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वाह रे किसान


अमन कुमार


भूकंप के आने से गज सिंह को बड़ा नुकसान हुआ था। पिछले दिन ही तो उसने अपने मकान का लिंटर डलवाया था। लिंटर अभी सैट भी नहीं हुआ था कि करीब पाँच घंटे बाद ही भूकंप आ गया था। भूकंप की तीव्रता इतनी तेज थी कि लिंटर में जगह-जगह दरार आ गई थी। सुबह होते-होते गाँव के लोग इकट्ठा होने लगे थे। सबकी अपनी-अपनी राय थी। मजमा लग चुका था। गज सिंह परेशान हो उठे। उन्होंने सूरज निकलने से पहले ही राज मिस्त्री को बुलवा लिया।
 -‘मिस्त्री साहब, जो भी हो नुकसान होने से बचा लो, मेरे पास अब इतना पैसा नहीं है कि मैं पूरा लिंटर डलवा सकूँ।’ गज सिंह ने मिस्त्री को अपनी स्थिति बता दी।
 -‘वो तो ठीक है मालिक, मगर अब तक तो सिमेंट सैट हो चुका है, सब तुड़वाना ही पड़ेगा, दरारों को भर देने से भी कोई लाभ नहीं होने वाला है, बारिश में टपकेगा।’ मिस्त्री ने असमर्थता व्यक्त की।
 -‘अब क्या होगा?’
 -‘होना क्या है? दो कट्टे सीमेंट मँगा लो, प्रयास करता हूँ, दो-चार साल तो काम चल ही जाएगा।’ मिस्त्री ने हिम्मत बधाई तो गज सिंह की जान में जान आई।
 -‘ठीक कर दो भैया, बाकी दो-चार साल बाद देखा जाएगा।’ गज सिंह ने कहते हुए एक बार फिर ढुल्ले और दीवार पर टंगे लिंटर की ओर देखा।
 -‘शुक्र समझो कि दीवारें नहीं फटी हैं, नहीं तो परेशानी और ज्यादा होती, अब तो हम सीमेंट का गाढ़ा घोल बनाकर दरारों में भर देंगे। ऊपर से ग्रोडिंग करने के बाद चांस है कि पानी नहीं टपकेगा।’ 
 -‘मतलब ग्रोडिंग साथ के साथ करनी पड़ेगी?’ 
 -‘हाँ, उससे फायदा होगा, ग्रोडिंग का सीमेंट लिंटर के सीमेंट से मिल जाएगा तो मजबूती आ जाएगी।’
 -‘पर पैसे तो बचे ही नहीं।’
 -‘घबराओ नहीं, रेत-बजरी अभी काफी पड़ी ही है, सीमेंट मैं उधार दिला दूँगा, रही बात मेरी मजदूरी की तो एक साल बाद दे देना।’ राज मिस्त्री ने पुनः हिम्मत बँधाई।
 -‘ठीक है भैया, बहुत एहसान होगा। पता नहीं कैसे तो यह मकान बना है, ये भी गिर गया तो कहीं के नहीं रहेंगे।’ गज सिंह ने राज मिस्त्री का आभार व्यक्त करते हुए कहा।
 गज सिंह के पास खेती की जमीन अधिक नहीं थी। कुल जमा पाँच बीघे जमीन में आज की महँगाई को देखते हुए होता ही क्या है? घर का खर्च और जमीन की जुताई-बुवाई का खर्च किसी तरह से निकल जाता है। साल भर में कोई नोत-खोत हो गई तो भारी पड़ता है। वह कंजूस नहीं है, देखभाल कर खर्चा चलाता है लेकिन लोग उसे कंजूस मानते हैं और उसका मजाक भी उड़ाते हैं। उसे याद आ रहा था एक बार जब वह बाजार गया था तब उसके पड़ोसी नेतराम ने उसकी बड़ी मजाक बनाई थी।
 -‘थोड़ी सी चाट खा लेने से कुछ नहीं बिगड़ने वाला है गजे! इतनी कंजूसी ठीक नहीं है?’
 -‘बात कंजूसी की नहीं है भैया! बालकों के लिए कपड़ा खरीदना है, पैसे कम पड़ गए तो किससे लूँगा?’ उसने समझाया।
 -‘चल जितने कम पड़ेंगे मैं दे दूँगा।’ नेतराम ने उकसाया। मगर गज सिंह भी उकसावे में आने वाला नहीं था। वह जानता था कि जो आदमी मेरे पैसे से चांट खाना चाहता है वह मेरा हमदर्द कैसे हो सकता है? जरूर यह उसकी चालाकी है। उसने सोचते हुए कहा-‘अच्छा भैया ऐसा करते हैं, पहले कपड़ा खरीद लेते हैं जो पैसे बचेंगे उनसे चांट भी खाएंगे और पकोड़ी भी।’ 
 गज सिंह का प्रस्ताव नेतराम की समझ में आ गया था। उसने बाईक आगे बढ़ा दी। पीछे बैठे गज सिंह ने भी राहत की सांस ली। गज सिंह यह बात भी अच्छी तरह जानता था कि नेतराम उससे बाईक का किराया चांट के रूप में वसूलना चाहता है।
 कपड़े खरीद लेने के बाद गज सिंह पर पचास रुपए बचे थे। ये सौ रुपए भी नहीं बचते वो तो नेतराम ने बड़ी ही चालाकी दिखाई थी और अंगोछा बाद में खरीदने की सलाह देने में कामयाब हो गया था। गज सिंह इस चालाकी को जान गया था। तभी तो गज सिंह ने पचास रुपए नेतराम को थमाते हुए कहा-‘भैया इनमें से तुम्हारी बाईक का किराया भी हुआ और चांट-पकोड़ी जो भी खाना चाहो।’
 -‘बड़े चालाक हो।’ पचास रुपए हाथ में लेते हुए नेतराम ने कहा।
 -‘चालाक क्या, भाई बाईक में भी तो तेल खर्च होता है, और फिर कभी भी जरूरत पड़ सकती है। मैं अकेला आता तो भी दस-बीस रुपए किराए में खर्च हो ही जाते। तीस रुपए से ऊपर की चांट भी नहीं खाई जाएगी। बाकी पचास रुपए बालक की फीस जमा करने के लिए रोके हैं।’ गज सिंह ने हिसाब बता दिया था।    
 -‘तीस रुपए में तो एक ही के लिए चांट मिलेगी।’ नेतराम ने मुंह बनाते हुए कहा।
 -‘मैं नहीं खाऊँगा।’
 -‘क्यों?’
 -‘बस मन नहीं है।’ गज सिंह ने कहा तो नेतराम की आंखों में चमक आ गई। उसने एक इेले के पास बाईक रोकी और एक दोना चांट लेकर स्वाद के साथ खाने लगा। जबकि गज सिंह खड़ा हुआ अपने आपको लुटता हुआ देख रहा था।
 वह सोच रहा था। क्या चालाकी है? तेल के पैसे लेकर जेब में डाल लिए और चांट भी खा ली। हद हो गई बेशर्मी की। मेरे पैसे से चांट खा रहा है और मुझे ही कंजूस बता रहा है। कंजूस कहीं का।
 गज सिंह अपनी यादों से बाहर आया और पास ही खड़े नेतराम से बोला- ‘दो हजार रुपए दे दो भैया। गन्ने का पैसा आते ही वापिस कर दूंगा।’
 -‘दे तो देता गजे, मगर अभी कल ही खर्च हो गए हैं, सौ-पचास की बात होती तो दे भी देता।’ नेतराम ने पल्ला झाड़ते हुए कहा।
 -‘अभी तो बैंक से मैसेज आया है, पेमेंट का।’ गज सिंह बातों बातों में मैसेज देख चुका था। तभी तो उसे आजमाने की बात सूझ गई थी। 
 गज सिंह जानता था कि जब तक गाँव के लोग यहाँ खड़े रहेंगे तब तक अपनी अपनी बहुमूल्य राय देते रहेंगे और उसके दिमाग में तनाव होता रहेगा। सो उसने नेतराम से पैसे इसलिए नहीं माँगे थे कि वह दे ही देगा। वह जानता था कि नेतराम किसी को धेला दिवाल नहीं है मगर दूसरे जो धन्नासेठ उसके पास खड़े हैं वह भी यहां से खिसक लेंगे।
 हुआ भी यही। एक एक कर सबको काम याद आता चला गया और सभी खिसकते गए। उनके जाने के बाद गज सिंह ने चैन की सांस ली। और सीमेंट के पैसे लेकर मिस्त्री के साथ सीमेंट स्टोर की तरफ चल दिया।
 जब तक वह सीमेंट लेकर आया तब तक वहाँ सन्नाटा छा चुका था। यही तो वह चाहता भी था। क्योंकि लिंटर पर काम करते समय सभी वहाँ चढ़-चढ़ कर देखते जिससे ढुल्ले पर भी वजन बढ़ता और राजमिस्त्री की परेशानी भी बढ़ जाती। मौसम वैसे भी ख़राब होने के आसार नजर आ रहे थे। बस भगवान किसी तरह दस घंटे सीमेंट सैट होने के दे दे तो उसका लिंटर सुधर सकता है।
 दिन भर राजमिस्त्री काम करता रहा और गज सिंह भगवान से प्रार्थना। शाम तक काम समाप्त हुआ तो मौसम को देखते हुए राजमिस्त्री ने लिंटर पर खाली कट्टे और पन्नी डाल कर ढक दिया था ताकि बारिश की बूंदे सीधे सीमेंट से न टकरा सकें।
 दिन भर के थके हारे गज सिंह ने रात को पेट भरकर रोटी खाई और आराम की नींद सो गया। अब उसे उम्मीद थी कि उसका लिंटर मजबूत हो जाएगा। 
 किंतु होनी को कौन टाल सका है? जब बुरे दिन आते हैं तो चारों तरफ से आते हैं। भोर में गज सिंह की आँख खुली तो सांय-सांय हवा चल रही थी। उसने घड़ी में समय देखा तो अभी चार बजे थे। वह उठा और अपने नए बन रहे मकान की ओर चल पड़ा। देखकर उसे तसल्ली हुई कि चलो पन्नी और कट्टे हवा से उड़ नहीं रहे हैं। मिस्त्री भी तो समझदार था उसने पन्नी और कट्टों को ईंट से दबा दिया था। वह वापिस आकर अपनी चारपाई पर लेट जाना चाहता था कि बारिश शुरू हो गई। हवा इतनी तेज थी कि वह आश्वस्त था बारिश को उड़ा कर ले जाएगी। मगर ऐसा नहीं हुआ।
 कुछ ही देर के बाद हवा रुक गई और ओले के साथ बारिश पड़ने लगी। ओले देखकर गज सिंह की बेचैनी बढ़ गई। वह भगवान से ओलावृष्टि को रोकने के लिए प्रार्थना करने लगा। अब तक राजमिस्त्री किसी तरह उसके घर पहुँच चुका था। दरवाज़ा खुला देखा तो बिना आवाज़ लगाए ही घर में प्रवेश कर गया। उसे देखकर गज सिंह चैक उठा।
 -‘मिस्त्री साहब आप?’
 -‘हाँ, मैंने सोचा कि हवा और बारिश को देखकर आप घबरा न जाएं, बस इसिलिए चला आया।’
 -‘किंतु ये तो ओले पड़ रहे हैं? सब चैपट हो गया।’ गज सिंह घबराते हुए बोला।
 -‘ऐसी बात नहीं है। सब ठीक होगा, अब तक तो सीमेंट सैट भी हो चुका होगा, आप चिंता न करें कुछ नहीं बिगड़ेगा।’ राज मिस्त्री ने समझाते हुए कहा।
 -‘बात सीमेंट की नहीं है।’
 -‘फिर क्या बात है?’ राज मिस्त्री ने चैंकते हुए पूछा।
 -‘अभी तो गेहूँ निकलने ही शुरू हुए हैं, ओलो ने सब सत्यानाश कर दिया। सब फसल चैपट हो गई होगी।’ गज सिंह बेचैनी के साथ बता रहे थे।
 -‘सब भगवान मालिक है, घबराओ नहीं जो होगा वह भी देखा जाएगा।’ राजमिस्त्री ने समझाते हुए कहा।
 -‘बात यह नहीं है कि नुकसान हो गया, हो जाए कोई बात नहीं मगर अब अगर दोबारा गेहूँ बोने पड़े तो बड़ी परेशानी खड़ी हो जाएगी। दोबारा जुताई बुवाई और बीज की लागत जान ही निकाल देगी। लगता है मकान बनाने का फैसला ही गलत लिया गया है, शायद भगवान को यह मंजूर ही नहीं था, नहीं तो सो व्याधाएं खड़ी हनीं होतीं।’ 
 -‘लेकिन आपने तो फसल का बीमा करा लिया था, फिर कैसी घबराहट?’
 -‘बीमा! जानते नहीं हो, पिछली बार गन्ना गिर गया था जानते हो पांच बीघे गन्ने का बीमा लेते-लेते चप्पल चटक गई और जब मिला तो बस चप्पल के पैसे में ही सब्र करना पड़ा था।’ गज सिंह ने खीझते हुए बताया। 
 -‘सरकार मुआवजा भी तो देती है?’
 -‘मुआवजा! बस मुआवजे की मत पूछो भैया, रहने दो बताते हुए भी शरम आती है।’ गज सिंह ने लंबी सांस लेते हुए कहा।
 -‘सरकार अब तो बहुत ध्यान रख रही है किसानों का।’
 -‘खाक ध्यान रख रही है, जब मुआवजा मिला था तो तीन बार जिले में बुलाया गया, पांच सौ तो किराए में ही लग गए और जब चैक हाथ में आया तो ......क्या मजाक बनी.....कुल जमा उन्नीस रुपए पचास पैसे का मुआवजा था। न हंसते हुए बन रहा था न रोते हुए।’ गज सिंह पहले तो हंसे फिर आक्रोष के साथ बोले-‘इससे तो अच्छा होता कि यहां भी सुनामी आ जाती, सबकुछ बर्बाद हो जाता।’
 -‘तो कोई जरूरी है गन्ना और गेहूँ बोना, कोई और फसल भी तो पैदा की जा सकती है।’ राजमिस्त्री सुझाव देता है।
 -‘पार साल बोए तो थे उड़द। कितनी देखभाल करी थी मगर हुआ क्या? सब कीट-पतंगे खा गए। एक आफत है, दवाई डालो तो जहर है न डालो तो कहर है। दो बीघे खेत में निकले तो थे दस किलो उड़द, क्या खा लें और क्या बांट दे? रात-रात भर जानवरों से बचाने की मजूरी भी नहीं मिली, खेत और बुवाई की तो मिलती क्या?’ गज सिंह की बेचैनी स्पष्ट नजर आ रही थी।
 -‘ऐसे तो मालिक! खेती छूट ही जाएगी?’ राज मिस्त्री ने चिंता व्यक्त की।
 -‘और नहीं तो क्या? देख नहीं रहे शहर के पास वाले खेत जिनमें सब्जी पैदा होती थी आज महल खड़े हैं, ऐसा लगता है कि जैसे खेतों में कंकरीट की फसल उग आई हो रंगबिरंगी। सब खेत बिक गए हैं, खेती कितनी तेजी से घट रही है कोई सोच भी नहीं सकता है। ऊपर से सरकार फसल की कीमत दिलाने को तैयार नहीं है।’ गज सिंह ने कहा तो राजमिस्त्री ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए जवाब दिया-‘सही कह रहे हो मालिक! कितने मकानों के बनाने में मैंने भी काम किया है, सब्जी के खेत तो खत्म ही हो गए हैं। अब तो लगता है ईंट-पत्थर खाकर ही गुजारा करना पड़ेगा।’
 -‘हाँ, मिस्त्री साहब! अगर सरकार की ऐसी ही नीति-रीति रही तो वो दिन दूर नहीं है, जब इस धरती से किसान गायब ही हो जाएगा।’  
 -‘लेकिन किसान भी तो हद करते हैं, जब फसल का समय होता है तो किसान आंदोलन करता है, कितनी परेशानी होती है दूसरे लोगों को, गन्ने के पीछे पड़ना भी तो ठीक नहीं है।’ राज मिस्त्री ने भी उल्हाना सा दिया।
 -‘आज दूसरे लोगों को लग रहा है किसान फसल के पैसे मांगने के नाम पर प्रदर्शन कर रहा है। जैसे खाली हो गए हैं सब, ऐसी बात नहीं है मिस्त्री साहब! अपनी ही फसल के पैसे किसी भीख की तरह मांगने पड़ रहे हैं, अभी तो किसानों में आक्रोष है, अपनी फसल के पैसे जबरिया वसूलने पर उतारू हैं मगर एक दिन ऐसा भी आएगा कि न तो किसान होगा, न फसल होगी और न ही फसल का कोई पैसा मांगा जाएगा।’
 -‘ऐसा कैसे हो सकता है?’
 -‘होगा, जरूर होगा। आज किसान भी अपनी औलाद को पढ़ाकर खेती के बजाए इस चकचक से बचने के लिए नौकरी पर भेज रहा है। जब गाँव में किसान ही नहीं बचेगा तो किसानी क्या खाक बचेगी?’
 -‘फिर दुनिया खाएगी क्या?’
 -‘खाएगी क्या? ...अरे पूरी दुनिया सप्लीमेंट पर जीवित रहेगी और योग-आसन करेगी। शवासन लगाएगी एक दिन देख लेना। आज लोग किसानों को कोसते हैं कल यही लोग अपने आपको कोसेंगे।’ 
 अब तक बारिश रुक चुकी थी। राजमिस्त्री ने छाता उठाया और अपने घर की ओर चल दिया जबकि गज सिंह एक हाथ में लाठी थामे अपने खेत की ओर बढ़ रहे थे। उनके मुँह से अनायास ही निकला था-‘वाह रे किसान!’


 


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