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अन्नदाता की भूख


भोलानाथ त्यागी


तंत्र जब लोक पर हावी हो जाता है, तब एक नई कहानी का जन्म होता है और इस युग के तथाकथित लोकतंत्र में तो, यह सब सहज संभव है। यहाँ नित्य, नई कहानियाँ करवट बदलती हैं। इसी क्रम में, कृषि प्रधान यह देश, कब कुर्सी प्रधान बन गया? गाँव के सीधे-साधे किसान नहीं समझ पाए और खेती-किसानी के नाम पर, देश की राजधानी में पूरा एक वातानुकूलित मंत्रालय उग आया, जिसमें सूट-बूट धारी, नीति नियंता जो निर्णय लेते, उसमें किसान का क्या हित होता है, यह एक अलग शोध का विषय बन गया है। 'शुगर लाबी' के नाम पर, देश और प्रदेश की राजनीति में एक अलग ही व्यवस्था अंगड़ाई लेने लगी। और 'शुगर लाबी' की, कड़वाहट झेलते-झेलते किसान, इच्छा मृत्यु की चाह करने लगा।
भुवन ने अपने खेतों में इस गन्ना सीज़न में, पूरी मेहनत के साथ, गन्ने की अगेती प्रजाती उगाई थी। उसे देखने के लिए, दूर-दूर के ज़िलों के किसान आते। विभागीय अधिकारी और कर्मचारी भी, भुवन के खेत में खड़े होकर उगाई गई गन्ना फ़सल के बीच माॅडलिंग की मुद्रा में फ़ोटो खिंचवाते, अख़बारों में सरकारी आंकड़ों के साथ विज्ञप्ति, प्रकाशन हेतु जारी करते और सरकारी काग़ज़ों में उनकी, अपनी अलग फ़सल लहलाहती।
इस प्रकार खेती, दिन-दूनी, रात-चैगुनी उन्नति कर रही थी। सरकार ने, सभी को आश्वस्त किया था कि आगामी पाँच वर्षों में किसान की आय दोगुनी कर दी जाएगी और विकास की इसी परिभाषा के बीच, किसान द्वारा क़र्ज़ में डूबे होने के कारण, की जाने वाली आत्महत्याओं के आंकड़े कई गुना बढ़ चुके थे। प्रस्तावित बुलेट ट्रेन की गति से दौड़ लगाते यह आंकड़े, सभी को यकायक हत्प्रभ करने हेतु पर्याप्त थे। भुवन से उसके पड़ोसी किसान रामबदन ने चुहुल करते हुए कहा-'...क्यों भाई, इस बार तो कमाल कर दिया तुमने, अपनी खेती-बाड़ी के मोर्चे पर ट्रेन्च विधि अपना ली, गन्ना क्या ग़ज़ब उगाया है, दूर-दूर तक जवाब नहीं तुम्हारा...और हाँ, तुम्हारे खेत में, उस दिन अपने लाव लश्कर के साथ, ज़िला गन्ना अधिकारी कुछ इस अदा से खड़ा था, जैसे गुलेरी की कहानी का सरदार लहना सिंह हो, रोज़ अख़बारों में उसके फोटो छपते हैं, कि गन्ना उपज में उसी के कारण हमारा ज़िला, पूरे देश में सबसे आगे बना है।कृसरकार में उसका ख़ूब नाम हो रहा है...देश विदेश में सभी लोग उसे जान गए हैं...शुगर मिल वाले दूर से सलाम ठोकते हैंकृ...और सरकारी आंकड़ों की भूल-भुलइया में तुम्हारा तो नाम भी नहीं आता।
'...बात तो तुम ठीक ही कह रहे हो, रामबदन भाई, लेकिन मेरी तो चिंता ही कुछ और है...आखिर मैं इस गन्ने की पैदावार का करूँगा क्या? शुगर मिल पर तो सप्लाई कम है और क्रेशर उद्योग, पहले ही सरकारी नीतियों की भेंट चढ़ चुका है। मेरा गन्ना आख़िर जाएगा कहाँ....।'
भुवन ने, अपना सिर खुजलाते हुए कहा।
तकनीक ने, मोबाइल क्रांति कर दी थी। पूरे एक सप्ताह मौसम कैसा रहेगा, इसका पता मोबाइल में मौसम विभाग द्वारा भेजे जाने वाले मैसेज से पहले ही पता चल जाता, अपनी फ़सल की देख-रेख और दवा-पानी के निर्देश भी, विभाग किसान के मोबाइल नंबर पर नित्य प्रति ही भेजता रहता, और इसका शुल्क किसान के खाते से अनायास स्वतः ही काट लिया जाता।
भुवन को अपनी गन्ना उपज को ठिकाने लगाने की चिंता थी, तो सरकार को चिंता थी कि किसान और खेती-बाड़ी को कैसे ठिकाने लगाया जाए और इन्हीं चिंताओं के बीच, किसान था कि 'शटल काॅक' बन चुका था।
इन्हीं सब तमाशों के बीच सरकार द्वारा दस वर्ष पुराने ट्रैक्टरों पर पाबंदी लगा दिए जाने का, नादिर शाही फ़रमान, किसानों पर गाज़ बन कर गिरा था। और इस पाबंदी का विरोध, चारों ओर मुखर हो गया। किसान, खेती-किसानी छोड़ विरोध प्रदर्शन की राजनीति का मोहरा बन चुका था। उनके, बूढ़े हांफते ट्रैक्टर ज़िला मुख्यालय की ओर, इस क़ानून का विरोध करने के लिए अपने खेत छोड़, सड़क नापने में व्यस्त हो गए।
तभी, भुवन की तंद्रा भंग करते हुए, उसकी पत्नी मानसी ने कहा-'...क्यों जी, सरकार तो आती जाती रहती है, लेकिन किसान का वही हाल-बेहाल बना रहता है। गन्ना खेतों में खड़ा है, शुगर मिल पर्चियाँ जारी करने में मनमानी कर रहे हैं, और अधिकारी बस कानों में तेल डालकर बैठे हैं... आख़िर ऐसा कब तक चलता रहेगा, जब हमारा गन्ना ही नहीं बिकेगा, तो खाते में पैसा कहाँ से आएगा... कोई पूछे इन करमजलों से, किसान क्या गन्ना पैदावार के आंकड़ों को खाएगा?'
अरी, चुप भी कर भागवान तू क्या जाने राजनीति की बातें, अब खेतों में सरकार फ़सल नहीं उगाने देती, वरन वहाँ अपनी राजनीति उगाती है... चुनाव आने पर फिर वोटों की फ़सल काटती है... किसान के क़र्ज़ माफ़ी के नाम पर, हमारे हिस्से में आए तो थे सत्तरह रुपए पचास पैसे... कितनी राहत मिली थी, बैंक के क़र्ज़ से हमेंकृ... और महीनों तक सरकार द्वारा किसानों की क़र्ज़ माफ़ी के आंकड़े, खबरों में उछाले जाते रहे थे। अब कहने से क्या होता है, राजनीति के इस अभ्यास में सभी तो नंगे है, हो जाएगा अपना भी, सभी के साथ जो कुछ होना होगा...काहे को चिंता करती है तू...?'
भुवन ने, पत्नी को आश्वस्त करने का असफल प्रयास किया था। जिस प्रकार सीमाओं पर आए दिन होने वाली घटनाओं की, देश के नेताओं द्वारा कड़ी निंदा कर मुँहतोड़ जवाब देने की बात की जाती रही है, लगभग उसी अंदाज़ में, अफ़सरशाही अपने आदेश जारी करती है। गन्ना किसानों का भुगतान, बैंकों के माध्यम से कितने हज़ार करोड़ रुपए कराया जा चुका है और अभी कितना बाक़ी है, यहीं आंकड़े समाचार पत्रों की सुर्ख़ियाँ बन, किसान और उसकी खेती को, काग़ज़ों में लगातार ज़िंदा बनाए रखने का प्रयास करने में लगे रहते हैं।
रामबदन ने भुवन को छेड़ते हुए कहा-'...क्यों भाई, जिस देश में, किसान को किया जाने वाला उसकी उपज का भुगतान, एक महत्वपूर्ण ख़बर बन जाता हो, वहाँ किसान संवेदनशीलता की कल्पना करना ही बेमानी है... किसान को उसकी फ़सल का भुगतान, कोई शासन या व्यवस्था का, उपकार या उपहार तो नहीं होता-जो उसका ढोल बजाया जाता है... आख़िर यह तमाशा कब तक चलता रहेगा। किसान की इस आत्महंता प्रवृत्ति के लिए, कौन ज़िम्मेदार है, इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है...।'
यह सुन, भुवन ने अपने आक्रोश को, बाहर निकालते हुए कहा-'किस-किस सवाल का जवाब ढूँढोगे भाई ...यह तो हमारी व्यवस्था का समूचा आवा का आवा ही बिगड़ा हुआ है, इसमें कोई सुधार संभव नहीं लगता...'बस अब तो, एक ही चिंता बची है कि खेतों में खड़े इस गन्ने का क्या किया जाए सरकार के तो, चीनी उत्पादन के आंकड़े आसमान छू रहे हैं, और गन्ना, खेत में खड़ा, सूखने की कगार पर है। आख़िर यह विरोधाभास, देश को किस दिशा में ले जाएगा, राम ही जाने।'
-'अरे, क्यों मन छोटा करता है, भुवन, राम तो अपने तंबू की भी नहीं जान पा रहे हैं, तू उन्हें देश को जानने की ज़िम्मेदारी सौंप रहा है... और इसी रामलीला के भाग में, किसान हित में राजधानी में आंदोलन चलाया जा रहा है, और राजनीति अंगड़ाई भी नहीं ले रही, बस चुपचाप यह तमाशा देखते रहो, एक न एक दिन तो इस रामलीला का पटाक्षेप होगा ही। 
और इन्हीं, बतकहियों के बीच, किसान, राजनीति, अपनी पुरानी चाल पर इठलाती, नारे लगाती आंदोलन करने में लगी थी। किसान राजनीति में भी वंशवाद की तुरही और रणसिंघे, अपने जयघोष में व्यस्त थे।
भुवन, अपने खेत की मेढ़ पर बैठ, गन्ने की उपज को निहार रहा था-'शुगर मिल' तक गन्ना सप्लाई पर्चियों का इंतज़ार, अधिकतर किसानों की आँख, पथरा गयी थी। और संबंधित अधिकारी, दिन दूनी रात चैगुनी गति से, आंकड़ों के साथ ही साथ, अपनी काया और माया, को बढ़ाने में व्यस्त थे। गन्ने की मिठास, किसान के जीवन में कड़वाहट घोल रही थी।
और अन्नदाता था कि एक अनाम भूख से बिलबिला रहा था।


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