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ग़ज़ल परंपरा में नया प्रयोग है ‘तिरोहे’ 


सत्येंद्र गुप्ता


सारांश
अरबी से फ़ारसी साहित्य में आकर यह विधा शिल्प के स्तर पर तो अपरिवर्तित रही किंतु कथ्य की दृष्टि से उनसे आगे निकल गई। उनमें बात तो दैहिक या भौतिक प्रेम की ही की गई किंतु उसके अर्थ विस्तार द्वारा दैहिक प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम में बदल दिया गया। अरबी का इश्के मजाज़ी फ़ारसी में इश्के हक़ीक़ी हो गया। फ़ारसी ग़ज़ल में प्रेमी को सादिक़ ;साधकद्ध और प्रेमिका को माबूद ;ब्रह्मद्ध का दर्जा मिल गया। ग़ज़ल को यह रूप देने में सूफ़ी साधकों की निर्णायक भूमिका रही। वली दकनी, सिराज दाउद आदि इसी प्रथा के शायर थे जिन्होंने एक तरह से अमीर खुसरो की परंपरा को आगे बढ़ाया। जब ग़ज़ल ने हिंदी में पदार्पण किया तो जैसे चमत्कार हो उठा। हिंदी में ग़ज़ल को आशिक़ और माशूक़ के अलावा भी काफ़ी विषय मिल गए। हिंदी के अनेक कवियों ने शिल्प से छेड़छाड़ किए बिना ग़ज़ल को अपनाया। ऐसे कवियों में अमीर खुसरो, कबीर, गोविंद चाननपुरी, निराला, शमशेर, बलबीर सिंह रंग, भवानी शंकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, त्रिलोचन, दुश्यंत कुमार, गोपालदास नीरज, डाॅ. श्यामानंद सरस्वती, कुंवर बेचैन आदि प्रमुख हैं। ऐसे ही एक और ग़ज़लकार हैं सत्येंद्र गुप्ता। सत्येंद्र गुप्ता जी ने तिरोहे लिखकर क़तआ को नई दिशा देने का प्रयास किया है।


तिरोहे को जानने से पहले ग़ज़ल और उसके अशआर को जानना अत्यंत आवश्यक है। ग़ज़ल अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य विधा है जो बाद में फ़ारसी, उर्दू और हिंदी साहित्य में भी लोकप्रिय हुई। अरबी में ग़ज़ल का अर्थ औरतों से या औरतों के बारे में बातें करना है। यह भी कहा जा सकता है कि ग़ज़ल आशिक़ और माशूक़ की बात करती है। ग़ज़ल का मतलब हिरन की आँख भी होता है। ग़ज़ल एक ही बहर और वज़न के अनुसार लिखे गए कुछ शेरों का समूह है। इसके पहले शेर अर्थात मुखड़े को मतला कहते हैं। जबकि ग़ज़ल के अंतिम शेर को मक़ता कहते हैं। जिसमें शायर अपने नाम का प्रयोग करता है। ग़ज़ल में शेरों की संख्या विषम तीन, पाँच, सात होती है। ग़ज़ल अपने प्रारंभिक दौर में बहुत लंबी होती थी। बाद में 25 शेर तक होने लगी परंतु अब 5 से 7 शेर तक रह गई है। ये शेर एक दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। सभी का अर्थ भी प्रायः अलग ही होता है और जब एक से अधिक शेर मिलकर अर्थ देते हैं तो ऐसे शेर क़ता या बंद कहलाते हैं। ग़ज़ल के शेर में तुकांत शब्दों को क़ाफ़िया कहा जाता है और शेरों में दोहराए जाने वाले शब्दों को रदीफ़ कहा जाता है। शेर की एक पंक्ति को मिसरा कहा जाता है। मतले के दोनों मिसरों में क़ाफ़िया आता है और बाद के शेरों में दूसरी पंक्ति में क़ाफ़िया आता है। रदीफ हमेशा क़ाफ़िये के बाद आता है। रदीफ और क़ाफ़िया एक ही शब्द के भाग भी हो सकते हैं और बिना रदीफ़ का शेर भी हो सकता है जो क़ाफ़िये पर समाप्त होता हो। ग़ज़ल के सबसे अच्छे शेर को शाह-ए-बैत कहा जाता है। ग़ज़ल के संग्रह को दीवान कहते हैं। उर्दू का पहला दीवान शायर क़ुली कुतुबशाह का माना गया है।
तुक के आधार पर ग़ज़ल दो प्रकार की होती है-
मुअद्दस ग़ज़ल- जिस ग़ज़ल के अशआरों में रदीफ़ और क़ाफ़िया दोनों का ध्यान रखा जाता है।
मुकफ़्फ़ा ग़ज़ल- जिस ग़ज़ल के अशआरों में केवल क़ाफ़िया का ध्यान रखा जाता है।
भाव के आधार पर भी ग़ज़ल दो प्रकार की होती हैं-
मुसल्सल ग़ज़ल- जिसमें शेर का भावार्थ एक दूसरे से शुरु सेआख़ीर तक जुड़ा रहता है।
गैर मुसल्सल ग़ज़ल- जिसमें हरेक शेर का भाव स्वतंत्र होता है।
यह ग़ज़ल का सामान्य सा शिल्प होता है। अरबी से फ़ारसी साहित्य में आकर यह विधा शिल्प के स्तर पर तो अपरिवर्तित रही किंतु कथ्य की दृष्टि से उनसे आगे निकल गई। उनमें बात तो दैहिक या भौतिक प्रेम की ही की गई किंतु उसके अर्थ विस्तार द्वारा दैहिक प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम में बदल दिया गया। अरबी का इश्के मजाज़ी फ़ारसी में इश्के हक़ीक़ी हो गया। फ़ारसी ग़ज़ल में प्रेमी को सादिक़ ;साधकद्ध और प्रेमिका को माबूद ;ब्रह्मद्ध का दर्जा मिल गया। ग़ज़ल को यह रूप देने में सूफ़ी साधकों की निर्णायक भूमिका रही। सूफ़ी साधना विरह प्रधान साधना है। इसलिए फ़ारसी ग़ज़लों में भी संयोग के बजाय वियोग पक्ष को ही प्रधानता मिली। फ़ारसी से उर्दू में आने पर भी ग़ज़ल का शिल्प ज्यों का त्यों बना रहा मगर कथ्य भारतीय हो गया। ऐसा माना जाता है कि हिन्दोस्तानी ग़ज़लों का जन्म बहमनी सल्तनत के समय दक्कन में हुआ जहाँ गीतों से प्रभावित ग़ज़लें लिखी गईं। भाषा का नाम रेख़्ता ;गिरा-पड़ाद्ध पड़ा। वली दकनी, सिराज दाउद आदि इसी प्रथा के शायर थे जिन्होंने एक तरह से अमीर खुसरो की परंपरा को आगे बढ़ाया। दक्किनी उर्दू के ग़ज़लकारों ने अरबी फ़ारसी के बदले भारतीय प्रतीकों, काव्य रूढ़ियों, एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लेकर रचना की।
यह वह समय था जब उत्तर भारत में राजकाज की भाषा फ़ारसी थी इसलिए ग़ज़ल जब उत्तर भारत में आई तो पुनः उस पर फ़ारसी का प्रभाव बढ़ने लगा। ग़ालिब जैसे उर्दू के श्रेष्ठ ग़ज़लकार भी फ़ारसी ग़ज़लों को ही महत्वपूर्ण मानते रहे और उर्दू ग़ज़ल को फ़ारसी के अनुरूप बनाने की कोशिश करते रहे। बाद में दाउद के दौर में फ़ारसी का प्रभाव कम हुआ। जब ग़ज़ल ने हिंदी में पदार्पण किया तो जैसे चमत्कार हो उठा। हिंदी में ग़ज़ल को आशिक़ और माशूक़ के अलावा भी काफ़ी विषय मिल गए। हिंदी के अनेक कवियों ने शिल्प से छेड़छाड़ किए बिना ग़ज़ल को अपनाया। ऐसे कवियों में अमीर खुसरो, कबीर, गोविंद चाननपुरी, निराला, शमशेर, बलबीर सिंह रंग, भवानी शंकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, त्रिलोचन, दुश्यंत कुमार, गोपालदास नीरज, डाॅ. श्यामानंद सरस्वती, कुंवर बेचैन आदि प्रमुख हैं। ऐसे ही एक और ग़ज़लकार हैं सत्येंद्र गुप्ता। सत्येंद्र गुप्ता जी ने तिरोहे लिखकर क़तआ को नई दिशा देने का प्रयास किया है। सत्येंद्र गुप्ता जी नजीबाबाद निवासी हैं जिन्होंने क़तआ अथवा मुक्तक में एक पंक्ति कम करके तीन पंक्तियों से अपनी बात कहने का प्रयास किया है। 
जैसा कि ग़ज़ल, क़तआ अथवा मुक्तक की चर्चा हुई है उसी तरह से 'तिरोहे' भी ग़ज़ल शिल्प में एक महत्वपूर्ण विधा बन गई है। तीन पद की रचना को कवि सत्येंद्र गुप्ता ने तिरोहे नाम दिया है। जिसके बारे में वह लिखते हैं-''मैंने इनमें शेर की तरह दो लाइनों के साथ, एक नई लाइन और जोड़ने की कोशिश की है, जिससे पहले दोनों लाइनों का वुजूद और बढ़ गया। उनकी क़ैफ़ियत में चार चाँद लग गए। तीसरी पंक्ति प्रथम दो पंक्तियों को और बुलंदियों तक ले जाती है।''1 
तिरोहे से पहले गुलजार और डाॅ. श्यामानंद सरस्वती ने भी तीनपदीय कविता 'त्रिवेणी' की रचना की है। तिरोहे भी तीन पदीय शायरी है। शेर में दो पद अथवा दो मिसरे होते हैं। पहला मिसरा-ए-ऊला और दूसरा मिसरा ए सानी जबकि ग़ज़ल का मतला अर्थात मुखड़े में दोनों पद मिसरा-ए-सानी ही होते हैं। तिरोहे में पहले मिसरा-ए-ऊला को मिसरा-ए-ख़ास कहा गया है। कवि ने अपनी बात में स्वीकारा है कि-''तिरोहे एक शेर की तरह अपने आप में स्वतंत्र हैं। दूसरा और तीसरा मिसरा रदीफ़ क़ाफ़िए में है।''2 
उनके जन्म एवं उनकी शिक्षा-दीक्षा के बारे में अशोक अग्रवाल बताते हैं, ''हिंदी साहित्य ;कविता, शायरी,द्ध में गहन रुचि रखने वाले डाॅ. सतयेन्द्र गुप्ता का जन्म 13 मई 1944 को देहरादून ;उत्तराखंडद्ध में हुआ। आपने अपनी उच्च शिक्षा विज्ञान विषय में देहरादून में ग्रहण की। आपने अपने अथक परिश्रम से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। आपने अपनी गहन ज्ञान गंगा से हिंदी साहित्य को अनेक कृतियों ;जिनकी संख्या 10 हैद्ध के द्वारा नए आयाम दिए हैं।''3 डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता की पुस्तक के संबंध में एज़ाज़ुल हसन ज़ैदी कहते हैं-''सत्येन्द्र गुप्ता जी की  पुस्तक 'मेरी कोशिश' एक नए अनोखे अंदाज़ में पिरोई हुई शायरी की एक बेमिसाल फ़नकारी जिसका कोई जवाब नहीं वो जिस अंदाज़ से अपनी बात कहते हैं और फिर जिस शिद्दत से तंज़ करते हैं वह आज के बहुत कम रचनाकारों के बस में होता है। कमाल की लाजवाब शायरी के रहबर को मैं दिल से सलाम करता हूँ।''4 
एज़ाज़ुल हसन ज़ैदी तिरोहे को मान्यता देते हुए लिखते हैं-''डाॅ. गुप्ता जी की पुस्तक 'मेरी कोशिश' एक नई पहल मानी जाएगी इसमें दोहे और चैपाई के बीच तीन पदों में विषय को पूरा किया गया है इसे हिंदी प्रेमी त्रिपदी तथा उर्दू प्रेमी सलासी ;तीन पदों वालीद्ध का नाम दे सकते हैं।''5 एज़ाज़ुल हसन ज़ैदी साहब तिरोहे की ख़ासियत बताते हुए कहते हैं-''अनुप्रास तथा यमक आदि अलंकारों की छटा मिलती है अन्त्यानुप्रास तो प्रत्येक त्रिपद में देखा जा सकता है। संक्षेप में अगर पहले पद को निकाल दिया जाए तो पूरी पुस्तक एक ग़ज़ल का संग्रह बन जाएगी क्योंकि प्रत्येक शेर हमक़ाफ़िया और हमरदीफ़ है। इसके साथ-साथ लगभग 60 त्रिपद प्रेम मिलन विरह से समावेशित हैं जो उर्दू ग़ज़ल का आधार हैं।''6 
भाषा और शैली के विषय पर डाॅ. सुनील 'तरुण' का मानना  हैं कि-''आपकी भाषा पर पकड़ और शब्दों का माधुर्य पाठकों को बाँधे रखने में पूर्ण रूप से सक्षम रहा है।''7 एज़ाज़ुल हसन ज़ैदी साहब ने भी उनकी भाषा और शैली पर विचार करते हुए कहा है कि-''सबसे अलबेली इसकी भाषा है। हिंदी उर्दू का ऐसा सुन्दर संगम या तो हिंदी-उर्दू के जनक सूफ़ी अमीर ख़ुसरो के यहाँ मिलता है या गद्य में मुंशी प्रेमचंद तथा कुछ-कुछ भारतेंदु जी के यहाँ पाया जाता है और दोनों भाषाओं हिंदी तथा उर्दू में समान रूप से आदरणीय भाव से देखा जाता है। जहाँ तक छंदों का प्रश्न है इस समय में जबकि काव्य छंद विहीन हो गया है यह रचना छंदोबद्ध व गेय पदों वाली ही समझी जाएगी।''8 
विषय चयन के संबंध में डाॅ. सुनील 'तरुण' का मानना है कि-''उन्होंने अपनी इस तीन मिसरी शायरी संग्रह में जीवन के लगभग हर पहलू को छुआ है।''9 
देवेन्द्र माँझी ने भी माना है कि-''सत्येन्द्र गुप्ता जी काफ़ी समय से ग़ज़ल विधा में सतत् प्रयासरत हैं और उनके अनेक संग्रह प्रकाशित होकर चर्चा का विषय बन चुके हैं। अब उन्हें इल्हाम हुआ है कि शेर की दो पंक्तियों की अपेक्षा तीन पंक्तियों ;मिसरोंद्ध में बात को अपने मुक़ाम तक पहुँचाना अधिक सहज और बेहतर है। अपनी इसी सोच से प्रेरित होकर उन्होंने शायरी की एक नई विधा 'तिरोहे' को जन्म दिया है।''10  देवेन्द्र माँझी उनके छंदों की तारीफ़ करते हुए लिखते हैं-''हर छंद क़ाबिले-ज़िक्र है।''11 
तिरोहे और तिरोहे की व्याकरण शोध का विषय है। तिरोहे का छंदविधान स्पष्ट नज़र आ जाता है, व्याकरण को भी इसमें नकारा नहीं जा सकता है परंतु फिर भी कवि ने लिखा है कि ''तिरोहे किसी भी व्याकरण से मुक्त हैं।''12  वहीं वह यह भी कहते हैं कि ''मैंने ग़ज़ल और गीत कहने में भी इनका प्रयोग किया है।''13 
दृष्टव्य हैं-


 उसकी शान में कुछ तो अता कर
 हर चीज़ मिल जाती है दुआ से
 मांग कर तो देख ले ख़ुदा से14


जैसा कि नाम से ही प्रतीत हो रहा है। प्रस्तुत तिरोहे में तीन पंक्ति हैं और यह तिरोहा पुस्तक का प्रारंभ भी है। प्रारंभ ईश्वर के नाम पर किया जाता है इसीलिए यह मंगलाचरण है।
प्रथम पंक्ति में एक साधारण सी बात कही गई है जिसमें मनुष्य से कहा जा रहा है कि 'तू भी तो भगवान को कुछ दे।'
सत्येन्द्र गुप्ता आशावादी हैं। तभी तो कहते हैं-
 तू मिसरा है जिस ग़ज़ल का ज़िंदगी
 उस ग़ज़ल के अशआर हम भी हैं
 तेरे इश्क़ के हक़दार हम भी हैं15
गुप्ता जी ईश्वर से मांगते हैं और ऐसा मांगते हैं कि उनके माँगने पर कौन इंकार कर सकता है-
 तेरे दिल में क्या है उसे सब पता है
 देता है सबको वो अपनी रज़ा से
 अजनबी नहीं है वह तेरी सदा से16


 मुझको ऐसा न बनाना मेरे ख़ुदा
 मुझसे मिलते हुए लोग डरने लगें
 मुझसे दूर-दूर सब रहने लगें17


 मुझको ऐसा बना देना मेरे ख़ुदा
 तेरी ख़ुश्बू मेरे साथ चलने लगे
 जिस गली मैं चलूँ, महकने लगे18
मंगलाचरण के बाद उन्होंने माँ को याद किया है- 
 बहुत तकलीफ़ सहकर पाला माँ ने
 माँ की झुर्रिया बेटे की जवानी हो गई
 वक़्त बीतते-बीतते माँ कहानी हो गई19


 मुद्दत से नींद नहीं आई माँ
 लोरी कोई नई सुना दे मुझे
 थपकी दे कर सुला दे मुझे20


 भूखे पेट माँ ने सोने नहीं दिया
 ख़ुद सो गई मुझे खिलाते-खिलाते
 थक गई माँ कहानी सुनाते-सुनाते21
मुहावरों और अलंकारों का उपयोग भी तिरोहे में भरपूर है। जिससे कहा जा सकता है कि उनके तिरोहे काव्य में काव्य-कौशल की कोई कमी नहीं अखरती है। विभिन्न विषयों पर तिरोहेकार की क़लम ख़ूब चली है। आशिक़ी पर कवि ने क्या ख़ूब कहा है-
 रोशनाई इश्क़ की सारी उड़ गई
 ख़ाली मगर दिल की दवात न हुई
 मिलके भी लगा मुलाक़ात न हुई22


 हसरत बनकर रह गई मोहब्बत
 शाम क़ूचा-ए-यार में गुज़्ार गई
 सुबह इश्क़िया ख़ुमार में गुज़्ार गई23
अमीरी-ग़रीबी का भेद किसी भी समाज के लिए अभिशाप है। कवि ने इस बात को भी नए अंदाज़ में कहा है- 
 अमीरी चमकती है ग़रीबी सिसकती है
 दुनिया यूं ही चलती रुमानी लगती है।
 हर चेहरे की हसीं परेशानी लगती है24
दुनियावी समस्याओं पर कवि की क़लम रुकती नहीं है। कवि के पास विषय का अथाह भंडार नज़र आता है। दृष्टव्य हैं कुछ तिरोहे- 
 फ़ासला तो रहना चाहिए बीच में
 आग से छेड़खानी भी अच्छी नहीं
 हवा की तेज़ रवानी भी अच्छी नहीं25


 ज़ख्मों को रख सके तिजोरी में
 इतना भी कोई साहूकार नहीं होता
 ज़ख़्मों का कभी व्यापार नहीं होता26


 होंगे लाख ऐब मुझमें भी तो
 कौन है यहाँ जो दूध का धुला है
 भरोसा अब किसी पर न रहा है27


 ता-उम्र मर-मर कर जिए हम
 इतनी महँगी ज़िन्दगी यार क्या करते
 क़यामत का इंतज़ार क्या करते28


 शायद क़िस्मत में यही लिखा था
 जिसको भी मैंने हवा से बचाया
 उसी चिराग़ ने घर मेरा जलाया29


 हम सफ़र बनकर साथ चला जो
 पहले तो उसने गले से लगाया
 तन्हाई का उसने ही फ़ायदा उठाया30
तिरोहे से पूर्व भी तिरोहे की ही तरह तीन पंक्तियों वाली रचना प्रकाश में आती है जिसे त्रिपदी या त्रिवेणी कहा गया है। त्रिवेणी के सशक्त हस्ताक्षर डाॅ. श्यामानंद सरस्वती 'रोशन' भी 'जीवन नाम प्रवाह का' का प्रारंभ मंगलाचरण से करते हैं। उनकी तीन पंक्तियों की रचना में भी रदीफ और क़ाफ़िया है। दृष्टव्य है रोशन साहब की कुछ रचनाएं-
 हंसवाहिनी! कर कृपा
 हंस सरीखा हो चयन
 हंस सरीखा हो सृजन31


 विनय यही माँ शारदे!
 जो नश्तर का काम दे
 लेखन में वह धार दे32


 माँ! मेरा हर छंद ही
 आग जलाए क्रांति की
 वर्षा लाए शांति की33


 माँ! ऐसी हो तब कृपा
 हर पल छांदस वृष्टि हो
 लाभान्वित यह सृष्टि हो34
त्रिपद छंद के लिए डाॅ. श्यामानंद सरस्वती 'रोशन' लिखते हैं-
 शब्द चयन की दक्षता
 भाव पक्ष की भव्यता
 त्रिपद छंद की पूर्णता35


 त्रिपद छंद में देखिए
 सूर्य-चंद्रमा-सी झलक
 कुछ कह पाने की ललक36


 त्रिपद छंद की बात क्या
 अनुपम और ललाम है
 दिव्य त्रिवेणी धाम है37
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि 'तिरोहे' ग़ज़ल शिल्प में एक नया प्रयोग है। जिसमें प्रथम प्रयोगकर्ता सत्येन्द्र कुमार गुप्ता ने रदीफ़ और क़ाफ़िया का पूरा ध्यान रखा है। विषय की दृष्टि से भी 'तरोहे' को संपन्न कहा जा सकता हैं।
संदर्भ
1 . डाॅ. सत्येंद्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 18
2 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 19
3 . अशोक अग्रवाल, पुस्तक समीक्षा, विमोचन समारोह में प्रस्तुतकृकृकृ
4 . एज़ाज़ुल हसन ज़ैदी, पुस्तक समीक्षा, विमोचन समारोह में प्रस्तुतकृकृकृ
5 . एज़ाज़ुल हसन ज़ैदी, पुस्तक समीक्षा, विमोचन समारोह में प्रस्तुतकृकृकृ
6 . एज़ाज़ुल हसन ज़ैदी, पुस्तक समीक्षा, विमोचन समारोह में प्रस्तुतकृकृकृ
7 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 9
8 .  एज़ाज़ुल हसन ज़ैदी, पुस्तक समीक्षा, विमोचन समारोह में प्रस्तुतकृकृकृ
9 .  डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 7
10 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 10
11 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 11
12 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 19
13 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 19
14 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 21
15 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 22
16 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 21
17 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 23
18 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 23
19 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 28
20 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 27
21 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 31
22 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 40
23 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 29
24 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 127
25 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 154
26 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 23
27 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 29
28 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 30
29 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 30
30 . डाॅ. सत्येन्द्र गुप्ता, मेरी कोशिश, अविचल प्रकाशन बिजनौर, प्रथम संस्करण 2018, पृ. 30
31 . डाॅ. श्यामानंद सरस्वती 'रोशन', जीवन नाम प्रवाह का, अमृत प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012, पृ. 17
32 . डाॅ. श्यामानंद सरस्वती 'रोशन', जीवन नाम प्रवाह का, अमृत प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012, पृ. 17
33 . डाॅ. श्यामानंद सरस्वती 'रोशन', जीवन नाम प्रवाह का, अमृत प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012, पृ. 17
34 . डाॅ. श्यामानंद सरस्वती 'रोशन', जीवन नाम प्रवाह का, अमृत प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012, पृ. 18
35 . डाॅ. श्यामानंद सरस्वती 'रोशन', जीवन नाम प्रवाह का, अमृत प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012, पृ. 20
36 . डाॅ. श्यामानंद सरस्वती 'रोशन', जीवन नाम प्रवाह का, अमृत प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012, पृ. 20
37 . डाॅ. श्यामानंद सरस्वती 'रोशन', जीवन नाम प्रवाह का, अमृत प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012, पृ. 20


 



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वंदना गुप्ता                                          समकालीन हिंदी कवयित्रियों में श्रीमती निर्मला पुतुल एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आदिवासी जीवन का यथार्थ चित्रण करती उनकी रचनाएँ सुधीजनों में विशेष लोकप्रिय हैं। नारी उत्पीड़न, शोषण, अज्ञानता, अशिक्षा आदि अनेक विषयों पर उनकी लेखनी चली है। गगन गिल जी का कथन है - ''हमारे होने का यही रहस्यमय पक्ष है। जो हम नहीं हैं, उस न होने का अनुभव हमारे भीतर जाने कहाँ से आ जाता है? .... जख्म देखकर हम काँप क्यों उठते हैं? कौन हमें ठिठका देता है?''1 निर्मला जी के काव्य का अनुशीलन करते हुए मैं भी समाज के उसी जख्म और उसकी अनकही पीड़ा के दर्द से व्याकुल हुई। आदिवासी स्त्रियों की पीड़ा और विकास की रोशनी से सर्वथा अनभिज्ञ, उनके कठोर जीवन की त्रासदी से आहत हुई, ठिठकी और सोचने पर विवश हुई।  समाज द्वारा बनाए गए कारागारों से मुक्त होने तथा समाज में अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए नारी सदैव संघर्षरत रही है। सामाजिक दायित्वों का असह्य भार, अपेक्षाओं का विशाल पर्वत और अभिव्यक्ति का घोर अकाल  नारी की विडंबना बनकर रह गया है। निर्मला जी ने नारी के इसी संघर्ष

नजीबाबाद और नवाब नजीबुद्दौला

अमन कुमार त्यागी मुरादाबाद-सहारनपुर रेल मार्ग पर एक रेलवे जंकशन है - नजीबाबाद। जब भी आप इस रेलमार्ग पर यात्रा कर रहे हों तब नजीबाबाद के पूर्व में लगभग तीन किलोमीटर और रेलवे लाइन के उत्तर में लगभग 200 मीटर दूरी पर एक विशाल किला देख सकते हैं। सुल्ताना डाकू के नाम से मशहूर यह किला रहस्य-रोमांच की जीति जागती मिसाल है। अगर आपने यह किला देखा नहीं है, तो सदा के लिए यह रहस्य आपके मन में बना रहेगा कि एक डाकू ने इतना बड़ा किला कैसे बनवाया ? और यदि आपसे कहा जाए कि यह किला किसी डाकू ने नही, बल्कि एक नवाब ने बनवाया था। तब भी आप विश्वास नहीं करेंगे, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति आपको बताएगा कि इस किले में कभी सुल्ताना नामक डाकू रहा करता था। बात सच भी है। भाँतू जाति का यह डाकू काफी समय तक इस किले में रहा। तब बिजनौर, मुरादाबाद जनपद का हिस्सा होता था और यहां यंग साहब नाम के एक पुलिस कप्तान तैनात थे, जिन्होंने सुल्ताना डाकू को काँठ के समीपवर्ती रामगंगा खादर क्षेत्र से गिरफ्तार कर इस किले में बसाने का प्रयास किया था। उन दिनों देश में आजादी के लिए देशवासी लालायित थे। जगह-जगह अंगे्रजों से लड़ाइयां चल रही थीं। ब