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गाँव अपने लौट चलते हैं


अमन कुमार



इन शहरों के सौ सुख भैया अब तो खलते हैं।
चल रे मनवा गाँव अपने लौट चलते हैं।।


लंबी सड़कें दीखें हैं-रे नागिन सी यहाँ,
ऊँची ये इमारतें हैं बैरिन सी यहाँ,
हर व्यवस्था दीखती है डाकिन सी यहाँ,
रहबर खुद ही रहजन बनके हमको छलते हैं।।


शहरी नदियों का अमृत सा जल जहरीला है
पुरवइयों का रंग यहाँ पे नीला-नीला है,
हर-एक सुर्ख गुलाबी चेहरा दिखता पीला है,
जाने कितने रोग यहाँ घर घर में पलते हैं।।


रिश्ते-नाते धन-दौलत से तोले जाते रे,
बिन मतलब के बोल यहाँ कब बोले जाते रे,
व्यवहारों में नीम-करेले घोले जाते रे,
गुड़-गन्ने से मीठेपन को हाथ मलते हैं।।


दिल है पर संवेदना से खाली-खाली है,
उजला तन, पर भावना हर मन की काली है,
इंसां खुद इंसानियत के नाम गाली है,
जाने कैसे लोग यहाँ पे रंग बदलते हैं।।


-अमन कुमार त्यागी


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