अख़्तर-उल-ईमान इधर से न जाओ इधर राह में एक बूढ़ा खड़ा है जो पेशानियों और चेहरों पे ऐसी भभूत एक मल देगा सब झुर्रियाँ फट पड़ेंगी सियह, मार जैसे, चमकते हुए काले बालों पे ऐसी सपीदी उमँड आएगी कुछ तदारुक नहीं जिस का कोई कोई रास्ता और ढूँडो कि इस पीर-ए-फ़र्तूत की तेज़ नज़रों से बच कर निकल जाएँ और इस की ज़द में न आएँ कभी हम इधर से न जाओ इधर मैं ने इक शख़्स को जाते देखा है अक्सर जवानों को जो राह में रोक लेता है उन से वहीं बातें करता है मिल कर जो सुक़रात करता था यूनान के मनचलों से यक़ीनन उसे एक दिन ज़हर पीना पड़ेगा इधर से न जाओ इधर रौशनी है कहीं आओ छुप जाएँ जाकर तमाम आफ़तों से मुझे एक तह-ख़ाना मालूम है ख़ुशनुमा सा जो शाहान-ए-देहली ने बनवाया था इस ग़रज़ से कि अबदालियों, नादिरी फ़ौज की दस्तरस से बचें और बैठे रहें सारे हंगामों की ज़द से हट कर ये दर-अस्ल मीरास है आप की मेरी सब की सलातीन-ए-देहली से पहले किसी और ने इस की बुनियाद रक्खी थी लेकिन वो अब क़ब्ल-ए-तारीख़ की बात है कौन जाने इधर से न जाओ इधर शाह-नादिर नहीं आज कोई भी लेकिन वही क़त्ल-ए-आम आज भी हो रहा है ये मीरास है आप की मेरी सब की ये सौग़ात