Tuesday, January 7, 2020

भूख


इन्द्रदेव भारती


आदमखोरों को सरकारी,
अभिरक्षण   वरदान  है ।
अपने हिंदुस्तान का भैया 
अद्भुत......संविधान  है ।


इंसां  को  गुलदार मारे,
उसको  पूरी   शह  यहाँ ।
गुलदार को  इन्सान  मारे,
जेल   जाना   तय  यहाँ ।


रोज बकरा  यूँ  बलि  का
बन    रहा   इन्सान   है ।
अपने हिंदुस्तान का भैया
अद्भुत......संविधान  है ।


रोज  जंगल  कट  रहे हैं,
जब   शहर   के  वास्ते ।
क्यूँ न जंगल ढूंढलें फिर
खुद  शहर   के   रास्ते  


इंसांं  हो   या   हो   हैवां,
भूख का क्या विधान  है ।
अपने  इस  जहान   का,
अज़ब ग़ज़ब विधान है ।


 


Wednesday, January 1, 2020

रश्मि अग्रवाल एवं गौराश्री आत्रेय की पुस्तकें हुई विमोचित

परिलेख प्रकाशन से प्रकाशित दो पुस्तकों का विमोचन


नजीबाबाद
वरिष्ठ समाजसेवी एवं राष्ट्रपती द्वारा सम्मानित लेखिका रश्मि अग्रवाल के कविता संग्रह 'अरी कलम तू कुछ तो लिख' एवं बालिका कवयित्री गौराश्री की पुस्तक 'गौराश्री की कविताएँ' का विमोचन कार्यक्रम आर्यन कान्वेंट स्कूल में संपन्न हुआ। कार्यक्रम का प्रारंभ माॅ सरस्वती के समक्ष अध्यक्ष एवं मुख्य अतिथि ने दीप प्रज्ज्वलन एवं पुष्प अर्पण के साथ-साथ गौराश्री आत्रेय के सरस्वती वंदना गायन से हुआ।  


कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध शायर महेन्द्र अश्क तथा संचालन आलोक कुमार त्यागी ने किया। कार्यक्रम में डाॅ. सुधाकर आशावादी, राजेश मालवीय एवं सुचित्रा मालवीय मुख्य अतिथि रहे।


अनेक पुस्तकें लिखने वाली रश्मि अग्रवाल ने बताया कि यह उनकी प्रथम काव्य पुस्तक है। जिसमें उनकी बीते लगभग दस वर्ष की मेहनत है। उन्होंने इन्द्रदेव भारती को अपना साहित्यिक आदर्श मानते हुए कहा कि लेखन मेहनत मांगता है परंतु प्रतिदिन इतने विषय मिलते हैं यदि जिन पर लिखने बैठो तो लगभग दो घंटे में एक अच्छा सा लेख लिखा जाता है। समाज में घटित होने वाली विभिन्न घटनाएँ और उन पर किया जाने वाला चिंतन यदि कागज पर उतार लिया जाए तो लेखन हो जाता है परंतु इन सब घटनाओं को काव्य रूप् देना कठिन काम है। कभी-कभी तो चार-चार दिन में भी एक पंक्ति नहीं लिखी जाती है और कभी एक दिन में ही पूरी कविता बन जाती है। विभिन्न विष्यों पर कलम चालाने वाली रश्मि अग्रवाल ने कहा कि लेखन हमें सकारात्मक दृष्टिकोण देता है। यदि कभी आपको क्रोध आए तो लिखने बैठ जाईए, इससे आपका क्रोध भी कुछ समय प्श्चात शांत हो जाएगा और किसी का कोई नुकसान भी नहीं होगा।


बाल कवयित्री ने अपनी कविता लेखन का श्रेय अपने विद्यालय एवं अपने परिवार को दिया। इन्द्रदेव भारती ने बताया कि जब मैंने उसकी डायरी देखी थी तब विश्वास नहींं हुआ तो परीक्षण के लिए उसी समय पर सरस्वती वंदना लिखने को कहा। भारती ने बताया कि उस समय मैं हत्प्रभ रह गया जब मात्र पाँच मिनट में सरस्वती वंदना उसने कागज़ पर उतार कर मेरे सामने रख दी। भारती ने गौराश्री की सराहना करते हुए कहा कि दादी का चश्मा और मोबाईल जैसे विषयों पर कविता लिखना गौराश्री की मौलिकता का परिचायक है।


कार्यक्रम को इन्द्रदेव भारती, मनोज मानव, डाॅ. पंकज भारद्वाज, डाॅ. अनिल शर्मा अनिल, रचना शास्त्री, मनोज त्यागी, डाॅ. रजनी शर्मा, डाॅ. एन. पी. शर्मा, डाॅ. एस. के. जौहर,  सत्यप्रकाश मित्तल, बब्बन जैदी आदि ने संबोधित किया। प्रकाशक अमन कुमार 'त्यागी' ने प्रकाशन की उपलब्धियों को गिनाया।


इस अवसर पर अनुपम माहेश्वरी, सुधीर कुमार राणा, धनिराम, गोविन्द सिंह, अशोक शर्मा, अक्षि त्यागी, तन्मय त्यागी, हिमांशु कुमार, लालबहादुर शास्त्री, नंदीनी शर्मा, दिव्या शर्मा, अभिनव आत्रेय, कृष्ण्अवतार वर्मा, डाॅ. वर्षा अग्रवाल, डाॅ. पूनम अग्रवाल, डाॅ. सविता वर्मा, डाॅ. मृदुला त्यागी, सरला शेखावत, नदीम साहिल, आदि उपस्थित रहे।


Monday, December 16, 2019

सात ग़ज़लेें


अल्लामा ताजवर नजीबाबादी



1.


बम चख़ है अपनी शाहे रईयत पनाह से


 



बम चख़ है अपनी शाहे रईयत पनाह से
इतनी सी बात पर कि 'उधर कल इधर है आज' ।
उनकी तरफ़ से दार-ओ-रसन, है इधर से बम
भारत में यह कशाकशे बाहम दिगर है आज ।
इस मुल्क में नहीं कोई रहरौ मगर हर एक
रहज़न बशाने राहबरी राहबर है आज ।
उनकी उधर ज़बींने-हकूमत पे है शिकन
अंजाम से निडर जिसे देखो इधर है आज ।


(२ मार्च १९३०-वीर भारत
(लाहौर से छपने वाला रोज़ाना अखबार)
(रईयत पनाह=जनता को शरण देने वाला, दार-ओ-रसन=फांसी का फंदा, कशाकशे- बाहम दिगर=आपसी खींचतान, रहरौ=रास्ते का साथी, रहज़न=लुटेरा, ज़बींने=माथा,शिकन=बल)


 


2.


ऐ आरज़ू-ए-शौक़ तुझे कुछ ख़बर है आज


 


ऐ आरज़ू-ए-शौक़ तुझे कुछ ख़बर है आज
हुस्न-ए-नज़र-नवाज़ हरीफ़-ए-नज़र है आज


हर राज़दाँ है हैरती-ए-जलवा-हा-ए-राज़
जो बा-ख़बर है आज वही बे-ख़बर है आज


क्या देखिए कि देख ही सकते नहीं उसे
अपनी निगाह-ए-शौक़ हिजाब-ए-नज़र है आज


दिल भी नहीं है महरम-ए-असरार-ए-इश्क़ दोस्त
ये राज़दाँ भी हल्क़ा-ए-बैरून-ए-दर है आज


कल तक थी दिल में हसरत-ए-अज़ादी-ए-क़फ़स
आज़ाद आज हैं तो ग़म-ए-बाल-ओ-पर है आज


 



3.


ग़म-ए-मोहब्बत में दिल के दाग़ों से रू-कश-ए-लाला-ज़ार हूँ मैं


 



ग़म-ए-मोहब्बत में दिल के दाग़ों से रू-कश-ए-लाला-ज़ार हूँ मैं
फ़ज़ा बहारीं है जिस के जल्वों से वो हरीफ़-ए-बहार हूँ मैं


खटक रहा हूँ हर इक की नज़रों में बच के चलती है मुझ से दुनिया
ज़हे गिराँ-बारी-ए-मोहब्बत कि दोश-हस्ती पे बार हूँ मैं


कहाँ है तू वादा-ए-वफ़ा कर के ओ मिरे भूल जाने वाले
मुझे बचा ले कि पाएमाल-ए-क़यामत-ए-इंतिज़ार हूँ मैं


तिरी मोहब्बत में मेरे चेहरे से है नुमायाँ जलाल तेरा
हूँ तेरे जल्वों में महव ऐसा कि तेरा आईना-दार हूँ मैं


वो हुस्न-ए-बे-इल्तिफ़ात ऐ 'ताजवर' हुआ इल्तिफ़ात-फ़रमा
तो ज़िंदगी अब सुना रही है कि उम्र-ए-बे-एतिबार हूँ मैं


 



4.


मोहब्बत में ज़बाँ को मैं नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ कर लूँ


 



मोहब्बत में ज़बाँ को मैं नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ कर लूँ
शिकस्ता दिल की आहों को हरीफ़-ए-ना-तवाँ कर लूँ


न मैं बदला न वो बदले न दिल की आरज़ू बदली
मैं क्यूँ कर ए'तिबार-ए-इंक़लाब-ए-ना-तवाँ कर लूँ


न कर महव-ए-तमाशा ऐ तहय्युर इतनी मोहलत दे
मैं उन से दास्तान-ए-दर्द-ए-दिल को तो बयाँ कर लूँ


सबब हर एक मुझ से पूछता है मेरे होने का
इलाही सारी दुनिया को मैं क्यूँ कर राज़-दाँ कर लूँ


 



5.


मोहब्बत में ज़ियाँ-कारी मुराद-ए-दिल न बन जाए


 



मोहब्बत में ज़ियाँ-कारी मुराद-ए-दिल न बन जाए
ये ला-हासिल ही उम्र-ए-इश्क़ का हासिल न बन जाए


मुझी पर पड़ रही है सारी महफ़िल में नज़र उन की
ये दिलदारी हिसाब-ए-दोस्ताँ दर-दिल न बन जाए


करूँगा उम्र भर तय राह-ए-बे-मंज़िल मोहब्बत की
अगर वो आस्ताँ इस राह की मंज़िल न बन जाए


तिरे अनवार से है नब्ज़-ए-हस्ती में तड़प पैदा
कहीं सारा निज़ाम-ए-काएनात इक दिल न बन जाए


कहीं रुस्वा न हो अब शान-ए-इस्तिग़ना मोहब्बत की
मिरी हालत तुम्हारे रहम के क़ाबिल न बन जाए


 



6.


हश्र में फिर वही नक़्शा नज़र आता है मुझे


 



हश्र में फिर वही नक़्शा नज़र आता है मुझे
आज भी वादा-ए-फ़र्दा नज़र आता है मुझे


ख़लिश-ए-इश्क़ मिटेगी मिरे दिल से जब तक
दिल ही मिट जाएगा ऐसा नज़र आता है मुझे


रौनक़-ए-चश्म-ए-तमाशा है मिरी बज़्म-ए-ख़याल
इस में वो अंजुमन-आरा नज़र आता है मुझे


उन का मिलना है नज़र-बंदी-ए-तदबीर ऐ दिल
साफ़ तक़दीर का धोका नज़र आता है मुझे


तुझ से मैं क्या कहूँ ऐ सोख़्ता-ए-जल्वा-ए-तूर
दिल के आईने में क्या क्या नज़र आता है मुझे


दिल के पर्दों में छुपाया है तिरे इश्क़ का राज़
ख़ल्वत-ए-दिल में भी पर्दा नज़र आता है मुझे


इबरत-आमोज़ है बर्बादी-ए-दिल का नक़्शा
रंग-ए-नैरंगी-ए-दुनिया नज़र आता है मुझे


 



7.


हुस्न-ए-शोख़-चश्म में नाम को वफ़ा नहीं


 



हुस्न-ए-शोख़-चश्म में नाम को वफ़ा नहीं
दर्द-आफ़रीं नज़र दर्द-आश्ना नहीं


नंग-ए-आशिक़ी है वो नंग-ए-ज़िंदगी है वो
जिस के दिल का आईना तेरा आईना नहीं


आह उस की बे-कसी तू न जिस के साथ हो
हाए उस की बंदगी जिस का तू ख़ुदा नहीं


हैफ़ वो अलम-नसीब जिस का दर्द तू न हो
उफ़ वो दर्द-ए-ज़िंदगी जिस की तू दवा नहीं


दोस्त या अज़ीज़ हैं ख़ुद-फ़रेबियों का नाम
आज आप के सिवा कोई आप का नहीं


अपने हुस्न को ज़रा तू मिरी नज़र से देख
दोस्त! शश-जहात में कुछ तिरे सिवा नहीं


बे-वफ़ा ख़ुदा से डर ताना-ए-वफ़ा न दे
'ताजवर' में और ऐब कुछ हों बे-वफ़ा नहीं


अल्लामा ताजवर नजीबाबादी


अल्लामा ताजवर नजीबाबादी (02 मई 1893-30 जनवरी 1951) का जन्म नैनीताल में हुआ। उनका पैतृक स्थान नजीबाबाद (उ.प्र.) था। वह शायर, अदीब, पत्रकार और शिक्षाविद थे। फ़ारसी व अरबी की आरम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद दारुलउलूम देवबंद से दर्से निज़ामिया की शिक्षा पूरी की। 1915 में पंजाब यूनिवर्सिटी से मौलवी फ़ाज़िल और मुंशी फ़ाज़िल के इम्तेहान पास किये। 1921 में दयालसिंह कालेज लाहौर में फ़ारसी और उर्दू के शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए। उन्होंने 'हुमायूँ' और 'मख्ज़न' पत्रिकाओं में काम किया और 'अदबी दुनिया' और 'शाहकार' पत्रिकाएँ जारी कीं। उन्होंने 'उर्दू मरकज़' के नाम से संकलन एवं सम्पादन की एक संस्था भी स्थापित की।


साभार- http://www.hindi-kavita.com/HindiAllamaTajvarNazibabadi.php


Friday, December 13, 2019

समकालीन चुनौतियों और विडंबनाओ से मुठभेड़/पुस्तक समीक्षा


 

वेदप्रकाश अमिताभ 

 

समाचार पत्रों के 'संपादकीय' समसामयिक और कालांकित होते हैं। कुछ समय बाद उनके पुनःपाठ की जरूरत या गुंजाइश नहीं होती। लेकिन ऋषभदेव शर्मा रचित 'समकाल से मुठभेड़' (2019) में संकलित संपादकीय टिप्पणियाँ कुछ अलग प्रकृति की हैं। इनमें उठाए गए मुद्दे आज भी जीवंत हैं। एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में फरवरी 2019 से लेकर अगस्त 2019 के बीच 'संपादकीय' के रूप में छपी उनकी दैनिक टिप्पणियों में से कुछ को इस कृति में संगृहीत और समायोजित किया गया है। आठ खंडों में व्यवस्थित इस कृति में एक ओर 'मानवाधिकार की पुकार',  'वैश्विक तनाव और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद' तथा 'अफगान समस्या' पर विचार किया गया है, तो दूसरी ओर 'स्त्री प्रश्न' और 'पार्क चलित्तर' को उजागर करने वाली टिप्पणियाँ भी हैं। 'हरित विमर्श' में पर्यावरण-चिंता केंद्रस्थ है और 'खिचड़ी विमर्श' में शेष टिप्पणियाँ समाहित हैं। स्पष्ट है कि 'समकाल से मुठभेड़' की रेंज बहुत व्यापक है, अधिकतर समकालीन चुनौतियाँ और विडंबनाएँ इसमें सहेजी गई हैं।

 

दैनिक समाचार पत्र की संपादकीय टिप्पणियाँ होते हुए भी इनमें सनसनीखेज पत्रकारिता का  मनोभाव नहीं है, प्रायः एक सकारात्मक विज़न आश्वस्त करता है। 'पल पल खराब होती हवाएँ' में लेखक की चिंता का समापन इस संभावना के साथ हुआ है कि 'उम्मीद की ही जा सकती है कि राजनीतिक दलों की आपसी मारकाट में हवाओं का शिकार नहीं किया जाएगा।'  'पानी पर हिंसक तकरार!' के समापन-चरण में उम्मीद के साथ यह आह्वान भी है कि 'हर घर तक शुद्ध पानी पहुँचाने के संकल्प को साकार करने का समय आ गया है।'  'आसान नहीं होगी स्थायी सदस्यता' में संयुक्त राष्ट्र को निष्प्रभावी होने से बचाने का संदेश है और 'वैराग्य एक अभिनेत्री का'  में कट्टरता को हर हाल में अस्वीकार्य बताया गया है। 'ये बचपन को बंदूक थमाने वाले'  में स्पष्ट सकारात्मक संकेत है कि संयुक्त राष्ट्र की बच्चों को युद्ध के दौरान सुरक्षा और संरक्षण की अपील के साथ लेखक सहमत है। 'जाएँ तो जाएँ कहाँ छोड़ कर जंगल?' में वह आदिवासी और वनवासी परिवारों के साथ है और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर प्रश्नचिह्न लगाता है।

 

इस कृति में जहाँ समय और परिवेश की प्रामाणिकता है, वहीं मानवीय मूल्यों की पक्षधरता भी ध्यान आकर्षित करती है। 'चमकी : असफलता बनाम आपदा' में गरीब से गरीब आदमी की हित-चिंता है, उसे जन-स्वास्थ्य सुविधाएँ देने पर जोर है। 'खाड़ी में युद्ध के बादल : काश, न बरसें'  में युद्ध जैसी हिंसक और मनुष्यता विरोधी विभीषिका का विरोध हुआ है। घातक हथियारों की अंधी दौड़ की भर्त्सना 'चौधराहट के वास्ते कुछ भी करेंगे?' में हुई है। 'स्त्री प्रश्न' में कुप्रथाओं को हटाकर स्त्री-मुक्ति का आह्वान दबा ढका नहीं है। 'और अब बुर्का सियासत' में साफ-साफ स्त्री की आजादी का समर्थन है। तीन तलाक की स्त्री विरोधी प्रथा को भी इसीलिए लेखक कायम रखने के पक्ष में नहीं है।  हर अवमूल्य और अनीति पर लेखक की सीधी नजर है। चाहे राष्ट्रपति ट्रंप का कथित झूठ हो या रेव पार्टी की नशाखोरी हो या बच्चियों का यौन शोषण, सबका प्रबल प्रतिवाद इन रचनाओं में है।

 

समय और परिवेश की प्रामाणिकता के साथ बेबाक निर्भीकता ने इन रचनाओं को प्रतिरोध की ऊर्जा और सौंदर्य की दीप्ति दी है।  'क्यों चुप है सारा मुस्लिम जगत?' में चीन के उइगर मुसलमानों पर अत्याचार को देखकर इस्लामी बिरादरी की चुप्पी पर प्रहार किया गया है। प्रेस की आजादी का समर्थन करते हुए भी प्रेस के अंतर्विरोधों को नहीं बख्शा गया है - 'प्रेस भी कोई दूध की धूली नहीं है, और इसीलिए तोप के मुहाने पर होते हुए भी जनता की चिंता का विषय नहीं होती'। 'और अब बुर्का सियासत' में जावेद अख्तर को आड़े हाथों लिया गया है - 'फिल्मी गीतकार न हुए अलाउद्दीन खिलजी हो गए'। बहुत सधी हुई भाषा में व्यंग्य बहुत सी रचनाओं को बेधक और सहज ग्राह्य बना गया है। पहली ही रचना में व्यंग्य की मार द्रष्टव्य है-  'क्योंकि विजिबिलिटी इतनी कम हो जाती है कि गंतव्य के स्थान पर 'अंतिम गंतव्य' पर पहुँचने की संभावना अधिक रहती है'। 'गलती विधायक से हो गई' शीर्षक रचना पूरी की पूरी व्यंग्यात्मक तेवर में है। व्यंग्य की उपस्थिति ने इन संपादकीय टिप्पणियों को पठनीय बनाया है और विचारणीय भी।


 

संदर्भ-

समकाल से मुठभेड़,  ऋषभदेव शर्मा,  प्रकाशक-  परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद-246763, प्रथम संस्करण - 2019.

 

डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, डी-131,  रमेश विहार अलीगढ़-202001. मोबाइल 9837 004113.

Tuesday, December 10, 2019

तफ़ाउत


अख़्तर-उल-ईमान


 


हम कितना रोए थे जब इक दिन सोचा था हम मर जाएँगे
और हम से हर नेमत की लज़्ज़त का एहसास जुदा हो जाएगा
छोटी छोटी चीज़ें जैसे शहद की मक्खी की भिन भिन
चिड़ियों की चूँ चूँ कव्वों का एक इक तिनका चुनना
नीम की सब से ऊँची शाख़ पे जा कर रख देना और घोंसला बुनना
सड़कें कूटने वाले इंजन की छुक छुक बच्चों का धूल उड़ाना
आधे नंगे मज़दूरों को प्याज़ से रोटी खाते देखे जाना
ये सब ला-यानी बेकार मशाग़िल बैठे बैठे एक दम छिन जाएँगे
हम कितना रोए थे जब पहली बार ये ख़तरा अंदर जागा था
इस गर्दिश करने वाली धरती से रिश्ता टूटेगा हम जामिद हो जाएँगे
लेकिन कब से लब साकित हैं दिल की हंगामा-आराई की
बरसों से आवाज़ नहीं आई और इस मर्ग-ए-मुसलसल पर
इन कम-माया आँखों से इक क़तरा आँसू भी तो नहीं टपका


आख़िरी मुलाक़ात


अख़्तर-उल-ईमान



आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम


आती नहीं कहीं से दिले-जिंदा की सदा
सूने पड़े हैं कूच'ओ-बाज़ार इश्क के
है शमए-अंजुमन का नया हुस्ने-जां-गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायाते-दश्तो-दार
वो फ़ितनासर गये जिन्हें कांटे अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएं हम
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम


सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़ते-देरीना याद आए
इस हुस्ने-इख्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
संभले हुए तो हैं पे ज़रा डगमगा तो लें
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम


वैशाली

  अर्चना राज़ तुम अर्चना ही हो न ? ये सवाल कोई मुझसे पूछ रहा था जब मै अपने ही शहर में कपडो की एक दूकान में कपडे ले रही थी , मै चौंक उठी थी   ...