अनामी शरण बबल
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काफी अर्सा बीत चुका है, रात भी काऱी गहरा गयी है मगर आज रघुवीर सहाय की जन्म तिथि एक माकूल मौका है कि मैं भी उनके साथ गुजारे गए कुछ क्षणों को याद करूं। 1987-88 भारतीय जनसंचार संस्थान के हिन्दी पत्रकारिता के पहले बैच का हिस्सा मैं भी था। हमलोग को पढाने एक दिनपत्रकारों के पत्रकार रघुवीर सहाय जी आए। क्लास से पहले और बाद में हम सारे छात्रओं को सहायजी ने बडी आत्मीय तरीके से देखा और स्नेह जताया। क्लास में पत्रकार बनने से पहले आवश्यक टिप्स दिए और खूब पढने और लगातार लिखते रहने का सुझाव दिया। बातचीत में मैं भी जरा बढ चढ़ कर जोश दिखाया होगा , तभी तो उन्होने मेरा नाम और छात्रावास का फोन नंबर भी पूछा।
अपने घर से सहाय जी फोन किया और कहा अनामी मैं रघुवीर सहाय बोल रहा हूं। मैं पहले तो अवाक सा रह गया फिर संभलते हुए कहा जी सर बताइए। तब शालीनता के साथ सहाय जी ने कहा नहीं नहीं मैं नंबर चेक कर रहा था कि यह काम कर रहा है या नहीं। मैंने फौरन पलटवार सा किया मैं समझ गया सर कि आप मेरा टेस्ट ले रहे थे कि मैने सही नंबर दिया था या नहीं? इस पर वे फौरन नही नहीं अनामी कदापि नहीं . मुझे तुम पर ज्यादा यकीन था और है। तब मैने निवेदन किया कि कोई आदेश सर ? तब सहायजी ने दूसरी तरफ से कहा कि नहीं अनाणी अभी तो नहीं पर मैं आपको कभी कभी कई बार कष्ट दे सकता हूं। मैने भी पूरे आदर भाव से कहा कि यह तो मेरा सौभाग्य होग। तब जाकर सहाय जी खुले और कहा कि आपके हॉस्टल के पास में ही महानदी हॉस्टल है। मैंने हां में हां मिलाया। तब सहाय जी ने कहा कि दरअसल उसमें मंजरी और हेमंत रहते है , मगर वहां फोन नहीं है, तो हो सकता है कि मैं कभी कभार फोन करके कोई मैसेज देने के लिए आपको कष्ट दे सकता हूं ।
सहायजी से बात करके मैं खुद जोश में आ गया होगा, लिहाजा कष्ट की क्या बात है, मैं आपके फोन और आदेश की प्रतीक्षा करूंगा। यह मेरा सौभाग्य होगा कि आप मुझे याद करेंगे आदि इत्यादि ही औपचरिकता के शब्द कहे होंगे।जिसको सुनकर सहाय जी को लगा होगा कि यह लड़का काम कर देगा। करीब सात माह के दौरान सहाय जी नें पांच छह बार फोन करके मंजरी जी का हाल पूछा तो कभी हेमंत जी को कुछ मैसेज देने के लिए कहा था। इसी दौरान सहाय जी दो बार मंजरा और हेमंत जी से मिलने जेएनयू आए, मगर महानदी में रुकने की बजाय वे सीधे मेरे हॉस्टल के मेरे कमरे में आए और दो एक घंटे तक रहे। एक बार बडी निवेदन के उपरांत हॉस्टल का लंच मेरे कमरे में ही लिया। सहाय जी के कहने पर मैं महानदी जाने के लिए हमेशा उत्सुक रहता था, क्योंकि उसी दौरान मंजरी जोशी दूरदर्शन पर समाचार पढ़ती थी। वे काफी लोकप्रिय भी थी, लिहाजा उनको देखने या उनसे बात करने का भी मन में एक आकर्षण होता था। हेंमंत जोशी से इसी दौरान कई बार बात मुलाकात भी हुई।
काफी अर्सा बीत चुका है मगर आज रघुवीर सहाय की जन्म तिथि एक माकूल मौका है कि मैं भी उनके साथ गुजारे गए कुछ क्षणों को याद करू। 1987-88 भारतीय जनसंचार संश्तान के हिनदी पत्रकारिता के पहले बैच का हिस्सा मैं भी था। हमलोग को पढाने एक दिन सहाय जी आए। क्लास से पहले और बाद में हम सारे छात्रओं कोसहायजी
ने बडी आत्मीय तरीके से देखा और स्नेह जताया। क्लास में एक पत्रकार बनने से पहले आवश्यक टिप्स दिए और खूब पढने और लगातार लिखते रहने का सुझाव दिया। बातचीत में मैं भी जरा बढ चढ़ कर जोश दिखाया होगा ,तभी तो उन्होने मेरा नाम और छात्रावास का फोन नंबरभी।
र से फोन करके मुझे बुलाया और कहा अनामी मैं सहाय बोल रहा हूं। मैंपहले तोअवाकसा रह गया फिर संभलते हुए कहा जी सर बताइए। तब शालीनता के साथसहाय जी ने कहानहीं मैं नंबर चेक कर रहा था कि यह काम कर रहा है या नहीं। मैंने फौरन पलटवारसा किया मैं समझ गया सर किआप मेरा टेस्टले रहे थे किमैने सही नंबरदिया था या नहीं? इस पर वे फौरन नहंीं नहीं अनामी कदापि नहीं . मुठेतुम पर ज्यादा यकीनथा और है। तब मैने रहा कि कोई आदेश सर ? सहायजी ने दूसरी तरफ से कहा कि लहीं अभी तो नहीं पर मैं आपको कई बार कष्ट दे सकता हूं। मैने भी पूरेआदर भाव से कहा कि यह तो मेरा सौभाग्य होग। तब जाकर सहाय जी खुले और कहा कि आपके हॉस्टल के पास में ही महानदी हॉस्टल है। मैंने हां में हां मिला दी। तब सहाय जी ने कहा कि दरअसल उसमें मंजरी और हेमंत रहते है, मगर वहां फोन नहीं है, तो हो सकता है कि मैं कभी कभार फोन करके कोई मैसेज देने के लिए आपको कष्ट दे सकता हूं ।
सहायजीसे बात करके मैं खुद जोश में आगया था लिहाजा कष्ट की क्या बात है, मैं आपके फोन औरआदेश कीप्रतीक्षाकरूंगा आदि इत्यादि ही औपचरिकता के शब्द कहे होंगे।
करीब सात माह के दौरान सहाय जी नें पांच छह बार फोन करके मंजरी जी का हाल पूछा तो कभी हेमंत जी को कुछ मैसेज देने के लिए कहा था। इली दौरान सहाय जी दो बार मंजरा और हेमंत जी से मिलने जेएनयू आए, मगर महानदी में रुकने की बजाय वे सीधे मेरे हॉस्टल में मेरे कमरे में आए और दो एक घंटे तक रहे। ेक बार बडी निवेदन के उपरांत हॉस्टल का लंच मेरे कमरे में ही लिया। सहाय जी के कहने पर मैं महानदी जाने के लिए उत्सुक रहता था, क्योंकि उसी दौरानमंजरी जोशी दूरदर्शन पर समाचार पढ़ती थी जिससे मिलने या देखने का भी मन में एक आकर्षण होता था। मेरे हॉस्टल से महानदी के करीब होने के नाते हेमंत जोशी से तो इसी दौरान कई बार बात मुलाकात भी हुई और यही संबंध आज भी बरकरार है कि मैं हेमंत जी के स्नेह का पात्र हूं।
भारतीय जन संचार संस्थान से अपनी पढाई समाप्त करने उपरांत एक साल के लिए मैं सहारनपुर चला गया और वहां पर 11 दिसंबर 1988 को एक सडक हादसे में बुरी तरह घायल हो गया। करीब आठ माह तक बिस्तर पर रहा और अपने दाहिने पांव के टूटे हुए घुटने को बतौर उपहार शरीर से निकाल बाहर करवा कर ही भला चंगा हो पाया।
1990 में दिल्ली आते ही चौथी दुनिया साप्ताहिक अखबार में नौकरी करने लगा, मगर तब तक चौथी दुनिया की ए टीम संतोष भारतीय एंड कंपनी रुखसत हो गयी थी। बारी सुधेन्दु पटेल एंड टीम की थी।, जिसके हमलोग वीर वांकुरे थे। जमकर लिखा और पटेल जी ने लिखने बाहर जाकर रिपोर्ट करने की पूरी छूट दे रखी थी। हालांकि मालिक कमल मोरारकी की थैली चौथी दुनियां के लिए कमतर होती जा रही थी और मार्च 1991 मे एक दिन एकाएक चौथी दुनिया के प्राण पखेरू उड गए ।
चौथी दुनिया के अवसान से पहले ही जाते जाते 1990 के एक दिन पहले यानी 30 दिसंबर 1990 को सहाय जी का निधन हो गया। एकाएक मात्र 61 साल की उम्र में ही वे हमलोगों से जुदा हो गए। चौथी दुनिया के संपादक सुधेन्दु पटेल जी भी सहाय जी के शिष्य रहे थे। उन्होने सहाय जी पर एक विशेष परिशिष्ट करने का फैसला किया और मुझे उनके घर की तरफ दौडा दिया। एक पत्रकार तो मूलत स्वार्थी और मतलबी कहीं अंहकारी तो कहीं समझौतावादी सा हो जाता है। ज्यादातर नामी पत्रकार लेखक लोग सहाय जी के अंतिम दर्शन के लिए आ रहे थे और सहाय परिवार के लोग विलाप के साथसाथ शोक संतप्त थे। मगर मैं उस मौके पर सहाय जी के घर पर आने वाले लोगों से सहायजी के बारे में उनके संस्मरण और यादों को टटोलता रहा। कई घंटो तक प्रेस एनक्लेब वाले उनके घर के आस पास रहने के बाद जब मैं कार्यालय पहुंचा तो मेरे पास काफी मैटर था। कईयों की यादे और वाद विवाद रचनाओं के साथ चौथी दुनिया का आयोजन एकदम सबसे अलग रहा, जिसके ले सुधेन्दु पटेल नें शाबासी भी दी।
चूंकि हेमंत जी से परिचित था तो इस मौके का एफिर मैंने एक फायदा उठाया कि शोक संतप्त होने के बाद भी पांच छह दिन के बाद ही श्रीमती बिमलेश्वरी सहाय का एक लंबा साक्षात्कार करने में सफल रहा। । जिसमें अपनी यादों की बारात को सामने रखते हुए श्री मती सहाय ने कहा कि सहाय जी हमेशा कहते थे कि बिट्टू जी आपके चलते ही मेरा सारा साहित्य सुरक्षित है। बिमलेश्वरी जी को सहाय जी हमेशा बिट्टू जी ही कहते थे। सहाय जी पत्नी बिट्टूजी का यह लंबा पूरे एकपेजी इंटरव्यू की बडी धूम रही।
रघुवीर सहायजी हमारे बीच भले ही न हो मगर किसी न किसी रुप में वे हमेशा हमारे बीच मौजूद ही रहते है। अभी करीब चार साल पहले की बात है जब मैं भारतीय जनसंचार संस्थान के अपने कमरे में हेमंत जोशीजी ने आलमनारी खोलकर बहुत पुराने अखबार के दो तीन बंडल निकाल कर अपने टेबुल पर रख दिया । मैं भी उत्सुक हो गया कि पता नहीं हेमंत जी किस पुराने जमाने का खजाना निकाल कर बताने वाले है। तभी हेमंत जी ने 1952 से लेकर 1956 तक के नवभारत टाईम्स में प्रकाशित सहाय जी के रपटो को दिखाते हे कहा कि एक पत्रकार रिपोर्टर के रुप में सहाय जी की ये सब रपट है जो एक रिपोर्टर के रुप में लिखा था। मैं इस
इस दुर्लभ सामग्री को देखकर मैं अभिभूत सा हो गया। फौरन पूछा कि फिर इसे आलमारी में क्यों रखे है इसको किताब के रुप में प्रकाशित करवाइए । इस पर हेमंत जी ने मुझे आश्वस्त किया हां हां हा मैं लगा हुआ हूं और जल्द ही इसको छापा जाएगा। तब मैंने खुद को प्रस्तुत करते हुए कहा कि सर मैं इस, काम के लिए खुद को आपके हवाले करता हूं जो संभव है और जब कहेंगे मैं हाजिर रहूंगा। मैंने कहा भी कि इस अभियान में मुझे सहायक बनाकर तो देखिए। तब हेमंत जी ने भी पूरे उत्साह के साथ मेरे ऑफर को स्वीकारा और आश्वस्त करते हुए कहा कि अनामी तुम इस काम के अंश रहोगे। तबसे लेकर करीब तीन साल बीत चुके है और इस दौरान मैंने हेमंत जी से दर्जनों बार पूछा कि कब काम शुरू कर रहे है ? और हर बार मेरे सवाल का एक ही उतर मिलता रहता कि बस अनामी काम से थोडा निपट लूं तो तुमको बुलाता हूं। मगर हेमंत जी का बुलावा आज तक नहीं आया है
अपनी यादों की पिटारी को बंद करने से पहले दो बात कहना जरूर चाहूंगा । पहला अर्ज तो सहाय जी के दामाद हेमंत जोशी जी से है कि रघुवीर सहाया की रचनाओं को वे एक दामाद की नजर से नहीं बल्कि एक बेटे की नजर से देखे। और खुद पत्रकारों को पढाने वाले प्रोफेसर औपर विभागाध्यक्ष हेमंत जी को इस अनमोल थाती को आलमारी में नहीं किताब बनाकर पत्रकारों के दिल में जगह दे। बेशक अनामी को इसमें काम करने का मौका मिले या न मिले इससे हजार गुणा ज्यादा महत्वपूर्ण है कि सहाय जी की खबरों रिपोर्ट को सामने लाया जाए।
और दूसरा यह कि सहायजी से अपनी मुलाकात का अपनी नजर में कोई महत्व हो न हो मगर भारतीय जनसंचार संस्थान के मेरे बाद के छात्रों ने कितना महत्व दिया या सहाय जी से हमारी मुलाकात को इतना उल्लेखनीय बना दिया गया कि मैं अभिभूत रह गया। 2013 में संस्थान से विदाई की 25वी साल पूरे होने के उपलक्ष्य में पहले बैच के सभी छात्रों को बुलाया गया। इस मौके पर मेरे बाद पढाई करने वाले कई पुराने दोस्त मुझे खोजते हुए आए और रघुबीर सहाय के साथ बीते पल को जानने की कोशि की। इन पुराने पत्रकारों के चेहरे पर एक अलग तरह की चमक थी,, मानों मैं चांद से लौटा हूं। हमारे बाद के ज्यादातर लडकों में बडी उत्कंठा थी कि क्यों और किस लिए सहाय जी यहां हॉस्टल में आया करते थे। लड़कों में यह भी विस्मय था सहायजी मेरे दोस्त कैसे बन गए। मैंने बताया कि वे मेरे दोस्त नहीं बल्कि तमाम पत्रकारों के गुरू थे और आज भी है । बस एक मौका था कि मैं पलक झपकते ही सहाय जी का करीबी हो गए। इस संस्थान को छोडे 27 साल होने वाले है मगर आज भी हमारे बाद के छात्रों के मन की व्यग्रता और ललक को देखकर आज भी मन मुग्ध हो जाता है कि एक विराट महा पुरूष के प्रेम का मैं हकदार रहा, जिस पर ज्यादातर मेरे जूनियर छात्र के रश्क है।
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