा था


चंद्रधर शर्मा गुलेरी


 


बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढीवाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर बचो खालसा जी। हटो भाई जी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हटो बाछा, कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं - हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा लंबी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है? बच जा।


ऐसे बंबूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गुथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।


    'तेरे घर कहाँ हैं?'
    'मगरे में; और तेरे?'
    'माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?'
    'अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।'
    'मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरु बजार में हैं।'


इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा ले कर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकरा कर पूछा, - 'तेरी कुड़माई हो गई?' इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।


दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरी कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही 'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली - 'हाँ हो गई।'


'कब?'


'कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।' लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उँड़ेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।


 


2


'राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खंदकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं; - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खंदक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।'


'लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खंदक में बिता ही दिए। परसों रिलीफ आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खा कर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में - मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आए हो।'


'चार दिन तक एक पलक नींद नहीं मिली। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े - संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था - चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो - '


'नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?' सूबेदार हजारासिंह ने मुसकरा कर कहा -'लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?'


'सूबेदार जी, सच है,' लहनसिंह बोला - 'पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाईं में दोनों तरफ से चंबे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।'


'उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ ले कर खाईं का पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाईं के दरवाजे का पहरा बदल ले।' - यह कहते हुए सूबेदार सारी खंदक में चक्कर लगाने लगे।


वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाईं के बाहर फेंकता हुआ बोला - 'मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!' इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए।


लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में दे कर कहा - 'अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।'


'हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा जमीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।'


'लाड़ी होराँ को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम - '


'चुप कर। यहाँवालों को शरम नहीं।'


'देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तंबाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है,और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं।'


'अच्छा, अब बोधासिंह कैसा है?'


'अच्छा है।'


'जैसे मैं जानता ही न होऊँ! रात-भर तुम अपने कंबल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।'


'मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।'


वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ा कर कहा - 'क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे -


    दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
    कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
    कर लेणा नाड़ेदा सौदा अड़िए -
    (ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
    कद्दू बणया वे मजेदार गोरिए,
    हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।


कौन जानता था कि दाढ़ियोंवाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, पर सारी खंदक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।


 


3


दो पहर रात गई है। अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कंबल बिछा कर और लहनासिंह के दो कंबल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाईं के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।


'क्यों बोधा भाई, क्या है?'


'पानी पिला दो।'


लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा - 'कहो कैसे हो?' पानी पी कर बोधा बोला - 'कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।'


'अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!'


'और तुम?'


'मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।'


'ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए - '


'हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुन कर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें।' यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।


'सच कहते हो?'


'और नहीं झूठ?' यों कह कर नाँहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।


आधा घंटा बीता। इतने में खाईं के मुँह से आवाज आई - 'सूबेदार हजारासिंह।'


'कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!' - कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।


'देखो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाईं है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पंद्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खंदक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।'


'जो हुक्म।'


चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कंबल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझा कर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा - 'लो तुम भी पियो।'


आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला - 'लाओ साहब।' हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?' शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।


'क्यों साहब, हम लोग हिंदुस्तान कब जाएँगे?'


'लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसंद नहीं ?'


'नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे -


'हाँ, हाँ - '


'वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मंदिर में जल चढ़ाने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का - सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कंधे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएँगे।'


'हाँ पर मैंने वह विलायत भेज दिया - '


'ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?'


'हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?'


'पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ' - कह कर लहनासिंह खंदक में घुसा। अब उसे संदेह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।


अँधेरे में किसी सोनेवाले से वह टकराया।


'कौन? वजीरासिंह?'


'हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?'


 


4


'होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।'


'क्या?'


'लपटन साहब या तो मारे गए है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?'


'तो अब!'


'अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होराँ, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाईं पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।


सूबेदार से कहो एकदम लौट आएँ। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।'


'हुकुम तो यह है कि यहीं - '


'ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम - जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।'


'पर यहाँ तो तुम आठ है।'


'आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।'


लौट कर खाईं के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जा कर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने -


इतने में बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बंदूक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुंदा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'ऑख! मीन गौट्ट' कहते हुए चित्त हो गए। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।


साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला - 'क्यों लपटन साहब? मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगाएँ होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिना डेम के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।'


लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले।


लहनासिंह कहता गया - 'चालाक तो बड़े हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। हिंदुस्तान में आ जाएँगे तो गोहत्या बंद कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रुपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकाल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो - '


साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आए।


बोधा चिल्लया - 'क्या है?'


लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बंदूकें ले कर तैयार हो गए। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।


इतने में सत्तर जर्मन चिल्ला कर खाईं में घुस पड़े। सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था - वह खड़ा था, और, और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोडे से मिनटों में वे - अचानक आवाज आई, 'वाह गुरुजी की फतह? वाह गुरुजी का खालसा!! और धड़ाधड़ बंदूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछेवालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।


एक किलकारी और - अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरुजी दी फतह! वाह गुरुजी दा खालसा! सत श्री अकालपुरुख!!! और लड़ाई खतम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिखों में पंद्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कंधे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खंदक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबंद की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव - भारी घाव लगा है।


लड़ाई के समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा में 'दंतवीणोपदेशाचार्य' कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौडा-दौडा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पा कर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।


इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाईंवालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँध कर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रक्खी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जाएगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा - 'तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनीजी की सौगंध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।'


'और तुम?'


'मेरे लिए वहाँ पहुँच कर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।'


'अच्छा, पर - '


'बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को चिट्ठी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।'


गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा - 'तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?'


'अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।'


गाड़ी के जाते लहना लेट गया। 'वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबंद खोल दे। तर हो रहा है।'


 


5


मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुंध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।


*** *** ***


लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब धत् कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा - 'हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू? सुनते ही लहनासिंह को दुख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?


'वजीरासिंह, पानी पिला दे।'


***    ***      ***


पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी ले कर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिट्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।


जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला - 'लहना, सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।' लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।


'मुझे पहचाना?'


'नहीं।'


'तेरी कुड़माई हो गई - धत् - कल हो गई - देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में -


भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।


'वजीरा, पानी पिला' - 'उसने कहा था।'


***    ***      ***


स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है - 'मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घँघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी। अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन ताँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मुझे उठा कर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।


रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।


'वजीरासिंह, पानी पिला' - 'उसने कहा था।'


***    ***      ***


लहना का सिर अपनी गोद में लिटाए वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना चुप रहा, फिर बोला - 'कौन! कीरतसिंह?'


वजीरा ने कुछ समझ कर कहा - 'हाँ।'


'भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।' वजीरा ने वैसे ही किया।


'हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।' वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।


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कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा -


फ्रांस और बेल्जियम - 68 वीं सूची - मैदान में घावों से मरा - नं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह ।


Tuesday, November 26, 2019

मादरे-हिन्‍द से


नज़ीर बनारसी


 


क्‍यों न हो नाज़ ख़ाकसारी पर


तेरे क़दमों की धूल हैं हम लोग


आज आये हैं तेरे चरणों में


तू जो छू दे तो फूल हैं हम लोग


देश भगती भी हम पे नाज़ करे


हम को आज ऐसी देश भगती दे


तेरी जानिब है दुश्‍मनों की नज़र


अपने बेटों को अपनी शक्‍ती दे


मां हमें रण में सुर्ख़रू रखना


अपने बेटों की आबरू रखना


तूने हम सब की लाज रख ली है


देशमाता तुझे हज़ारों सलाम


चाहिये हमको तेरा आशीर्वाद


शस्‍त्र उठाते हैं ले‍के तेरा नाम


लड़खड़ायें अगर हमारे क़दम


रण में आकर संभालना माता


बिजलियां दुश्‍मनों के दिल पे गिरें


इस तरह से उछालना माता


मां हमें रण में सुर्ख़रू रखना


अपने बेटों की आबरू रखना


हो गयी बन्‍द आज जिनकी जुबां


कल का इतिहास उन्‍हें पुकारेगा


जो बहादुर लहू में डूब गये


वक़्त उन्‍हें और भी उभारेगा


सांस टूटे तो ग़म नहीं माता


जंग में दिल न टूटने पाये


हाथ कट जायें जब भी हाथों से


तेरा दामन न छूटने पाये


मां हमें रण में सुर्ख़ रखना


अपने बेटें की आबरू रखना


 


बहारें होली की


नज़ीर अक़बराबादी


जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की।


हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे।
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे।
दिल भूले देख बहारों को, और कानों में आहंग भरे।
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे।
कुछ घुंघरू ताल झनकते हों, तब देख बहारें होली की॥


गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की॥


और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवौयों के लड़के।
हर आन घड़ी गत भिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के।
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के।
कुछ लचकें शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के।
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की॥


यह धूम मची हो होली की, और ऐश मज़े का झक्कड़ हो।
उस खींचा खींचा घसीटी पर, भड़ुए रंडी का फक़्कड़ हो।
माजून, शराबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुल्फ़ा कक्कड़ हो।
लड़-भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो।
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की॥


अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था और सूचना राजनीति


अवधेश कुमार यादव


साभार


http://chauthisatta.blogspot.com/2016/01/blog-post_29.html


 



प्रजातांत्रिक देशों में सत्ता का संचालन संवैधानिक प्रावधानों के तहत होता है। इन्हीं प्रावधानों के अनुरूप नागरिक आचरण करते हैं तथा संचार माध्यम संदेशों का सम्प्रेषण। संचार माध्यमों पर राष्ट्रों की अस्मिता भी निर्भर है, क्योंकि इनमें दो देशों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को बनाने, बनाये रखने और बिगाड़ने की क्षमता होती है। आधुनिक संचार माध्यम तकनीक आधारित है। इस आधार पर सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला- उन्नत संचार तकनीक वाले देश, जो सूचना राजनीति के तहत साम्राज्यवाद के विस्तार में लगे हैं, और दूसरा- अल्पविकसित संचार तकनीक वाले देश, जो अपने सीमित संसाधनों के बल पर सूचना राजनीति और साम्राज्यवाद के विरोधी हैं। उपरोक्त विभाजन के आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व वर्तमान समय में भी दो गुटों में विभाजित है। यह बात अलग है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्काल बाद का विभाजन राजनीतिक था तथा वर्तमान विभाजन संचार तकनीक पर आधारित है।



अंतर्राष्ट्रीय संचार : अंतर्राष्ट्रीय संचार की अवधारणा का सम्बन्ध मानव सभ्यता के साथ जुड़ा हुआ है, क्योंकि मानव जैसे-जैसे विकास की ओर अग्रसर होता गया, वैसे-वैसे अन्य देशों की सूचनाओं और सांस्कृतियों गतिविधियों के संदर्भ में जानने का प्रयत्न करने लगा। परिणामतः अंतर्राष्ट्रीय संचार की अवधारणा का सूत्रपात हुआ। सभ्यता के विकास के प्रारंभिक युग में 'देशाटन' एक मात्र अंतर्राष्ट्रीय संचार का माध्यम था, जिसके तहत एक देश के नागरिक समूह बनाकर जल-थल मार्ग से दूसरे देश का भ्रमण करते थे तथा वहां के नागरिकों से मिलकर एक-दूसरे की सांस्कृतिक गतिविधियों से परिचित होते थे। इसके बाद, स्वदेश लौटकर अपने समाज के लोगों को यात्रा-वृतांत सुनाते तथा दूसरे देशों की संस्कृति के बारे में जानकारी देते थे।


अंतर्राष्ट्रीय संचार के क्षेत्र में तकनीकी का उपयोग 18वीं शताब्दी में सर्वप्रथम ब्रिटेन ने अपने विदेशी उपनिवेशों में सत्ता पर शासकीय नियंत्रण बनाये रखने के लिए किया। इसके लिए सम्रुद्री केबल लाइन की सहायता से संदेशों का आदान-प्रदान किया जाता था। हालांकि, इसमें सामान्य जनों की सहभागिता नहीं होती थी। सामान्य जन 'देशाटन' के माध्यम से ही अंतर्राष्ट्रीय संचार का कार्य करते थे। बाद में मुद्रण तकनीक के उद्भव व विकास के बाद पुस्तकों के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय संचार का कार्य किया जाने लगा।


अंतर्राष्ट्रीय संचार और समाचार समिति: प्रिण्ट माध्यमों के विकास के बाद अंतर्राष्ट्रीय संचार के क्षेत्र में समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं का उपयोग किया जाने लगा। बंदरगाहों पर नियुक्त संवाददाता नाविकों और यात्रियों से वार्तालाप कर अंतर्राष्ट्रीय समाचारों का संकलन करते थेे। ऐसे समाचारों में निष्पक्षता व प्रमाणिकता का अभाव था, जिसके चलते एक निश्चित स्थान पर विश्वसनीय स्रोतों से समाचारों के संकलन और प्रकाशन के लिए उपलब्ध कराने की आवश्यकता महसूस की गई, जिसके चलते समाचार समिति (News Agency)  की परिकल्पना का जन्म हुआ। फ्रांसीसी नागरिक चाल्र्स आवास को आधुनिक समाचार समिति का जनक कहा जाता है, जिसने सन् 1825 में 'न्यूज ब्यूरो' नामक दुनिया की पहली समाचार समिति स्थापित की तथा समाचार संकलन के लिए यूरोपीय देशों की राजधानियों में संवाददाता नियुक्त किया। प्रारंभ में आवास अपने ग्राहकों तक विशेष वाहक या डाक विभाग की सहायता से देश-दुनिया के समाचारों को उपलब्ध कराया। बाद में, इस कार्य के लिए तार का उपयोग करने लगा। सन् 1840 में आवास ने प्रायोगिक तौर पर पेरिस, लंदन एवं ब्रुसेल्स के बीच कबूतरों के माध्यम से समाचार भेजने का कार्य प्रारंभ किया, जो अंतर्राष्ट्रीय संचार का अनोखा उदाहरण है। इससे 'न्यूज ब्यूरो' को अत्यधिक लोकप्रियता मिली। सन् 1848 में चाल्र्स आवास ने 6 से 10 किलोमीटर की दूरी पर टाॅवर बनाकर टेलीस्कोपी की सहायता से समाचारों को भेजना प्रारंभ किया। इसी साल टेलीग्राफ से समाचार भेजने की प्रणाली विकसित हुई। सन् 1849 में आवास के दो कर्मचारियों ने स्वतंत्र रूप से समाचार समिति का गठन किया। इनमें पहला था- बर्नार्ड वोल्फ, जिसने 'वोल्फ' नामक समाचार समिति शुरू की। हालांकि, बर्नार्ड वोल्फ ने एक साल पहले ही प्रायोगिक तौर पर बर्लिन से 'नेशनल जीतंुग' शीर्षक से स्टॉक एक्सचेंज का भाव देना प्रारंभ कर दिया था। दूसरा था- जर्मनी का जुलियस रायटर था, जिसने 'रायटर' नामक समाचार समिति का गठन किया। जुलियस रायटर की समाचार समिति ने समाचार संकलन और वितरण के लिए डाकतार एवं रेलवे का भरपूर उपयोग किया।


समाचार समिति का उद्भव भले ही यूरोपीय देशों में हुआ, लेकिन इसके प्रभाव से अमेरिका अछूता नहीं रहा। सन् 1848 में न्यूयार्क के कुछ समाचार-पत्रों ने मिलकर 'हार्बर न्यूज एसोसिएशन' नामक समाचार समिति का गठन हुआ, जो नौकाओं के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय समाचार प्रेषित करती थी। सन् 1850 में 'जनरल न्यूज एसोसिएशन' का गठन हुआ। सन् 1857 में दोनों का 'नेशनल न्यूयार्क एसोसिएटेड प्रेस' के रूप में विलय हो गया। इस समिति ने यूरोप के समाचारों के लिए 'आवास' और 'रायटर' के साथ व्यापारिक समझौता किया, जो अंतर्राष्ट्रीय संचार के विकास का उदाहरण है। हालांकि यह समझौता लम्बे समय तक चल नहीं सका। इसी दौरान एक नई समाचार समिति 'यूनाइटेड प्रेस एसोसिएशन' का गठन हुआ, जिसका सन् 1909 में 'यूनाइटेड प्रेस इंटरनेशनल' नामक एक नई समाचार समिति में विलय हो गया। यूरोप की तीनों समाचार समितियों- 'आवास', 'वोल्फ' व 'रायटर' ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करने का निर्णय लिया। इससे अंतर्राष्ट्रीय संचार माध्यम के रूप में समाचार समिति का विकास व विस्तार को गति मिली।


अंतर्राष्ट्रीय सूचना-प्रवाह : द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के बाद का विश्व राजनीतिक आधार पर दो गुटो में विभाजित था। एक गुट का साम्राज्यवादी अमेरिका तथा दूसरे गुट का साम्यवादी सोवियत संघ नेतृत्व करने लगा। इनके बीच भारत जैसे कुछ तीसरी दुनिया के विकासशील देश थे, जो धीरे-धीरे विदेशी उपनिवेश से स्वतंत्र हो रहे थे। इनमें अधिकांश देश कमजोर आर्थिक स्थिति वाले थे, जिनकी न तो अंतर्राष्ट्रीय सूचना-प्रवाह में कोई योगदान था और न तो इसके महत्व को समझ पा रहे थे। अमेरिकी विदेश मंत्री 'विलियम वेन्स' ने विकसित देशों के हित में अंतर्राष्ट्रीय सूचना-प्रवाह पर जोर दिया। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) का उपयोग भी किया।


इस प्रकार, अमेरिका समेत पश्चिम के विकसित देशों का अंतर्राष्ट्रीय सूचना-प्रवाह पर एकाधिकार और मजबूत हो गया। विकसित देश अपनी समाचार समितियों के माध्यम से जैसा चाहते थे, वैसी सूचना दुनिया को उपलब्ध कराने लगे। एक तरफा प्रवाह के कारण विकसित देशों की सूचनाओं को विकासशील देश ज्यों का त्यों स्वीकार करने को विवश थे। पश्चिमी देशों की समाचार समितियों द्वारा सम्प्रेषित सूचनाएं विकासशील देशों के अनुरूप नहीं होती थी। इन सूचनाओं में विकासशील देशों के नकारात्मक पक्ष को प्रमुखता से तथा सकारात्मक पक्ष को दबाकर या विकृत रूप में प्रचारित किया जाता था। विकसित देशों की सूचना राजनीति को तीसरी दुनिया के विकासशील देश शीघ्र ही समझ गए और अंतर्राष्ट्रीय मंचों के माध्यम से भनई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था्य की मांग करने लगे।


नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था (NWICO) :  अंतर्राष्ट्रीय संचार के इतिहास की पड़ताल से पता चलता है कि नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था की मांग का प्रमुख कारण विकसित देशों द्वारा असंतुलित सूचना प्रवाह था। इसके अलावा भी कई अन्य थे, जिसके चलते तीसरी दुनिया के विकासशील देश पहली दुनिया के विकसित देशों के खिलाफ लामबन्द होने लगे। यथा-
1.         द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद छोटे-छोटे साम्राज्यों के टूटने से नये देशों का अभ्युदय।
2.         पश्चिमी के औद्योगिक व विकसित देशों का नये देशों के साथ सम्बन्ध, जिससे पश्चिमी देशों का आर्थिक और राजनैतिक प्रभाव का लगातार बढ़ना।
3.         यू.एस. और यू.एस.एस.आर. के आक्रामक प्रभाव से परेशान होकर नये देशों का गुटनिरपेक्ष देशों के साथ जुड़ना।
4.         अंतर्राष्ट्रीय संगठनों- यू.एन.ओ. और यूनेस्को में विकसित देशों का वर्चस्व।


इस मुद्दे को विकासशील देशों ने गुट निरपेक्ष आंदोलन (G-77), संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) तथा संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक वैज्ञानिक सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में प्रमुखता से उठाया। अल्जीरिया में आयोजित (5-9 सितम्बर, 1975) गुट निरपेक्ष देशों के चतुर्थ सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय संचार को बढ़ावा देने के लिए नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था (NWICO) की मांग की गई। इस सम्मेलन में 75 सदस्य देश तथा 24 पर्यवेक्षक देश और तीन अतिथि देश सम्मलित हुए थे। इस मुद्दे पर सन् 1976 में ट्यनिस एवं कोलम्बो सम्मेलन में भी विचार-विमर्श किया गया।


अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था पर आधारित विचार-विमर्श का प्रमुख केन्द्र होने के कारण यूनेस्को नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था (न्यूको) की स्थापना के लिए प्रयास किया। इसके लिए मैकब्राइड आयोग का गठन और सम्मेलन का आयोजन किया। सन् 1980 में यूनेस्को के सामान्य अधिवेशन में नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था (NWICO) के लिए निम्नलिखित दिशा-निर्देशों का निर्धारित किया:-


1.     वर्तमान संचार व्यवस्था में व्याप्त असंतुलन को समाप्त करना।
2.   एकाधिकारी, सार्वजनिक, निजी और अति केन्द्रीकृत व्यवस्था के नकारात्मक प्रभाव को समाप्त करना।
3.   विचारों एवं सूचनाओं के स्वतंत्र प्रवाह एवं विस्तारीकरण के मार्ग में आने वाली आन्तरिक एवं वाह्य बाधाओं को दूर करना।
4.   सूचना के साधनों एवं माध्यमों की संख्या में बढ़ोत्तरी करना।
5.   सूचना एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना।
6.   पत्रकारों एवं जनमाध्यमों से जुड़े लोगों की उत्तरदायित्वपूर्ण स्वतंत्रता सुनिश्चित करना।
7.   विकासशील देशों को उनकी क्षमता के अनुरूप उपकरण व प्रशिक्षण में वृद्धि करना और आधारभूत सुविधाओं, आवश्यकताओं एवं उद्देश्यों के अनुरूप् संचार व्यवस्था का विकास करना।
8.     विकसित देशों में इन उद्देश्यों की प्राप्ति में सहयोग करने की भावना जागृत करना।
9.     एक दूसरे की सांस्कृतिक पहचान और प्रत्येक देश को अपने व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक हित के बारे में विश्व को सूचित करने के अधिकार का सम्मान करना।
10.   सूचना के अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान के संदर्भ में वैयक्तिक अधिकारों का सम्मान करना।
11.   प्रत्येक व्यक्ति की सूचना एवं संचार व्यवस्था में सहभागिता के अधिकार का सम्मान करना।


नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था ही तीसरी दुनिया के देशों के विकास का प्रमुख साधन है। इसके लिए विकासशील देश लगातार प्रयत्नशील हैं।


मैकब्राइड आयोग : यूनेस्को ने सन् 1977 में एक अंतर्राष्ट्रीय आयोग का गठन किया, जिसके अध्यक्ष आयरलैण्ड के पूर्व विदेशमंत्री सीयेन मैकब्राइड थे। इस आयोग में कनाडा के विश्व विख्यात संचारविद् मार्शल मैकलुहान के अलावा मिचियो नगाई, मुस्तफा मसमूदी, मोक्तर लूविस, एल्बे मा एकेंजो समेत कुल 15 संचार विशेषज्ञ, शिक्षाविद्, पत्रकारिता एवं प्रसारण विशेषज्ञों को सदस्य बनाया गया था। मैकब्राइड आयोग ने नई अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में विकासशील देशों की आवश्यकता को केन्द्र में रखकर सूचना के मुक्त एवं संतुलित प्रवाह की समस्या का अध्ययन किया तथा 82 महत्वपूर्ण सुझाव दिये। अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद मैकब्राइड आयोग स्वतः समाप्त हो गया।


सन् 1980 में मैकब्राइड आयोग ने 'दुनिया एक - विचार अनेक' (Many Voices One world) शीर्षक से अपनी अध्ययन रिपोर्ट प्रस्तुत किया, जिसमें पश्चिमी देशों के संचार माध्यमों के साम्राज्यवादी एवं एकाधिकारवादी प्रभुत्व पर चिन्ता व्यक्त की गई थी। इस रिपोर्ट में यूनेस्को ने बेलग्रेड सम्मेलन में प्रस्तुत किया। इस दौरान पश्चिम के विकसित देशों ने मैकब्राइड आयोग के सुझावों को मानने से इंकार कर दिया। मैकब्राइड आयोग का सुझाव था कि- 'संचार माध्यमों का सामाजिक या आर्थिक नीति के औजार के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए।' जबकि पश्चिमी देशों का तर्क था कि- 'संचार माध्यमों को अपने उद्देश्य का निर्धारण और क्रियान्वयन के मापदण्डों का स्वयं निर्धारित करना चाहिए, न कि सरकारों या अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को।'


बेलग्रेड बैठक में जिन प्रस्तावों को स्वीकृति मिली, उनमें सबसे महत्वपूर्ण यह है कि सभी सदस्य देशों से आह्वान किया गया कि वे अपनी राष्ट्रीय संचार क्षमताओं का विकास करें और विचार, अभिव्यक्ति एवं सूचना की स्वतंत्रता की रक्षा की मूल आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए संचार के विकास की रणनीति का हिस्सा बनाये। साथ ही यूनेस्कों से अपेक्षा की गई कि वह सूचना और संचार के नए क्षेत्र में समस्याओं की पहचान करने तथा उनके समाधान में निर्णायक भूमिका का निर्वाह करें। इसके बावजूद किसी प्रकार का अंतर्राष्ट्रीय कानून बनाने का निर्णय नहीं लिया। अंतर्राष्ट्रीय संचार एवं सूचना प्रवाह के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय कानून बनाने का सबसे पहले अमेरिका ने विरोध किया और वह यूनेस्को से अलग हो गया। बाद में ब्रिटेन ने भी अमेरिका की राह पर चलना प्रारंभ कर दिया और वह भी अलग हो गया।


गुट निरपेक्ष समाचार समिति पूल : जुलाई 1976 में गुट निरपेक्ष देशों का सम्मेलन नई दिल्ली में हुआ, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय संचार के दौरान असंतुलित सूचना प्रवाह पर चिन्ता व्यक्त की गई तथा गहन विचार-विमर्श के बाद प्रस्ताव पारित कर नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था के तहत गुट निरपेक्ष समाचार समिति पूल का गठन किया गया। इसके तहत गुट निरपेक्ष देशों की समाचार समितियों के बीच समाचारों के आदान-प्रदान की व्यवस्था की गई। इस पूल का भारत सन् 1976 से 1979 तक प्रथम संस्थापन अध्यक्ष बना। इसका कार्य क्षेत्र विश्व के चारों महाद्वीपों- एशिया, पूर्वी यूरोप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका तक फैला हुआ है। गुट निरपेक्ष समाचार समिति पूल के माध्यम से चार भाषाओं- अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिष और अरबी में समाचारों का आदान-प्रदान किया जाने लगा।


पूल की गतिविधियों को संचालन एक निर्वाचित संस्था के द्वारा किया जाता है, जिसे समन्वय समिति भी कहा जाता है। पूल की अध्यक्ष का कार्यकाल तीन वर्ष का होता है। समन्वय समिति के सदस्यों का चयन क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व, निरंतरता, सक्रिय सहभागिता और क्रम के आधार पर किया जाता है। भारत में न्यूज पूल डेस्क संचालन भप्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया्य ;च्ण्ज्ण्प्ण्द्ध द्वारा किया जाता है।


भारत की भूमिका: अंतर्राष्ट्रीय संचार के क्षेत्न में नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था (NWICO) की स्थापना और विकास में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, क्योंकि भारत न्यूको की लक्ष्य प्राप्ति और सिद्धान्तों के पुनः निर्माण, रक्षा और आगे बढ़ाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहा है। सन् 1978 में आयोजित यूनेस्कों के 20वीं सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि मण्डल ने श्रीलंका के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर पूरब-पश्चिम देशों के तनाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसका उल्लेख जनसंचार माध्यम घोषणा में भी किया गया है। नई विश्व सूचना एंव संचार व्यवस्था के लक्ष्य अन्तर्राष्ट्रीय संचार में सामन्जस्य स्थापित करने के लिए सूचना के संतुलित प्रवाह की व्यवस्था करना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत की अगुवाई में गुट निरपेक्ष समाचार समिति पूल का गठन किया गया। इसके अलावा, भारत सरकार द्वारा विकासशील देशों के प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण के उद्देश्य से नई दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान में कई प्रकार के कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है।


निष्कर्ष : उपरोक्त प्रयासों के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय संचार के क्षेत्र में विकसित देशों का वर्चस्व कायम है। इसका ज्वलन्त उदाहरण खाड़ी और अफगानिस्तान युद्ध के दौरान अमेरिकी संचार माध्यमों द्वारा प्रसारित भ्रामक सूचना। युद्ध से जुड़ी वास्तविक सूचना को प्रसारित कर भअलजजीरा्य ने अमेरिकी संचार माध्यमों को बेपर्दा किया तो उनके स्टूडियो पर हमला किया गया। द्वितीय खाड़ी युद्ध में अमेरिका ने एक तरह से अघोषित सेंसरशिप लागू किया था, क्योंकि अमेरिकी संचार माध्यमों पर उन्हीं सूचनाओं व समाचारों का प्रसारण व प्रकाशन किया जाता था, जो अमेरिकी शासन की नीतियों के अनुरूप होती थी। इसके विपरीत प्रसारण या प्रकाशन करने का प्रयास करने वालों को सेंसर और शस्त्र के बल से दबाने का पुरजोर प्रयास किया। उपरोक्त घटनाओं से स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय संचार में सूचनाओं के राजनीतिक इस्तेमाल की प्रवृत्ति बढ़ी है। इससे जहां सूचना व समाचार का स्वतंत्र व निष्पक्ष प्रवाह बाधित हो रहा है, वहीं सूचना प्राप्त करने के वैयक्तिक अधिकार का हनन भी हो रहा है। 
अंतर्राष्ट्रीय सूचना प्रवाह की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और निरंतरता संचार माध्यमों की परस्पर निर्भरता पर आश्रित होती है। अंतर्राष्ट्रीय संचार के दौरान एक देश के संचार माध्यम व समाचार समिति द्वारा दूसरे देश के संचार माध्यम व समाचार समिति को सूचना देने से समाचार का सतत् प्रवाह होता है। इसके लिए जितना सूचनाओं एवं समाचारों का संकलन अनिवार्य है, उतना ही उसे पाठकों व दर्शकों तक पहुंचाना। वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में संचार माध्यमों के अंतर्राष्ट्रीयकरण के कारण विकासशील देशों के समक्ष सांस्कृतिक पहचान खोने का खतरा है, क्योंकि विकसित देश मीडिया उत्पाद (संचार माध्यमों में प्रकाशित व प्रसारित होने वाली सामग्री) के निर्यातक है। इनका निर्माण निर्यातक देश अपने सांस्कृतिक परिवेश को ध्यान में रखकर करते हैं। आयातक देश उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार, आयातक देशों के समक्ष अपनी सांस्कृतिक पहचान खोने का खतरा मड़रा रहा है। वर्तमान समय में पश्चिमी देश अपने मीडिया उत्पाद के माध्यम से अपरोक्ष रूप से सांस्कृतिक सामाज्यवाद स्थापित कर रहे हैं, जिससे सांस्कृतिक सामाज्यवाद का विस्तार होता है।


21वीं शताब्दी के मौजूदा दौर में अंतर्राष्ट्रीय संचार मानव जीवन का अनिवार्य अंग बन चुका है। इस दिशा में पिछले पांच दशकों से निरंतर विकास हो रहा है। वर्तमान समय में ऐसी वैश्विक परिस्थिति बन चुकी है कि विश्व की अद्यतर घटनाओं एवं सूचनाओं की जानकारी प्राप्त करने को मानव हर पल उत्सुक है, जिसमें आधुनिक संचार माध्यम (प्रिण्ट, इलेक्ट्राॅनिक व वेब) मदद करते हैं। इन संचार माध्यमों के कारण अंतर्राष्ट्रीय संचार बेहद आसान होने के कारण लगता है कि सूचना का मुक्त प्रवाह हो रहा है।


(प्रतियोगिता दर्पण अगस्त, 2015 में प्रकाशित)


 


मानव संचार : अवधारणा और विकास

 


 अवधेश कुमार यादव


साभार- http://chauthisatta.blogspot.com/2014/12/blog-post.html


 


 


      मानव जीवन में जीवान्तता के लिए संचार का होना आवश्यक ही नहीं, अपितु अपरिहार्य है। पृथ्वी पर संचार का उद्भव मानव सभ्यता के साथ माना जाता है। प्रारंभिक युग का मानव अपनी भाव-भंगिमाओं, व्यहारजन्य संकेतों और प्रतीक चिन्हों के माध्यम से संचार करता था, किन्तु आधुनिक युग में सूचना प्रौद्योगिकी (प्दवितउंजपवद ज्मबीदवसवहल)  के क्षेत्र में क्रांतिकारी अनुसंधान के कारण मानव संचार बुलन्दी पर पहुंच गया है। वर्तमान में रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, टेलीफोन, मोबाइल, फैक्स, इंटरनेट, ई-मेल, वेब पोर्टल्स, टेलीप्रिन्टर, टेलेक्स, इंटरकॉम, टेलीटैक्स, टेली-कान्फ्रेंसिंग, केबल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, समाचार पत्र, पत्रिका इत्यादि मानव संचार के अत्याधुनिक और बहुचर्चित माध्यम हैं।


     संचार : संचार शब्द का सामान्य अर्थ होता है- किसी सूचना या संदेश को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाना या सम्प्रेषित करना। शाब्दिक अर्थों में श्संचारश् अंग्रेजी भाषा के ब्वउउनदपबंजपवद शब्द का हिन्दी रूपांतरण है। जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के ब्वउउनदपे शब्द से हुई है, जिसका अर्थ होता है ब्वउउनद, अर्थात्... संचार एक ऐसा प्रयास है जिसके माध्यम से एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के विचारों, भावनाओं एवं मनोवृत्तियों में सहभागी बनता है। संचार का आधार श्संवादश् और श्सम्प्रेषणश् है। विभिन्न विधाओं केे विशेषज्ञों ने संचार को परिभाषित करने का प्रयास किया है, लेकिन किसी एक परिभाषा पर सर्वसम्मत नहीं बन सकी है। फिर भी, कुछ प्रचलित परिभाषाएं निम्नलिखित हैं -


o  ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार- विचारों, जानकारियों वगैरह का विनिमय, किसी और तक पहुंचाना या  बांटना, चाहे वह लिखित, मौखिक या सांकेतिक हो, संचार है।


o  लुईस ए. एलेन के अनुसार- संचार उन सभी क्रियाओं का योग है जिनके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे के साथ समझदारी स्थापित करना चाहता है। संचार अर्थों का एक पुल है। इसमें कहने, सुनने और समझने की एक व्यवस्थित तथा नियमित प्रक्रिया शामिल है।


o  रेडफील्ड के अनुसार- संचार से आशय उस व्यापक क्षेत्र से है जिसके माध्यम से मनुष्य तथ्यों एवं अभिमतों का आदान-प्रदान करता है। टेलीफोन, तार, रेडियो अथवा इस प्रकार के अन्य तकनीकी साधन संचार नहीं है।


o  शैनन एवं वीवर के अनुसार- व्यापक अर्थ में संचार के अंतर्गत् वे सभी प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं, जिसके द्वारा एक व्यक्ति दिमागी तौर पर दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करता है। इसमें न वाचिक एवं लिखित भाषा का प्रयोग होता है, बल्कि मावन व्यवहार के अन्य माध्यम जैसे-संगीत, चित्रकला, नाटक इत्यादि सम्मिलित है।


o  क्रच एवं साथियों के अनुसार- किसी वस्तु के विषय में समान या सहभागी ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रतीकों का उपयोग ही संचार है। यद्यपि मनुष्यों में संचार का महत्वपूर्ण माध्यम भाषा ही है, फिर भी अन्य प्रतीकों का प्रयोग हो सकता है।


 


     उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि किसी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति अथवा समूह को कुछ सार्थक चिह्नों, संकेतों या प्रतीकों के माध्यम से ज्ञान, सूचना, जानकारी व मनोभावों का आदान-प्रदान करना ही संचार है।  


     संचार के प्रकार : समाज में मानव कहीं संचारक के रूप में संदेश सम्प्रेषित करता है, तो कहीं प्रापक के रूप में संदेश ग्रहण करता है। इस प्रक्रिया में सम्मलित लोगों की संख्या के आधार पर मुख्यतरू चार प्रकार के होते हैं रू- 



  1. अंत: वैयक्तिक संचार :यह एक मनोवैज्ञानिक क्रिया तथा मानव का व्यक्तिगत चिंतन-मनन है। इसमें संचारक और प्रापक दोनों की भूमिका एक ही व्यक्ति को निभानी पड़ती है। अंतरू वैयक्तिक संचार मानव की भावना, स्मरण, चिंतन या उलझन के रूप में हो सकती है। कुछ विद्वान स्वप्न को भी अंतरू वैयक्तिक संचार मानते हैं। इसके अंतर्गत् मानव अपनी केंद्रीय स्नायु-तंत्र तथा बाह्य स्नायु-तंत्र का प्रयोग करता है। केंद्रीय स्नायु-तंत्र में मस्तिष्क आता है, जबकि बाह्य स्नायु-तंत्र में शरीर के अन्य अंग। इस पर मनोविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान में पर्याप्त अध्ययन हुए हैं। जिस व्यक्ति का अंतरू वैयक्तिक संचार केंद्रित नहीं होता है, उसे मानव समाज में च्पागलज् कहा जाता है। मानव के मस्तिष्क का उसके अन्य अंगों से सीधा सम्बन्ध होता है। मस्तिष्क अन्य अंगों से न केवल संदेश ग्रहण करता है, बल्कि संदेश सम्प्रेषित भी करता है। जैसे- पैर में मच्छर के काटने का संदेश मस्तिष्क ग्रहण करता है तथा मच्छर को मारने या भगाने का संदेश हाथ को सम्प्रेषित करता है। अंतरू वैयक्तिक संचार को स्वगत संचार के नाम से भी जाना जाता है।


2.अंतर वैयक्तिक संचार : अंतर वैयक्तिक संचार से तात्पर्य दो मानवोंके बीच विचारों, भावनाओं और जानकारियों के आदान-प्रदान से है। यह आमने-सामने होता है। इसके लिए दोनों मानवों के बीच सीधा सम्पर्क का होना बेहद जरूरी है, इसलिए अंतर वैयक्तिक संचार की दो-तरफा (ज्ूव-ूंल) संचार प्रक्रिया कहते हैं। यह कहीं भी स्वर, संकेत, शब्द, ध्वनि, संगीत, चित्र, नाटक आदि के रूप में हो सकता है। इसमें फीडबैक तुुरंत और सबसे बेहतर मिलता है, क्योंकि संचारक जैसे ही किसी विषय पर अपनी बात कहना शुरू करता है, वैसे ही प्रापक से फीडबैक मिलने लगता है। अंतर वैयक्तिक संचार का उदाहरण है-मासूम बच्चा, जो बाल्यावस्था से जैसे-जैसे बाहर निकलता है, वैसे-वैसे समाज के सम्पर्कमें आता है और अंतर वैयक्तिक संचार को अपनाने लगता है। माता-पिता के बुलाने पर उसका हंसना अंतर वैयक्तिक संचार का प्रारंभिक उदाहरण है। इसके बाद वह ज्यों-ज्यों किशोरावस्था की ओर बढ़ता है, त्यों-त्यों भाषा, परम्परा, अभिवादन आदि अंतरवैयक्तिक संचार प्रक्रिया से सीखने लगता है। पास-पड़ोस के लोगों से जुडने में भी अंतर वैयक्तिक संचार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।


3.समूह संचार : यह अंतर वैयक्तिक संचार का विस्तार है, जिसमें मानव सम्बन्धों की जटिलता होती है। मानव अपने जीवन काल में किसी-न-किसी समूह का सदस्य अवश्य होता है। अपनी आवश्यकतओं की पूर्ति के लिए नये समूहों का निर्माण भी करता है। समूहों से पृथक होकर मानव अलग-थलग पड़ जाता है। समूह में जहां मानव के व्यक्तित्व का विकास होता है, वहीं सामाजिक प्रतिष्ठा भी बनती है। समाजशास्त्री चाल्र्स एच. कूले के अनुसार-समाज में दो प्रकार के समूह होते हैं। पहला- प्राथमिक समूह { जिसके सदस्यों के बीच आत्मीयता, निकटता एवं टिकाऊ सम्बन्ध होते हैं। जैसे- परिवार, मित्र मंडली व सामाजिक संस्था इत्यादि } और दूसरा- द्वितीयक समूह  { जिसका निर्माण संयोग या परिस्थितिवश अथवा स्थान विशेष के कारण कुछ समय के लिए होता है। जैसे- ट्रेन व बस के यात्री, क्रिकेट मैच के दर्शक, जो आपस में किसी विषय पर विचार-विमर्श करते हैं} सामाजिक कार्य व्यवहार के अनुसार समूह को हित समूह और दबाव समूह में बांटा गया है। जब कोई समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्य करता है, तो उसे हित समूह कहते हैं, लेकिन जब वह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दूसरे समूहों या प्रशासन पर दबाव डालते लगता है, तो स्वतरू ही दबाव समूह में परिवर्तित हो जाता है। मानव समूह बनाकर विचार-विमर्श, संगोष्ठी, भाषण, सभा के माध्यम से विचारों, जानकारियों व अनुभवाओं का आदान-प्रदान करता है, तो उस प्रक्रिया को समूह संचार कहते हैं। इसमें फीडबैक तुरंत मिलता है, लेकिन अंतर-वैयक्तिक संचार की तरह नहीं। फिर भी, यह प्रभावी संचार है, क्योंकि इसमें व्यक्तित्व खुलकर सामने आता है तथा समूह के सदस्यों को अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर मिलता है। समूह संचार कई सामाजिक परिवेशों में पाया जाता है। जैसे- कक्षा, रंगमंच, कमेटी हॉल, बैठक इत्यादि। 


4.जनसंचार : आधुनिक युग में च्जनसंचारज् काफी प्रचलित शब्द है। इसका निर्माण दो शब्दों  श्जनश् और श्संचारश् के योग से हुआ है। च्जनज् का अर्थ 'जनता अर्थात भीड़' होता है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, जन का अर्थ पूर्ण रूप से व्यक्तिवादिता का अंत है। इस प्रकार, समूह संचार का वृहद रूप है- जनसंचार। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग १९वीं सदी के तीसरे दशक के अंतिम दौर में संदेश सम्प्रेषणकेलिएकियागया।संचार क्रांति के क्षेत्र में अनुसंधान के कारण जैसे-जैसे समाचार पत्र, रेडियो, टेलीविजन, केबल, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि का प्रयोग बढ़ता गया, वैसे-वैसे जनसंचार के क्षेत्र का विस्तार होता गया। इसमें फीडबैक देर से तथा बेहद कमजोर मिला है। कई बार नहीं भी मिलता है। आमतौर पर जनसंचार और जनमाध्यम को एक ही समझा जाता है, किन्तु दोनों अलग-अलग हैं। जनसंचार एक प्रक्रिया है, जबकि जनमाध्यम इसका साधन। जनसंचार माध्यमों के विकास के शुरूआती दौर में जनमाध्यम मानव को सूचना अवश्य देते थे, परंतु उसमें मानव की सहभागिता नहीं होती थी। इस समस्या को संचार विशेषज्ञ जल्दी समझ गये और समाधान के लिए लगातार प्रयासरत रहे। इंटरनेट के आविष्कार के बाद लोगों की सूचना के प्रति भागीदारी बढ़ी है। मनचाहा सूचना प्राप्त करना और दूसरों तक तीब्र गति से सम्प्रेषितकरना संभव हो सका। संचार विशेषज्ञों ने जनसंचार की निम्न प्रकार से परिभाषित किया है - 



  •       लेक्सीकॉन यूनिवर्सल इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार- कोई भी संचार, जो लोगों के महत्वपूर्ण रूप से व्यापक समूह तक पहुंचता हो, जनसंचार है।

  •     कार्नर के अनुसार- जनसंचार संदेशों  के बड़े पैमाने पर उत्पादन तथा वृहद स्तर पर विषमवर्गीय जनसमूहों में द्रुतगामी वितरण करने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में जिन उपकरणों अथवा तकनीक का उपयोग किया जाता है उन्हें जनसंचार माध्यम कहते हैं। 

  •     कुप्पूस्वामी के अनुसार- जनसंचार तकनीकी आधार पर विशाल अथवा व्यापक रूप से लोगों तक सूचना के संग्रह एवं प्रेषण पर आधारित प्रक्रिया है। आधुनिक समाज में जनसंचार का कार्य सूचना प्रेषण, विश्लेषण, ज्ञान एवं मूल्यों का प्रसार तथा मनोरंजन करना है। 

  •     जोसेफ डिविटो के अनुसार- जनसंचार बहुत से व्यक्तियों में एक मशीन के माध्यम से सूचनाओं, विचारों और दृष्टिकोणों को रूपांतरित करने की प्रक्रिया है।

  •     जॉर्ज ए.मिलर के अनुसार- जनसंचार का अर्थ सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचाना है।


      उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि जनसंचार यंत्र संचालित है, जिसमें संदेश को तीब्र गति से भेजने की क्षमता होती है। जनसंचार माध्यमों में टेलीविजन, रेडियो, समाचार-पत्र, पत्रिका, फिल्म, वीडियो, सीडी, इंटरनेट, वेब पोर्टल्स इत्यादि आते हैं, जो संदेश को प्रसारित एवं प्रकाशित करते हैं। 


     मानव संचार का विकास


    विशेषज्ञों का मानना है कि सृष्टि में संचार उतना ही पुराना है, जितना की मानव सभ्यता। आदम युग में मानव के पास आवाज थी, लेकिन शब्द नहीं थे। तब वह अपने हाव-भाव और शारीरिक संकेतों के माध्यम से संचार करता था। तात्कालिक मानव को भी आज के मानव की तरह भूख लगती थी, लेकिन उसके पास भोजन के लिए आज की तरह अनाज नहीं थे। वह वृक्षों के फलों और जानवरों के कच्चे मांसों पर पूर्णतया आश्रित था, जिसकी उपलब्धता के बारे में जानने के लिए आपस में शारीरिक संकेतों के माध्यम से संचार (वार्तालॉप) करता था। पाषाण युग का मानव कच्चे मांस की उपलब्धता वाले इलाकों में पत्थरों पर जानवरों का प्रतीकात्मक चित्र बनाने लगा। कालांतर में मानव ने प्रतीक चित्रों के साथ अपनी आवाज को जोडना प्रारंभ किया, परिणामतरू अक्षर का आविष्कार हुआ। अक्षरों के समूह को शब्द और शब्दों के समूह को वाक्य कहा गया, जो वर्तमाान युग में भी संचार के साधन के रूप में प्रचलित है। इस तरह के संचार का सटीक उदाहरण है- नवजात शिशु... जो शब्दों से अनभिज्ञ होने के कारण हंसकर, रोकर, चीखकर तथा हाथ-पैर चलाकर अपनी भावनाओं को सम्प्रेषित करता है। इसके बाद जैसे-जैसे बड़ा होता है, वैसे-वैसे शब्दों को सीखने लगता है। इसके बाद क्रमशरू तोतली बोली, टूटी-फूटी भाषा और फिर स्पष्ट शब्दों में वार्तालॉप करने लगता है। 


     प्राचीन काल में मानव के पास शब्द तो थे, लेकिन वह पढना-लिखना नहीं जानता था। ऐसी स्थिति में अपने गुरूओं और पूर्वजों के मुख से निकले संदेशों को किवदंतियों के सहारे आने वाली पीढ़ी तक सम्प्रेषित करने का कार्य होता था। कालांतर में भोजपत्रों पर संदेश लिखने और दूसरों तक पहुंचाने की प्रथा प्रारंभ हुई, जो भारत में काफी कारगर साबित हुई। इसी की बदौलत वेद-पुराण व आदि ग्रंथ लोगों तक पहुंचे। गुप्तकाल में  शिलालेखों का निर्माण कराया गया, जिन पर धार्मिक व राजनीतिक सूचनाएं होती थी। ऐसे अनेक स्मारक आज भी मौजूद हैं। 


     जर्मनी के जॉन गुटेनवर्ग ने सन् 1445 में टाइपों का आविष्कार किया, जिससे संचार के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। टाइपों की मदद से विचारों या सूचनाओं को मुद्रित कर अधिक से अधिक लोगों तक प्रसारित करने की सुविधा मिली। सन् 1550 में भारत का पहला प्रेस गोवा में पुर्तगालियों ने इसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए लगाया। जेम्स आगस्टक हिकी ने सन् 1780 में भारत का पहला समाचार-पत्र च्बंगाल गजटश् प्रकाशित किया। 19वीं शताब्दी में टेलीफोन और टेलीग्राम के आविष्कार ने संचार की नई संभावनाओं को जन्म दिया। इसी दौर में रेडियो और टेलीविजन के रूप में मानव को संचार का जबरदस्त साधन मिला। बीसवीं शताब्दी में इलेक्ट्रानिक मीडिया का अत्यधिक विकास हुआ। 21वीं शताब्दी में इंटरनेट ने मानव संचार को सहज, सरल और व्यापक बना दिया।


 


     निष्कर्ष रू मानव समाज में संचार के विकास का प्राचीन काल में जो सिलसिला प्रारंभ हुआ, वह वर्तमान में भी चल रहा और भविष्य में भी चलता रहेगा। इसका अगला पड़ाव क्या होगा, कोई नहीं जानता है। प्राचीन काल में संचार के कुछ ऐसे तरीकों का सूत्रपात किया गया था, जिसकी प्रासंगिक आज भी बरकरार है तथा आगे भी रहेंगी। वह है- यातायात संकेत, जिसे सडक के किनारे देखा जा सकता है, जिन पर दाएं-बाएं मुडने, धीरे चलने, स्प्रीड ब्रेकर या तीब्र मोड़ होने या रूकने के संकेत होते हैं। इन संकेतों को चलती गाड़ी से देखकर समझना बेहद आसान है, जबकि पढकर समझना बेहद मुश्किल है। इन संकेतों के माध्यम से संदेशों का सम्प्रेषण आज भी वैसे ही होता है, जैसे शुरूआती दिनों होता था।मानव जीवन में जीवान्तता के लिए संचार का होना आवश्यक ही नहीं, अपितु अपरिहार्य है। पृथ्वी पर संचार का उद्भव मानव सभ्यता के साथ माना जाता है। प्रारंभिक युग का मानव अपनी भाव-भंगिमाओं, व्यहारजन्य संकेतों और प्रतीक चिन्हों के माध्यम से संचार करता था, किन्तु आधुनिक युग में सूचना प्रौद्योगिकी (प्दवितउंजपवद ज्मबीदवसवहल)  के क्षेत्र में क्रांतिकारी अनुसंधान के कारण मानव संचार बुलन्दी पर पहुंच गया है। वर्तमान में रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, टेलीफोन, मोबाइल, फैक्स, इंटरनेट, ई-मेल, वेब पोर्टल्स, टेलीप्रिन्टर, टेलेक्स, इंटरकॉम, टेलीटैक्स, टेली-कान्फ्रेंसिंग, केबल, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, समाचार पत्र, पत्रिका इत्यादि मानव संचार के अत्याधुनिक और बहुचर्चित माध्यम हैं। मानव संचार को जानने ने पूर्व मानव और संचार को अलग-अलग समझना अनिवार्य है। 


 


( 'प्रतियोगिता दर्पण' जनवरी- 2015 अंक में पेज 101-102 पर प्रकाशित) 


रघुवीर सहाय से मैं इस तरह करीब आ गया


अनामी शरण बबल


http://asbmassindia.blogspot.com/2014/12/blog-post_34.html



काफी अर्सा बीत चुका है, रात भी काऱी गहरा गयी है मगर आज रघुवीर सहाय की जन्म तिथि एक माकूल मौका है कि मैं भी उनके साथ गुजारे गए कुछ क्षणों को याद करूं। 1987-88 भारतीय जनसंचार संस्थान  के हिन्दी पत्रकारिता के पहले बैच का हिस्सा मैं भी था। हमलोग को पढाने एक दिनपत्रकारों के पत्रकार रघुवीर सहाय जी आए। क्लास से पहले और बाद में हम सारे छात्रओं को सहायजी ने बडी आत्मीय तरीके से देखा और स्नेह जताया।  क्लास में पत्रकार बनने से पहले आवश्यक टिप्स दिए और खूब पढने और लगातार लिखते रहने का सुझाव दिया। बातचीत में मैं भी जरा बढ चढ़ कर जोश दिखाया होगा , तभी तो उन्होने मेरा नाम और छात्रावास का फोन नंबर भी पूछा।
अपने घर से सहाय जी फोन किया और कहा अनामी मैं रघुवीर सहाय बोल रहा हूं। मैं पहले तो अवाक सा रह गया फिर संभलते हुए कहा जी सर बताइए। तब शालीनता के साथ सहाय जी ने कहा नहीं नहीं मैं नंबर चेक कर रहा था कि यह काम कर रहा है या नहीं। मैंने फौरन पलटवार सा किया मैं समझ गया सर कि आप मेरा टेस्ट ले रहे थे कि मैने सही नंबर दिया था या नहीं? इस पर वे फौरन नही नहीं अनामी कदापि नहीं . मुझे तुम पर ज्यादा यकीन था और है। तब मैने निवेदन किया कि कोई आदेश सर ?  तब सहायजी ने दूसरी तरफ से कहा कि नहीं अनाणी अभी तो नहीं पर मैं आपको कभी कभी कई बार कष्ट दे सकता हूं। मैने भी पूरे आदर भाव से कहा कि यह तो मेरा सौभाग्य होग। तब जाकर सहाय जी खुले और कहा कि आपके हॉस्टल के पास में ही महानदी हॉस्टल है। मैंने हां में हां मिलाया। तब सहाय जी ने कहा कि दरअसल उसमें मंजरी और हेमंत रहते है , मगर वहां फोन नहीं है, तो  हो सकता है कि मैं कभी कभार फोन करके कोई मैसेज देने के लिए आपको कष्ट दे सकता हूं ।
 सहायजी से बात करके मैं खुद जोश में आ गया होगा, लिहाजा कष्ट की क्या बात है, मैं आपके फोन और आदेश की प्रतीक्षा करूंगा। यह मेरा सौभाग्य होगा कि आप मुझे याद करेंगे आदि इत्यादि ही औपचरिकता के शब्द कहे होंगे।जिसको सुनकर सहाय जी को लगा होगा कि यह लड़का काम कर देगा। करीब सात माह के दौरान सहाय जी नें पांच छह बार फोन करके मंजरी जी का हाल पूछा तो कभी हेमंत जी को कुछ मैसेज देने के लिए कहा था। इसी दौरान सहाय जी दो बार मंजरा और हेमंत जी से मिलने जेएनयू आए, मगर महानदी में रुकने की बजाय वे सीधे मेरे हॉस्टल के मेरे कमरे में आए और दो एक घंटे तक रहे। एक बार बडी निवेदन के उपरांत हॉस्टल का लंच मेरे कमरे में ही लिया। सहाय जी के कहने पर मैं महानदी जाने के लिए हमेशा उत्सुक रहता था, क्योंकि उसी दौरान मंजरी जोशी दूरदर्शन पर समाचार पढ़ती थी। वे काफी लोकप्रिय भी थी, लिहाजा उनको देखने या उनसे बात करने का भी मन में एक आकर्षण होता था। हेंमंत जोशी से इसी दौरान कई बार बात मुलाकात भी हुई।
काफी अर्सा बीत चुका है मगर आज रघुवीर सहाय की जन्म तिथि एक माकूल मौका है कि मैं भी उनके साथ गुजारे गए कुछ क्षणों को याद करू। 1987-88 भारतीय जनसंचार संश्तान के हिनदी पत्रकारिता के पहले बैच का हिस्सा मैं भी था। हमलोग को पढाने एक दिन सहाय जी आए। क्लास से पहले और बाद में हम सारे छात्रओं कोसहायजी
 ने बडी आत्मीय तरीके से देखा और स्नेह जताया।  क्लास में एक पत्रकार बनने से पहले आवश्यक टिप्स दिए और खूब पढने और लगातार लिखते रहने का सुझाव दिया। बातचीत में मैं भी जरा बढ चढ़ कर जोश दिखाया होगा ,तभी तो उन्होने मेरा नाम और छात्रावास का फोन नंबरभी।
र से फोन करके मुझे बुलाया और कहा अनामी मैं सहाय बोल रहा हूं। मैंपहले तोअवाकसा रह गया फिर संभलते हुए कहा जी सर बताइए। तब शालीनता के साथसहाय जी ने कहानहीं मैं नंबर चेक कर रहा था कि यह काम कर रहा है या नहीं। मैंने फौरन पलटवारसा किया मैं समझ गया सर किआप मेरा टेस्टले रहे थे किमैने सही नंबरदिया था या नहीं? इस पर वे फौरन नहंीं नहीं अनामी कदापि नहीं . मुठेतुम पर ज्यादा यकीनथा और है। तब मैने रहा कि कोई आदेश सर ? सहायजी ने दूसरी तरफ से कहा कि लहीं अभी तो नहीं पर मैं आपको कई बार कष्ट दे सकता हूं। मैने भी पूरेआदर भाव से कहा कि यह तो मेरा सौभाग्य होग। तब जाकर सहाय जी खुले और कहा कि आपके हॉस्टल के पास में ही महानदी हॉस्टल है। मैंने हां में हां मिला दी। तब सहाय जी ने कहा कि दरअसल उसमें मंजरी और हेमंत रहते है, मगर वहां फोन नहीं है, तो  हो सकता है कि मैं कभी कभार फोन करके कोई मैसेज देने के लिए आपको कष्ट दे सकता हूं ।
 सहायजीसे बात करके मैं खुद जोश में आगया था लिहाजा कष्ट की क्या बात है, मैं आपके फोन औरआदेश कीप्रतीक्षाकरूंगा आदि इत्यादि  ही औपचरिकता के शब्द कहे होंगे।
करीब सात माह के दौरान सहाय जी नें पांच छह बार फोन करके मंजरी जी का हाल पूछा तो कभी हेमंत जी को कुछ मैसेज देने के लिए कहा था। इली दौरान सहाय जी दो बार मंजरा और हेमंत जी से मिलने जेएनयू आए, मगर महानदी में रुकने की बजाय वे सीधे मेरे हॉस्टल में मेरे कमरे में आए और दो एक घंटे तक रहे। ेक बार बडी निवेदन के उपरांत हॉस्टल का लंच मेरे कमरे में ही लिया। सहाय जी के कहने पर मैं महानदी जाने के लिए उत्सुक रहता था, क्योंकि उसी दौरानमंजरी जोशी दूरदर्शन पर समाचार पढ़ती थी जिससे मिलने या देखने का भी मन में एक आकर्षण होता था। मेरे हॉस्टल से महानदी के करीब होने के नाते  हेमंत जोशी से तो इसी दौरान कई बार बात मुलाकात भी हुई और यही संबंध आज भी बरकरार है कि मैं हेमंत जी के स्नेह का पात्र हूं।  
भारतीय जन संचार संस्थान से अपनी पढाई समाप्त करने उपरांत एक साल के लिए मैं सहारनपुर चला गया और वहां पर 11 दिसंबर 1988 को एक सडक हादसे में बुरी तरह घायल हो गया। करीब आठ माह तक बिस्तर पर रहा और अपने दाहिने पांव के टूटे हुए घुटने को बतौर उपहार शरीर से निकाल बाहर करवा कर ही भला चंगा हो पाया।  
1990 में दिल्ली आते ही चौथी दुनिया साप्ताहिक अखबार में नौकरी करने लगा, मगर तब तक चौथी दुनिया की ए टीम संतोष भारतीय एंड कंपनी रुखसत हो गयी थी। बारी सुधेन्दु पटेल एंड टीम की थी।, जिसके हमलोग वीर वांकुरे थे। जमकर लिखा और पटेल जी ने लिखने बाहर जाकर रिपोर्ट करने की पूरी छूट दे रखी थी। हालांकि मालिक कमल मोरारकी की थैली चौथी दुनियां के लिए कमतर होती जा रही थी और मार्च 1991 मे एक दिन एकाएक चौथी दुनिया के प्राण पखेरू उड गए ।
 चौथी दुनिया के अवसान से पहले ही जाते जाते 1990 के एक दिन पहले यानी 30 दिसंबर 1990  को सहाय जी का निधन हो गया। एकाएक मात्र 61 साल की उम्र में ही वे हमलोगों से जुदा हो गए। चौथी दुनिया के संपादक सुधेन्दु पटेल जी भी सहाय जी के शिष्य रहे थे। उन्होने सहाय जी पर एक विशेष परिशिष्ट करने का फैसला किया और मुझे उनके घर  की तरफ दौडा दिया। एक पत्रकार तो मूलत स्वार्थी और मतलबी कहीं अंहकारी तो कहीं समझौतावादी सा हो जाता है। ज्यादातर नामी पत्रकार लेखक लोग सहाय जी के अंतिम दर्शन के लिए आ रहे थे और सहाय परिवार  के लोग विलाप के साथसाथ  शोक संतप्त थे। मगर मैं उस मौके पर सहाय जी के घर पर आने वाले लोगों से सहायजी के बारे में उनके संस्मरण और यादों को टटोलता रहा। कई घंटो तक प्रेस एनक्लेब  वाले उनके घर के आस पास रहने के बाद जब मैं कार्यालय पहुंचा तो मेरे पास काफी मैटर था।  कईयों की यादे और वाद विवाद रचनाओं के साथ चौथी दुनिया का आयोजन एकदम सबसे अलग रहा, जिसके ले सुधेन्दु पटेल नें शाबासी भी दी।
 चूंकि हेमंत जी से परिचित था तो इस मौके का एफिर मैंने एक  फायदा उठाया कि शोक संतप्त होने के बाद भी पांच छह दिन के बाद ही श्रीमती बिमलेश्वरी सहाय का एक लंबा साक्षात्कार करने में सफल रहा। । जिसमें अपनी यादों की बारात को सामने रखते हुए श्री मती सहाय ने कहा कि सहाय जी हमेशा कहते थे कि बिट्टू जी आपके चलते  ही मेरा सारा साहित्य सुरक्षित है। बिमलेश्वरी जी को सहाय जी हमेशा बिट्टू जी ही कहते थे।  सहाय जी पत्नी बिट्टूजी का यह लंबा पूरे एकपेजी इंटरव्यू की बडी धूम रही।
रघुवीर सहायजी हमारे बीच भले ही न हो मगर किसी न किसी रुप में वे हमेशा हमारे बीच मौजूद ही रहते है। अभी करीब चार साल पहले की बात है जब मैं भारतीय जनसंचार संस्थान के अपने कमरे में हेमंत जोशीजी ने आलमनारी खोलकर बहुत पुराने अखबार के दो तीन बंडल निकाल कर अपने टेबुल पर रख दिया ।  मैं भी उत्सुक हो गया कि पता नहीं हेमंत जी किस पुराने जमाने का खजाना निकाल कर बताने वाले है। तभी हेमंत जी ने 1952 से लेकर 1956 तक के नवभारत टाईम्स में प्रकाशित सहाय जी के रपटो को दिखाते हे कहा कि एक पत्रकार रिपोर्टर के रुप में सहाय जी की ये सब रपट है जो एक रिपोर्टर के रुप में लिखा था। मैं इस
इस दुर्लभ सामग्री को देखकर मैं अभिभूत सा हो गया। फौरन पूछा कि फिर इसे आलमारी में क्यों रखे है इसको किताब के रुप में प्रकाशित करवाइए । इस पर हेमंत जी ने मुझे आश्वस्त किया हां हां हा  मैं लगा हुआ हूं और जल्द ही इसको छापा जाएगा। तब मैंने खुद को प्रस्तुत करते हुए कहा  कि सर मैं इस, काम के लिए खुद को आपके हवाले करता हूं जो संभव है और जब कहेंगे मैं हाजिर रहूंगा। मैंने कहा भी कि इस अभियान में मुझे सहायक बनाकर तो देखिए। तब हेमंत जी ने भी पूरे उत्साह के साथ मेरे ऑफर को स्वीकारा और आश्वस्त करते हुए कहा कि अनामी तुम इस काम के अंश रहोगे। तबसे लेकर करीब तीन साल बीत चुके है और इस दौरान मैंने हेमंत जी से दर्जनों बार पूछा कि कब काम शुरू कर रहे है ? और हर बार मेरे सवाल का एक ही उतर मिलता  रहता कि बस अनामी काम से थोडा निपट लूं तो तुमको बुलाता हूं। मगर हेमंत जी का बुलावा आज तक नहीं आया है
अपनी यादों की पिटारी को बंद करने से पहले दो बात कहना जरूर चाहूंगा । पहला अर्ज तो सहाय जी के दामाद हेमंत जोशी जी से है कि रघुवीर सहाया की रचनाओं को वे एक दामाद की नजर से नहीं बल्कि एक बेटे की नजर से देखे। और खुद पत्रकारों को पढाने वाले प्रोफेसर औपर विभागाध्यक्ष हेमंत जी को इस अनमोल थाती को आलमारी में नहीं किताब बनाकर पत्रकारों के दिल में जगह दे। बेशक अनामी को इसमें काम करने का मौका मिले या न मिले इससे हजार गुणा ज्यादा महत्वपूर्ण है कि सहाय जी की खबरों रिपोर्ट को सामने लाया जाए।
और दूसरा यह कि सहायजी से अपनी मुलाकात का अपनी नजर में कोई महत्व हो न हो मगर भारतीय जनसंचार संस्थान के मेरे बाद के छात्रों ने कितना महत्व  दिया या सहाय जी  से हमारी मुलाकात को इतना उल्लेखनीय बना दिया गया कि मैं अभिभूत रह गया। 2013 में संस्थान से विदाई की 25वी साल पूरे होने के उपलक्ष्य में पहले बैच के सभी छात्रों को बुलाया गया। इस मौके पर मेरे बाद पढाई करने वाले कई पुराने दोस्त मुझे खोजते हुए आए और रघुबीर सहाय के साथ बीते पल को जानने की कोशि की। इन पुराने पत्रकारों के चेहरे पर एक अलग तरह की चमक थी,, मानों मैं चांद से लौटा हूं। हमारे बाद के ज्यादातर लडकों में बडी उत्कंठा थी कि क्यों और किस लिए सहाय जी यहां हॉस्टल में आया करते थे। लड़कों में यह भी विस्मय था सहायजी मेरे दोस्त कैसे बन गए। मैंने बताया कि वे मेरे दोस्त नहीं बल्कि तमाम पत्रकारों के गुरू थे और आज भी है । बस एक मौका था कि मैं पलक झपकते ही सहाय जी का करीबी हो गए। इस संस्थान को छोडे 27 साल होने वाले है मगर आज भी हमारे बाद के छात्रों के मन की व्यग्रता और ललक को देखकर आज भी मन मुग्ध हो जाता है कि एक विराट महा पुरूष के प्रेम का मैं हकदार रहा, जिस पर ज्यादातर मेरे जूनियर छात्र के रश्क है।


प्रेमधाम: आश्रम और उसकी शिक्षा सेवा (प्रेमधाम आश्रम नजीबाबाद के संदर्भ में)


धनीराम


कुदरत भी दुनिया में नए-नए करिश्में करती रहती है किसी को दुनिया भर की नियामतों से नवाज़ देती है तो वहीं कुछ को मूलभूत ज़रूरतों से भी महरूम कर देती है। दरअसल कुदरत पर किसी का कोई जोर नहीं है लेकिन कुदरत की इस बेरहमी का शिकार कुछ मासूम और लाचार बच्चों के लिये रोशनी की किरण बना है प्रेमधाम आश्रम। प्रेमधाम आश्रम उन अनाथ या शारीरिक, मानसिक रूप से दिव्यांग बालकों का है, जिनके सगे-संबंधियों या माता-पिता ने इस बेरहम दुनिया में अकेला छोड़ दिया। यहाँ उन दिव्यांगों को अपनों से ज्यादा प्यार मिलता है। शारीरिक व मानसिक रूप से निःशक्त बच्चों की तमाम जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर लेकर यहाँ के प्रत्येक सेवक व कर्मचारी इनकी पढ़ाई-लिखाई, सेहत, इलाज आदि कार्य को पूर्ण करते हैं। साथ ही इनको संस्कार भी दिए जा रहे हैं। यहाँ के सेवकों के साथ-साथ दूसरे अन्य सेवक भी सेवा करते हैं, दान देते हैं। इस आश्रम में दूर-दूर से लोग सेवा के लिए आते हैं।
प्रेमधाम आश्रम में फादर शीबू व फादर बेनी को देखकर लगता है कि वह दुनिया के सबसे अधिक सौभाग्यशाली व्यक्ति हैं क्योंकि ये दोनों उस कार्य को कर रहे हैं जिसके लिए उन्हें चुना गया है। ईश्वर ने इन दोनों के अंदर एक माँ का प्यार भी जाग्रत किया और पिता का दुलार भी। यहाँ सभी दिव्यांग इनकी संताने हैं। इन की सेवा करना ही प्रभु का आदेश है।
प्रेमधाम आश्रम उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर की नजीबाबाद तहसील में स्थित है। यह उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सीमा से सटा हुआ है। पहले यह कोटद्वार रोड पर था लेकिन अब यह नजीबाबाद में ही नजीबाबाद रेलवे जंक्शन से मात्र 2-3 किलोमीटर दूर हरिद्वार रोड पर प्राचीन नदी मालन के तट के समीप साहनपुर से पहले पड़ता है। प्रेमधाम एक ऐसा धाम है या एक ऐसा आश्रम है जहाँ उन्हें भी प्रेम मिलता है जिन्हें उन्हीं के परिजनों ने शारीरिक, मानसिक दिव्यांगता के चलते त्याग दिया है। यहाँ ऐसे बच्चों को आश्रय दिया जाता है जो किसी भी शारीरिक तथा मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं, उन बच्चों को यहाँ लाकर उनकी देखभाल की जाती है, उनको सामान्य जीवन जीने की कला सिखाई जाती है। 
इस आश्रम में ऐसे दिव्यांग बच्चे हैं जो भूख लगने पर किसी को बता भी नहीं सकते, उनको सेवक वहीं पर खाना खिलाते हैं। कुछ चल फिर नहीं सकते, वे अपने विस्तर में ही लेटे रहते हैं, कुछ बच्चे कपड़ों में ही शौच कर लेते हैं, स्वयं सेवक ही उनकी सफाई करते हैं, उनको कपड़े पहनाते हैं, उनको पेस्ट कराते हैं, नहलाते हैं, साफ-सुथरा करके दैनिक कार्यों के लिये तैयार करते हैं।
दिव्यांग बच्चों के लिये शिक्षा या साक्षरता की आवश्यकता
प्रेमधाम आस-पास के क्षेत्र के साथ-साथ अन्य प्रदेश के दिव्यांगों की सेवा का केंद्र बन गया है। इस संस्था में शारीरिक, मानसिक दिव्यांग तथा निःशक्त, असहाय व उपेक्षित लगभग 172 बच्चे हैं। जिसमें 40 शय्याग्रसत हैं, 15 व्हील चेयर और लगभग 103 ऐसे दिव्यांग हैं जो चल-फिर सकते हैं और बोल सकते हैं। इस आश्रम में सेवकों और प्रशिक्षित ट्रेनरों की संख्या लगभग 24 है, जो इन बच्चों की देखभाल करते हैं और उनको सामान्य जीवन जीने की कला सिखाते हैं। इन सभी बच्चों को सामान्य जीवन जीने के लिए तैयार करने में सबसे पहले आवश्यक है इनको शिक्षित किया जाए और जो बच्चे सामान्य शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते, उन्हें साक्षर बनाया जा सके।
शिक्षा का व्यवस्था
शिक्षा की व्यवस्था के लिए प्रेमधाम को सरकार से कोई सहयोग नहीं मिलता है। यहाँ के सभी बच्चों की आवश्यकता आश्रम प्रबंधकीय कमेटी ही पूरा करती है।
यहाँ दिव्यांग को लाकर उसकी देखभाल के साथ-साथ उसकी शिक्षा की व्यवस्था भी की जाती है। उनकी तमाम आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है। जैसे- भोजन, कपड़े, शिक्षा आदि। प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर यहाँ 5 प्रशिक्षित अध्यापक नियुक्त हैं, जो विशेष शिक्षा में प्रशिक्षण प्राप्त हैं। ये समय पर उपस्थित होकर प्रेमधाम आश्रम में शिक्षा देने का कार्य करते हैं। शिक्षा से संबंधित जितना भी खर्च होता है, जैसे- स्टेशनरी व अध्यापकों का वेतन आदि उस सबकी व्यवस्था प्रेमधाम आश्रम ही वहन करता है। यह आश्रम शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम व्यक्तियों को आवासीय प्रशिक्षण देकर स्वावलंबी व आत्मनिर्भर बनाता है और उन्हें समाज की मुख्यधारा में जोड़ने का कार्य करता है।
प्रशिक्षित अध्यपक
बच्चों को शिक्षा देने के लिए अथवा साक्षर बनाने के लिए आश्रम में पाँच प्रशिक्षित अध्यापक नियुक्त हैं। अध्यापक जयकुमार एमए अर्थशास्त्र तथा दो वर्षीय स्पेशल डीएड प्रशिक्षण प्राप्त हैं। अभिषेक गर्ग, पारूल, चारूल, ममता भी सभी प्रशिक्षित अध्यापक इस महान कार्य में संलग्न हैं।
ये सभी अध्यापक पूर्ण लगन और निष्ठा से कार्य करते हैं। प्रातः 9ः30 से कक्षाओं का संचालन किया जाता है जो शाम 04ः00 बजे तक चलता है। सभी शिक्षक मिलकर दिव्यांग बच्चों को विभिन्न समूहों में बांट कर शिक्षण कार्य करते हैं।
उच्च शिक्षा के भी अवसर
विभिन्न प्रशिक्षित अध्यापकों द्वारा संस्था की ओर से बच्चों को साक्षर किया जाता है, जो बालक साक्षर हो जाते हैं, कुछ लिखना-पढ़ना सीख लेते हैं और सामान्य बच्चों की तरह व्यवहार करते हैं। ऐसे बच्चों को आश्रम से बाहर बच्चों के साथ सरकारी या निजि विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेज दिया जाता है। वर्तमान में ऐसे छात्रों की संख्या आठ है।
एक ऐसा ही दिव्यांग छात्र इस आश्रम में रहता है जिसका नाम नवीन है। उसने आश्रम से बाहर विभिन्न सामान्य विद्यालयों से शिक्षा ग्रहण की माध्यमिक शिक्षा उत्र्तीण करने के पश्चात् साहू जैन महाविद्यालय से एमए हिंदी अंतिम वर्ष की परीक्षा 2020 में देने जा रहा है।
इसके साथ-साथ एक दिव्यांग किशोर कैलाश है। जिसके दोनों हाथ व दोनों पैर नहीं हैं, उसने दोनों हाथों की कलाई से लिखकर हाईस्कूल तथा इंटर की परीक्षा उत्र्तीण की और इस समय वह कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से बीबीए की शिक्षा ग्रहण कर रहा है।
कैलाश अपने दोनों हाथों की कलाई से अपनी कल्पनाओं को उड़ान दे रहा है। वह एक अच्छा चित्रकार भी है और विभिन्न पुरस्कार भी प्राप्त कर चुका है।
शिक्षा की प्रक्रिया-
-सामान्य शिक्षा
-संगीत एवं कला व नृत्य
-खेल कूद
-व्यवसायिक शिक्षा
इस आश्रम में कुल दिव्यांगों की संख्या 172 है। इनमें 0 वर्ष से 18 वर्ष तक के 30 बच्चे आश्रम में शिक्षा ग्रहण करते हैं, 08 बच्चे आश्रम से बाहर शिक्षा ग्रहण करते हैं 02 डिग्री काॅलेज में अध्यन कर रहे हैं।
आश्रम में सभी दिव्यांग बच्चों को शिक्षा के समान अवसर दिए जाते हैं। सामान्य रूप में उनको भाषा, गणित आदि विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती है। उनको अक्षरों का ज्ञान कराया जाता है, उनको व्यवहारिक ज्ञान भी दिया जाता है।
आश्रम में ही सभी को संगीत, कला, नृत्य, खेलकूद, व्यवसायिक शिक्षा भी दी जाती है। दीपावली व अन्य त्यौहार पर उनके द्वारा बनायी गई मोमबत्ती, झालर, आदि सामान बाजार में बेचा जाता है। जिससे बच्चों को सीखने, करने व देखने का अवसर तो मिलता ही है, साथ ही उनके सामान को बाजार मिलने से आय भी हो जाती है। अन्य सामग्री, पेंटिंग, चटाई, गमले आदि भी बनाकर बाजार में बेचा जाता है।
ख्ेालकूद में क्रिकेट, रेस, मेंढक दौड़, रस्सी खींच, फुटबाॅल, बैडमिंटन आदि खेल सिखाए जाते हैं।
संगीत में गायन के साथ-साथ ढोलक, तबला, हारमोनियम, ड्रम, बाजा, बैंड आदि सिखाया जाता है।
राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पर्वों का आयोजन-
प्रेमधाम आश्रम में सभी राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पर्वों का आयोजन भी किया जाता है। 14 नवंबर 2019 को प्रेमधाम आश्रम के दिव्यांग बच्चों के बहुत से कार्यक्रमों  के सजीव प्रसारण आकाशवाणी केंद्र नजीबाबाद से किए गए हैं। व्यवसायिक शिक्षा में राजीव शर्मा तथा रजनी रोबर्ट का विशेष योगदान है। 5 जून अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस, 15 अगस्त, 26 जनवरी को बहुत से संस्कृति, देशभक्ति कार्यक्रम किए जाते हैं। 05 सितंबर को शिक्षक दिवस, 2 अक्टूबर को गांधी जयंती, 03 दिसंबर को विकलांग दिवस को बहुत ही हर्ष व उल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ जितने भी धार्मिक त्यौहार है जैसे ईद, दिवाली, होली, क्रिसमस आदि।
शिष्ट अतिथियों का आगमन 
बिजनौर जिले के जिलाधिकारी एवं नजीबाबाद एसडीएम ने भी प्रेमधाम पहुँचकर यहाँ के फादर शीबू थाॅमस एवं फादर बेनी तकेकरा से मुलाकात की और इस अवसर इन दोनों के नेतृत्व में दिव्यांग बच्चों ने अतिथियों का स्वागत किया। डीएम ने दिव्यांगों और मानसिक अस्वस्थ बच्चों के लिए आश्रम प्रबंधन द्वारा की गई व्यवस्थाओं को जाना। फादर शीबू ने बताया कि बच्चों के मेडिकल की सुविधा आश्रम में होने के साथ-साथ फिजियोथैरेपी एवं अन्य आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध हैं। उन्होंने बच्चों को पढ़ने के साथ-साथ आत्मनिर्भर बनाए जाने की जानकारी दी।
प्रेमधाम आश्रम में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस कुरियन 
आश्रम में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस मुख्य अतिथि के रूप में पहुँचे। इस कार्यक्रम में मौजूद 100 दिव्यांग बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से सिलाई मशीन वितरण की और उनको प्रमाण पत्र भी वितरित किए। दिव्यांग बच्चों को आत्मसुरक्षा एवं स्वावलंबी बनने की शिक्षा दी और कहा कि हमें अपने जीवन में निराश नहीं होना चाहिए। 
सारांश 
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पूर्ण रूप से मानव सेव के लिए समर्पित यह प्रेमधाम न जाने कितने बेसहारा लोगों के लिए अपना घर है। यहाँ माँ के जैसा प्यार भी मिलता है और पिता के जैसा दुलार भी। यहां पर इन बच्चों को जीवन के लिए इस तरह तैयार किया जाता है कि वह भविष्य में अपने जीवन में कुछ अच्छा कर सकें या अपने पैरों पर खड़ा हो सकें। बच्चों के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए प्रेमधाम आश्रम उनको साक्षर भी बनाता है और शिक्षित भी। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जिसको पाकर बालक का चहुँमुखी विकास होता है। शिक्षक मनोविज्ञान के आधार पर बालक की विभिन्नताएं, आवश्यकताएं और रुचियों को ध्यान में रखकर शिक्षण कार्य करते हैं। यहाँ पर शिक्षा के माध्यम से बालक का मानसिक, सामाजिक, शारीरिक, आध्यात्मिक, संवेगात्मक विकास किया जाता है। 


वैशाली

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