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आज का श्रवण कुमार

नीरज त्यागी           पापा मैं ये बीस कम्बल पुल के नीचे सो रहे गरीब लोगो को बाट कर आता हूँ।इस बार बहुत सर्दी पड़ रही है।श्रवण अपने पिता से ये कहकर घर से निकल गया।             इस बार की सर्दी हर साल से वाकई कुछ ज्यादा ही थी। श्रवण उन कंबलों को लेकर पुल के नीचे सो रहे लोगो के पास पहुँचा।वहाँ सभी लोगो को उसने अपने हाथों से कम्बल उढा दिया।             हर साल की तरह इस बार भी एक आदर्श व्यक्ति की तरह कम्बल बाटकर वह अपने घर वापस आया और बिना अपने पिता की और ध्यान दिये अपने कमरे में घुस गया।            श्रवण के पिता 70 साल के एक बुजुर्ग व्यक्ति है और अपने शरीर के दर्द के कारण उन्हें चलने फिरने में बहुत दर्द होता है।बेटे के वापस आने के बाद पिता ने उसे अपने पास बुलाया।             किन्तु रोज की तरह श्रवण अपने पिता को बोला।आप बस बिस्तर पर पड़े पड़े कुछ ना कुछ काम बताते ही रहते है।बस परेशान कर रखा है और अपने कमरे में चला गया।             रोज की तरह अपने पैर के दर्द से परेशान श्रवण के पिता ने जैसे तैसे दूसरे कमरे से अपने लिए कम्बल लिया और रोज की तरह ही नम आँखों के साथ अपने दुखों को कम्बल में ढक कर सो ग

शोध कार्यों में साहित्यिक चोरी : कारण और निवारण

डॉ. मुकेश कुमार एसोसिएट प्रोफ़ेसर, वनस्पतिविज्ञान विभाग, साहू जैन कॉलेज, नजीबाबाद (बिजनौर) उ.प्र.   साहित्यिक चोरी का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। लगभग 2000 पूर्व, सन 80 में रोमन कवि मार्शल ने आरोप लगाया था कि उनकी कविताओं को अन्य व्यक्तियों ने अपने नाम से सुनाया था। रोमन कानून में इस प्रकार के कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिए ‘साहित्य चोर’ शब्द का उपयोग किया गया था। अंग्रेजी भाषा के ‘प्लेगेरिज्म’ शब्द का शाब्दिक अर्थ भी ‘साहित्यिक चोरी’ ही है। साहित्यिक अथवा वैज्ञानिक जानकारियों के आदान-प्रदान और प्रकाशन की परंपरा सदियों से चली आ रही है किंतु कई दशकों से प्रकाशन को अकादमिक प्रतिष्ठा, पदोन्नति एवं वित्त पोषण से जोड़ दिए जाने के कारण सम्बंधित व्यक्तिओं में अधिकाधिक प्रकाशन करने की होड़ मच गई है। वह कम समय में, कम परिश्रम करके अधिक से अधिक प्रकाशन करना चाहते हैं। कोई भी वैज्ञानिक जानकारी शोध पत्र के रूप में प्रकाशित की जाती है। वैज्ञानिकों अथवा साहित्यकारों द्वारा कठिन परिश्रम से किए गए अपने कार्य को विभिन्न शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित कराना शोध की एक स्वस्थ एवं महत्वपूर्ण परंपरा है। किं

बापू का सपना था

बापू का सपना था सात वर्ष की वय से- सात वर्ष तक, हर बालक का  शिक्षा पर हो अधिकार, केवल अक्षर ज्ञान नहीं, व्यवसायिक शिक्षा थी जिसका आधार। तन-मन-संकल्प शक्ति से श्रम की साधना, स्वावलम्बन की आराधना, स्वाभिमान से दीपित भाल, चौहदह वर्ष में अपना ले वह रोजगार। न रहे कोई हाथ बेगार-बेकार हर हाथ को मिले काम स्वाभिमान संग देश उन्नति में भाग, मिले संस्कार , सम्मान संग अपनों का साथ। रहे गाँव आबाद स्व श्रम के स्वामी सब मजदूर न कोई कहलाए।   डॉ साधना गुप्ता, झालवाड़

भाषा और संस्कृति पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन

"आज का समय पूरी दुनिया में मानवीय मूल्यों के संकट, आसुरी शक्तियों के आतंक और आदर्शों के अभाव का समय है। ऐसे में पूरी दुनिया भारत की ओर उम्मीद की नज़रों से देख रही है। भारत के पास राम और कृष्ण जैसे आदर्श चरित्र उपलब्ध हैं, जो विश्व कल्याण की प्रेरणा दे सकते हैं। इनके माध्यम से दुनिया भर में मानवमूलक संस्कृति की पुनः स्थापना की जा सकती है। तरह तरह के खंड खंड विमर्शों के स्थान पर परिवार विमर्श आज की आवश्यकता है और इसी के साथ रामत्व और कृष्णतव की प्रतिष्ठा जुड़ी है।" ये विचार प्रख्यात साहित्यकार, लोक संस्कृति विशेषज्ञ और गोवा की पूर्व राज्यपाल मृदुला सिन्हा ने नई दिल्ली महानगर निगम  के विशाल कन्वेंशन हॉल में आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रकट किए। सम्मेलन का आयोजन साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था (मुंबई), इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय (अमरकंटक) तथा विश्व हिंदी परिषद (दिल्ली) ने संयुक्त रूप से किया। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता अमरकंटक से पधारे कुलपति डॉ. श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी ने की और बीज वक्तव्य प्रो. दिलीप सिंह ने दिया। डॉ. ऋषभदेव शर्म

स्वतन्त्र होने की लड़ाई है-स्त्री विमर्श

प्रतिमा रानी प्रवक्ता-हिन्दी कृष्णा काॅलेज, बिजनौर 'नारीवाद’ शब्द की सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन कार्य हैं यह एक कठिन प्रश्न है राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के सोचने के तरीकों तथा उन विचारों की अभिव्यक्ति का है। स्त्री-विमर्श रूढ़ हो चुकी परम्पराओं, मान्यताओं के प्रति असंतोष तथा उससे मुक्ति पाने का स्वर है। स्त्री-विमर्श के द्वारा पितृक प्रतिमानों व सोचने की दृष्टि पर अनेक प्रश्नों द्वारा कुठाराघात करते हुए विश्व चिंतन में नई बहस को जन्म देता है।  प्राचीन भारतीय समाज में स्त्री को देवी स्वरूप माना गया है। वैदिक काल में कहा भी गया है-  ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, तत्र रम्यते देवता’’ (वैदिक काल)  परन्तु आम बोलचाल की भाषा में नारी को अबला ही कहा गया है। महान् साहित्यकारों ने भी नारी के अबला रूप को साहित्य में कुछ इस तरह वर्णित किया है।   ‘‘हाय अबला तुम्हारी यही कहानी।’’   आँचल में है दूध आँखों में पानी।। (मैथिलीशरण गुप्त)  महादेवी वर्मा ने नारी को कुछ इस प्रकार दर्शाया है।    ‘‘मैं नीर भरी दुःख की बदरी।’’  ‘‘नारी-विमर्श को लेकर सदैव अलग-अलग दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है। इंग्लैंड

वाह रे किसान

अमन कुमार भूकंप के आने से गज सिंह को बड़ा नुकसान हुआ था। पिछले दिन ही तो उसने अपने मकान का लिंटर डलवाया था। लिंटर अभी सैट भी नहीं हुआ था कि करीब पाँच घंटे बाद ही भूकंप आ गया था। भूकंप की तीव्रता इतनी तेज थी कि लिंटर में जगह-जगह दरार आ गई थी। सुबह होते-होते गाँव के लोग इकट्ठा होने लगे थे। सबकी अपनी-अपनी राय थी। मजमा लग चुका था। गज सिंह परेशान हो उठे। उन्होंने सूरज निकलने से पहले ही राज मिस्त्री को बुलवा लिया।  -‘मिस्त्री साहब, जो भी हो नुकसान होने से बचा लो, मेरे पास अब इतना पैसा नहीं है कि मैं पूरा लिंटर डलवा सकूँ।’ गज सिंह ने मिस्त्री को अपनी स्थिति बता दी।  -‘वो तो ठीक है मालिक, मगर अब तक तो सिमेंट सैट हो चुका है, सब तुड़वाना ही पड़ेगा, दरारों को भर देने से भी कोई लाभ नहीं होने वाला है, बारिश में टपकेगा।’ मिस्त्री ने असमर्थता व्यक्त की।  -‘अब क्या होगा?’  -‘होना क्या है? दो कट्टे सीमेंट मँगा लो, प्रयास करता हूँ, दो-चार साल तो काम चल ही जाएगा।’ मिस्त्री ने हिम्मत बधाई तो गज सिंह की जान में जान आई।  -‘ठीक कर दो भैया, बाकी दो-चार साल बाद देखा जाएगा।’ गज सिंह ने कहते हुए एक बार फिर ढुल्ले

अंतिम दशक की हिंदी कविता और स्त्री

स्वाति किसी भी काल का साहित्‍य अपने समाज और परिवेश से कटकर नहीं रह सकता। साहित्य की प्रत्‍येक काल विशेष की रचनाओं में हम उस काल विशेष की सामाजिक स्थिति, परिवेश एवं उस परिवेश में रहने वाले लोगों की इच्‍छाओं एवं आकांक्षाओं को अभिव्‍यक्ति होते पाते हैं। कविता मनुष्य की अनुभूतियों को सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान करने का माध्यम है। कविता के माध्यम से कवि समाज में निहित सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं व विडंबनाओं पर प्रहार करने में सक्षम होता है। बात अगर स्त्री की कि जाए तो आदिकाल से वर्तमान युग तक की कविताओं में स्त्री अपनी उपस्थिती दर्ज कराती आयी है। फर्क सिर्फ यह है की पहले स्त्रियाँ पुरुषों की कविताओं मे दिखाई देती थी,अब खुद अपनी कविताएँ रचती हैं इतना ही नहीं अपने आत्मसम्मान एवं अस्मिता को पाने में निरंतर प्रयासरत हैं। प्रत्येक काल में स्त्रियों को देखने की दृष्टियाँ अलग-अलग रही हैं जैसे-भक्तिकाल में स्त्री को माया, ठगिनी के रूप में प्रस्तुत किया जाता था या मोक्ष के मार्ग में बाधा के रूप में वहीं आदिकाल में स्त्रियों को पाने के लिए किस प्रकार युद्ध होते थे उनका वर्णन हमें देख