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हिन्दी नाटकों के माध्यम से पाठ शिक्षण, प्रशिक्षण और समाधान


डॉ. चन्द्रकला 


साहित्य की इस विविधता भरी दुनिया में जहाँ एक तरफ नित्य नए संचार माध्यमों के प्रयोग ने विषयों के तर्कयुक्त, युक्तिसंगत पठन- पाठन, व विमर्शों को तीव्र गति दी है। साएबर जगत से इस परिवर्तन ने ही आज् के विदयार्थियों को जिस तरह से जागरूक किया है। उससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वर्तमान समय में कक्षा में पढाये जाने वाले पाठ से छात्र को जोडने के साथ उसके अन्दर के सृजनात्मक लोक से भी परिचय कराया जाय। तकनीकी शिक्षा व नई शिक्षा- नीति से उत्पन्न इस चुनौती का सामना वर्तमान शिक्षाविदों एंव अध्यापकों को भी करना है। उन्हें पाठ्य- पुस्तकों को रोचक ढंग से पढने और पढाने की परिपाटी पर नये सिरे से विचार करने की भी आवश्यकता है। आज यह वर्तमान समय की मांग और आवयश्कता भी है। कारण भी स्पष्ट है।



-जहाँ एक तरफ स्कूली शिक्षा बहुत पहले ही इस बदलाव से अपने को जोड चुकी है। वहीं कालेजों में विशेष कर हिन्दी में यह सारा दायित्व किताबों ने ही उठा रखा हैं।



-आज यदि प्रमाणिक पाठ उपलब्ध नहीं है, या पुस्तक ही प्रिंट में नही है तो उसकी सामग्री किसी साईट पर नही मिलेगी। हिन्दी में इस दिशा में कार्य ही कुछ समय पहले शुरू हुआ है। जिसके कारण हिन्दी के विदयार्थी की रुचि अपने विषय के साथ उस रूप में नही बन पाई जिस रूप में अन्य विषयों के छात्रों को फायदा हुआ है।



-बाज़ार के खुले विकल्पों के बीच 'साहित्य' को भी रखकर देखा जाना चाहिए। मैनेंजमेंट के विभिन्न कार्यक्रमों के लिए 'गीता' और 'कबीर' भी बहुत उपयोगी हैं।



-साहित्य के विदयार्थियों के अतिरिक्त साहित्य के अनुरागियों के लिए ऑनलाईन सामग्री विकल्प हो सकती है।



-कक्षा के विकल्प के रूप प्रसारित- प्रचारित नहीं करना है, बल्कि उसके उपसाधनों के रूप में प्रस्तुत किया जाय।



-यहीं से नाट्य शिक्षण की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। जिसे आधुनिक तकनीक से जोड कर कक्षा में सर्वसुलभ बनाने के साथ ही छात्रों की रुचि को नया संस्कार दिया जा सकता है।



यदपि इस पर बहुत सारे संस्थानों, वेब साइटों द्वारा कार्य किया जा चुका है और लगातार किया भी जा रहा है। इस तरह के सभी प्रयास उन लोगो दवारा ही हुए है जो नाटय साहित्य को लिखने ,पढने अथवा उसके निर्देशन व मंचन से शौकियातौर से जुडे है। या वे लोग जिन्हे इससे रोजगार मिला है, मिलने की सम्भावना है। पर मूल चिंता इस बात की है कि यह प्रक्रिया कक्षाओं से अभी तक दूर है जहाँ सभी गदय एंव पदय विधाओं को एक ही तरीके से पढाया जाता है। चाहे वह कविता, कहानी, नाटक अथवा एकांकी ही क्यों न हो। फिर भी छात्रों की भागीदारी और पहल न के बराबर है। यह प्रयास तभी सार्थक होगा जब
विदयार्थी अपनी समस्यायों के साथ इस तरह के प्रशिक्षण से जुडे, अपने अनुभवों को तकनीक के माध्यम से सामने लाऐं। इन छात्रों के पास इस प्रकार बहुत सी ऐसी जानकारियां है जिन्हें आज के संचार उपकरणों से जोड कर ये भाषा ज्ञान एंव अर्जित भाषा से अधिक लाभ उठा सकते है। जिसका फायदा अन्य भाषा-भाषियों को भी हो सकता है। पर हम उतना लाभ आज
भी उठा नही पा रहें है। इस दिशा में आज बहुत कार्य करने की आवश्यकता है।


भाषा मात्र विचार- विनिमय का अथवा पुस्तकों से परिचय प्राप्त करने का ही माध्यम नही है अपितु भाषा के सैदधांतिक और व्यावहारिक ज्ञान से संसार की साहित्यिक विधाओं के अलग-अलग स्वरूप को जानने की दृष्टि प्राप्त होती है। कविता पढने का आनन्द उसके सस्वर पाठ पर जितना निर्भर करता है उतना सपाट, और एकरस उच्चारण से नहीं। इसी प्रकार कहानी, उपन्यास को जिस तरीके से पढा या पढाया जाता है, उसी भांति नाटक अथवा एकांकी को नहीं। नाटक एक दृश्य विधा है जिसका पाठ से उतना संबधं नही है जितना कि मंच प्रस्तुति से है। विदयालयों, विश्वविदयालयों के पाठ्यक्रम में लगे नाटकों को लेकर नाटय लेखकों, समीक्षकों के द्वारा निरंतर यह सुझाव दिया जाता रहा है कि विदयार्थियों को नाटक पढाने से पहले उसको दिखाने की व्यवस्था होनी चाहिये। जिससे उसकी दृश्यता से जुड कर होने वाले परिवर्तन को वह पाठ पढनें के समय स्वयं समझ सके, उसमे निहित अंतर्विरोधों को जान सके। अंतर कर सके। कक्षा की पाठ सामग्री व अन्य विषयों के शिक्षण पक्षों से जुडी समस्याओं को बहुत ही वैज्ञानिक दृष्टि से नाटय प्रस्तुति और पाठ शिक्षण से जोड कर दूर किया जा सकता है। जिसमें श्रवण, भाषण, पठन, और लेखन के भाषाई कौशल से भी जोडा जा सकता है। जिसके अनेक आयाम हो सकते हैं।



1. साहित्य शिक्षण की परिपाटी



2. नाट्य शिक्षण के उद्देश्य



3. नाट्य शिक्षण की प्रणालियाँ



4. महत्व एंव उपयोगिता



5. प्रशिक्षण का महत्व और समाधान



1. साहित्य शिक्षण की परिपाटी: भाषा की शिक्षा के साथ- साथ वैदिक ऋचाओं, श्लोकों तथा उपनिषदों को कठस्थ कराने की परंपरा थी, वह बहुत कुछ भाषा शिक्षण और साहित्य शिक्षण में भाषाई कौशलों से अर्जित ज्ञान के आधार पर किया जाता था। गुरु के सरस्वर वाचन, या गायन के पश्चात शिष्यों को उसे ध्यान से सुन कर, उसी रूप में प्रस्तुत करने का निरंतर अभ्यास करवाया जाता था। ऐसा करने के पीछे एक निश्चित उद्देश्य होता था। वह उद्देश्य था उच्चारण संबंधी अशुद्धियों का उसी समय संशोधन करना, तथा लय, गति के मध्य एक तारतम्यता स्थापित करते हुए उसको गेयता से जोड कर स्मृति में सुरक्षित कर देना। भाषा शिक्षण की इस पद्धति के दवारा उस विरासत को मौखिक रूप में ही सही संरक्षित करके दूसरी पीढी तक ज्यों का त्यों पहुँचाना भी इसका मूल उददयेश्य रहा होगा। भरत मुनि के 'नाटय-शास्त्र' के कारण इसे 'पंचम वेद' की उपाधि मिली। जिसने पहले से चली आती मान्यताओं के मध्य एक नई शुरूआत की। भाषा शिक्षण अधिगम के साथ-साथ यह विभिन्न जातक कथाओं, लोक कथाओं तथा किवदंतियों के माध्यम से साहित्य का एक सुन्दर संसार भी रचता था। जिसे आज भी परंपरा से प्राप्त इन थातियों में संचित देखा जा सकता था। जिसमें किताबों और बस्तों का कोई बोझ न होते हुए भी शिक्षार्थी और गुरु के बीच परस्पर विचारों और संवादों की एक सरणी निरंतर गतिमान रहती थी सुनना, गुनना फिर अभिव्यक्त करना।



2. आज के रचना कौशल और भाषाई कौशल की पूर्व पीठिका में इस स्वरूप या व्यवस्था को अपनाने का प्रयास और अभ्यास दिखाई देता है। जिससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जब तक पाठ का सम्पक उच्चारण करने में विदयार्थी सक्षम नहीं है। तब तक उनकी अन्य कौशलों पर पकड नहीं बन सकती। जिसका नतीजा यह होता है कि भाषाई ज्ञान, और पुस्तकीय अभ्यास से प्राप्त ज्ञान तो उसके पास बहुत होता है किंतु इससे उसके व्यक्तितत्व का विकास भी होगा यह आवश्यक नहीं है। यहीं से साहित्य शिक्षण का सम्बंध गहराई से व्याख्यायित होता है। जिसके पूर्व में भारतीय और पाश्चात्य परंपरा का समन्वय भी आज देखा जा सकता है।



3. वर्तमान नाटय साहित्य एक लम्बी प्रयोगात्मक परम्परा कि देन है। जो हिन्दी में भारतेन्दु से लेकर प्रसाद, मोहन राकेश, लक्ष्मी नारायण लाल तथा भीष्म साहनी, सुरेन्द्र वर्मा, और स्वदेश दीपक इत्यादि एक लम्बी परम्परा है जिनके नाटक न सिर्फ पढे और पढाये जातें अपितु मंच भी निरंतर प्रस्तुत किए जाते है। जिसे लेकर प्रत्येक नाटय निर्देशक निरंतर प्रयोगात्मक प्रक्रिया से गुजरता और इसी का लाभ कक्षा में पाठ शिक्षण के दवारा उठाया जा सकता है।


4. आज के समय में जिस प्रकार तकनीकी शिक्षा ने पूर्व वैदिक परंपरा के शिक्षण कौशल से जोडकर साहित्य के चिंतन को नया आयाम दिया है। जो आज कम्प्यूटर तथा अन्य नये उपकरणों के दवारा सबकी पहुँच में है। जिसे कई आसान तरीकों से सीखा भी जा है। जो आज सरल अभ्यास से सर्वसुलभ भी हो गया है। जिसे कहीं भी, किसी भी रूप में अपना सहायक बनाया जा सकता है। चाहे वह अध्यापक कक्ष हो अथवा अपना अध्ययन कक्ष। किताबों की एक पूरी दुनिया, साहित्य की विभिन्न विद्याओं में उपस्थित है। जो रुचि और कल्पना की उडान के लिए आवश्यक जगह उपलब्ध करवाती है।



2. नाट्य शिक्षण का उद्देश्य : साहित्य की अन्य विधाओं में नाटक एक महत्त्वपूर्ण विधा है। जिसके माध्यम से न सिर्फ साहित्यिक अभिक्षमता का विकास होता है, बल्कि इस एक विधा से अन्याय विधाओं जैसे कविता, कहानी का कल्पना लोक भी जुडता है। नाटक की विषय-वस्तु जहाँ एक तरफ कहानी बुनने की कला में पारंगत करती है। वहीं संवादों की अदायगी में एक लय का समावेश, तथा भावातिरेक में संवादों का बोलना उसे कविता की पाद्यात्मकता के समीप ले जाता है।


नाटक एक सामूहिक प्रस्तुति है। नाटक की इसी संरचना के माध्यम से एक तरफ छात्र इस दृश्यात्मक विधा से स्वयं अपने को जोड कर देखने के साथ ही अन्य विषयों की एकरसता को भी तोडने में सफल होगा। साथ ही सहृदय की सामूहिक अवधारणा में वह एक दर्शक के रूप में साथ के लोगों की प्रतिक्रिया से अवगत होगा। जिससे उसे अपना आकलन करने में आसानी होगी। जिससे विषय के ज्ञान के साथ-साथ व्यवहारिकता का बोध सहज सरल रूप में आसानी से क्रियांवित हो सकेगा है। शरीर के सभी अंगों का संचालन, संवाद बोलने में सहजता होगी। जो व्यक्तित्व के विकास के साथ ही अभिव्यक्ति कौशल और आत्मविश्वास को बढायेगा है। जिससे समाज, परिवेश और स्वयं अभिनेता के संस्कारों का नया स्वरूप बनता है। अन्य साहित्येतर विषयों के साथ जुड कर नाट्य शिक्षण का उद्देश्य इस प्रकार सामने आता है –



(i) मौखिक वाचन और लेखनशक्ति का विकास



(ii) भावनाओं का उद्दात्तीकरण और उनका व्यक्तित्व निर्माण में सहयोग



(iii) विवेक सम्पन्नता और भावनात्मक अभिव्यक्ति को सही दिशा और दृष्टि प्रदान करना



(iv) नाटक की अभिनेयता से जुडकर साहित्य की अन्य विधाओं से ज्ञान अर्जित करना


(v) जीवन जगत तथा साहित्य के प्रति नवीन सौन्दर्यानुभूति प्रदान करना



(vi) नैतिक मूल्यों के विस्तार से वैश्विक मूल्यों का निर्माण करना



(vii) जीवन दर्शन के प्रति तार्किक विकास करना



(viii) पारम्परिक संस्कार तथा संस्कृति दर्शन इतिहास समाज शास्त्र से नई पीढी को अवगत कराना तथा उनके बीच उदार दृष्टि का विकास करना



(ix) साहित्यिक विकास के पठन-पाठन से भाषा के विविध रूपों तथा उच्चारण कौशल से परिचित करवाना



(x) रचनात्मक एवं सृजनात्मक प्रतिभा को पहचानना और उसका विकास करना



(xi) कल्पना लोक को तर्क संगत आधार पर रूपाकार करने की क्षमता का विकास करना



(xii) सामूहिक, सामाजिक संबंधों से स्वयं को जोड कर देखने की दृष्टि का विकास


आज संचार माध्यमों की सुविधा ने ज्ञान से जुडे प्रत्येक स्रोत में विस्तार किया है। उसका सरलीकरण करते हुए रुचियों के विकास को एक नया आयाम दिया है यही कारण है कि यह विधा अपने में एकांगी न होकर साहित्य के सभी विषयों से जुडती है। साहित्य के इस रूप को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :



(i) ज्ञानात्मक साहित्य



(ii) सर्जनात्मक साहित्य



(i) ज्ञानात्मक साहित्य : साहित्य के इतर विषयों इतिहास, विज्ञान, दर्शन, समाज शास्त्र इत्यादि से तथ्यों और आकडों से प्राप्त सूचनओं से अर्जित साहित्य ज्ञान को संरक्षित, और संचित किया जाता है जिसकी उपलब्ध तो साहित्य को महत्त्वपूर्ण ही नहीं बनाती है बल्कि उसके द्वारा व्यक्ति के एवं शैक्षणिक चिंतन का भी सम्यक विकास होता है। इन विषयों से संबन्धित नाट्क हिन्दी साहित्य में भी लिखे गये है, जैसे प्रताप सहगल का 'आर्यभट्ट', जो खगोलशास्त्र, गणित शास्त्र के छात्रों को पढातें समय मंचित संस्थाओं से सीडी, विडियों में उपलब्ध सामग्री को प्रयोग में लाकर उनकी जिज्ञासाओं का समाधान कर सकते हैं।



(II) सर्जनात्मक साहित्य : साहित्य का मूल उद्देश्य ही है कि वह अपनी रचनात्मकता के द्वारा व्यक्ति के भावों, विचारों और कल्पना को नया दृष्टिकोण प्रदान कर सके। उसे जीवन के उच्चत्तम सोपानों को छूने का मार्ग प्रशस्त कर सके। अपनी सौन्दर्यानुभूति में यह कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, संस्मरण तथा ललित निबंध को भी समेट लेती है और इनकी
सर्वव्यापकता नाटक के पाठ, उसकी प्रस्तुति और मंचीय उपकरणों की उपस्थिति को भी जीवंत कर देती है। जिसके माध्यम से नाटक के साथ अन्य साहित्यिक तत्वों का बोध, उसका रसास्वादन और अनुभूति होती है। एक ही मंच पर अनेक विधाएं रूपाकार हो जाती है।



3:नाट्य शिक्षण के विविध रूप : साहित्य की अन्य गद्य, पद्य विद्याओं से भिन्न अपनी स्वरूपगत विशेषता के कारण भाषा एवं साहित्य शिक्षण अधिगम में मौखिक अभिव्यक्ति को जीवंत और प्रभावशाली बनाने में यह विद्या अत्यंत सफल रही है। कारण
स्पष्ट है कि इसकी भूमिका और इसका उद्देश्य अधिक व्यापक होता है।


नाटक ही एकमात्र ऐसी विधा है जिसमें दृश्य और श्रव्य तत्वों की समायोजना होती है। जो किसी अन्य विधा में संभव नही है। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने 'रंगमंच' नामक प्रबंध में स्पष्ट किया है कि “नाटक का नाम सुनते ही स्वभावतः स्टेज का स्मरण हो आता है। इसीलिए नाटककार और नाटक के समालोचक दोनों के लिए स्टेज की जानकारी आवश्यक होती है।” वस्तुतः नाटक का मूल सौन्दर्य तो नाट्यानुकृति ही है। जिसे आज विभिन्न आधुनिक तकनीकों ने और आसान बना दिया है।


जिस प्रकार कथावस्तु के आधार पर नाटकों को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जाता है। यथा सामाजिक नाटक, जनीतिक नाटक, ऐतिहासिक एवं पौराणिक तथा धार्मिक नाट्क। उसी प्रकार की एक संरचना या उसका आधार होता है। इसी के आधार पर यह तय किया जाता है कि यह नाटक किस प्रकार का है। या दूसरे शब्दों में यह ज्ञात किया जा सकता है, उसकी प्रस्तुति में कथावस्तु, चरित्र, भाषा-शैली, परिवेश तथा मंचीय सज्जा किस प्रकार की होगी। इसी दृष्टि से मौखिक अभिव्यक्ति अथवा सर्जनात्मक कल्पना से पाठ शिक्षण या अध्यापन शिक्षण को जोडा जा सकता है। इसी के आधार पर नाटक में पाठ शिक्षण की रूपरेखा तथा कक्षा में शिक्षण की प्रणाली को संचार माध्यम से जोडने की शुरूआत तो काफी पहले हो चुकी है आवश्यकता बस इस बात की है कि इसका प्रचार- प्रसार व्यापक स्तर पर हो। नाट्य शिक्षण की प्रणालियाँ (विविध रूप) : साहित्य का सबसे प्रमुख और उद्देश्यपूर्ण कार्य है शिक्षात्मक ऊर्जा को गति एवं दिशा प्रदान करना। नाट्य साहित्य जीवन को उसकी सम्पूर्णता में दिखाने का अहम ज़रिया है। जिसके दोनों ही पक्ष चाहे वह नाट्य धर्मी तथा लोक धर्मी भी परंपरा ही क्यों न हो। ये दोनों ही महत्त्वपूर्ण विधाएं अपने शास्त्रीय एवं लोक रंजन स्वरूप को लेकर आगे बढती हैं। जीवन के यथार्थ क्षणों को भी जिस कलात्मक रूप में अपनी प्रस्तुति में सामने लाती है उससे अध्येता समाज के विभिन्न सन्दर्भों में जीवन को देख और समझ पाता है। यह उसके अपने अनुभव संसार का विशदीकरण करती है।जिससे भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से भी सीधा जुडाव हो जाता है। जिसे नाटय शिक्षण की प्रणालियों के द्वारा सही तरीके से समझा जा सकता है।



1: पाठ्य पुस्तक प्रणाली : सामान्यतः स्कूल तथा कालेज की कक्षाओं में इसी विधि का ही प्रयोग किया जाता है। इस प्रणाली में अधिकांश शिक्षक अपेक्षित नाटक का वाचन करता है तथा पठित अंश का अर्थ भी बताता जाता है। कतिपय शिक्षक तो नाटक का वाचन भी छात्रों से ही कराते हैं। अपनी ओर से ये मात्र अर्थ भर स्पष्ट कर देते हैं। य्ह प्रणाली पुस्तकीय ज्ञान तक ही सीमित रह जाती है। जिसके कारण इसकी गुणवत्ता पर आज प्रश्नचिन्ह लग चुका है। नाटय तत्वों के ज्ञान से दूर यह प्राणाली छात्रों के व्यक्तित्व विकास में कोई सार्थक भूमिका भी नही निभाती है। साथ ही मनोरंजन से दूर, एकरस, सामान्य पाठतक ही सीमित रह जाती यह इस प्रणाली की सबसे बडी कमी है। जिसकी आज के समय में बदले जानें की आवयश्कता है।



2. रंगमंचीय एंव अभिनेय प्रणाली : यह नाटय शिक्षण की सबसे महत्वपूर्ण प्रणाली है। जिसे मंच पर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। यही इसका सबसे सार्थक एंव महत्वपूर्ण पक्ष भी है जो इसे अन्य विधाओं से अलग भी करता है। नाटक की सार्थकता तथा मौलिक अस्तित्व तो अभिनय में ही है। इससे यह स्पष्ट होता है कि नाटक-शिक्षक की सर्वोत्तम प्रणाली है रंगमंच पर उसका वास्तविक प्रदर्शन, प्रस्तुतिकरण में है। यही कारण है कि इस प्रणाली को 'रंगमंचीय एवं अभिनेय प्रणाली' भी कहते हैं। इस प्रणाली में छात्रों को वास्तविक अनुभव प्राप्त होता है। वे सक्रिय होकर कथोपकथन याद करते हैं, उच्चारण शुद्ध करते हैं, भावपूर्ण ढंग से बोलना सीखते तथा उसका अभ्यास करते हैं और इस प्रकार नाटक के संदेश को आत्मसात् भी करते हैं। किंतु, इस प्रणाली में सभी छात्रों को नाटक में भाग लेने का अवसर नहीं मिल पाता। साथ-साथ यह प्रणाली समय, श्रम एवं व्ययसाध्य है। इन दोषों के होते हुए भी यह प्रयोग अथवा रंगमंच-अभिनय-प्रणाली नाटक शिक्षण की सर्वोत्तम प्रणाली है।



3. कक्षाभिनय प्रणाली : कक्षाभिनय प्रणाली में शिक्षण के निर्देशन में छात्र विभिन्न पात्रों के रूप में कक्षा में अभिनय करते हैं। इसमें न तो रंगमंच का निर्माण होता है और न ही छात्रों को विभिन्न पात्रों के अनुरूप पोशाक ही पहनना पडता है। इसमें नाटक के विभिन्न पात्रों के रूप में कार्य करनेवाले छात्र वर्ग के सम्मुख अपने-अपने संवाद का भावपूर्ण ढंग से पाठ करते हैं। हाँ, गीत वगैरह का भावपूर्ण ढंग से पाठ भर कर दिया जाता, उसका गायन नहीं होता। कक्षा-अभ्यास-प्रणामी में वाद्य यंत्रों का भी प्रयोग नहीं किया जाता है। इस प्रणाली से शिक्षण में रंगमंच-प्रणाली के सभी गुण तो नहीं हैं, किंतु बहुत अंशों में यह उसके निकट है। इतना ही नहीं, इसमें समय, धन तथा श्रम तीनों की बचत होती है। उद्देश्यों की प्राप्ति में यह प्रणाली अत्यधिक कारगर है। इसमें छात्र में क्रियाशीलता, मनोरंजन तथा विषय का स्पष्टीकरण प्रत्यक्ष रूप से हो जाता है। यह प्रणाली प्रस्तुत स्थिति में सर्वाधिक उपयोगी तथा सफल है।



4. आदर्श नाट्य पाठ प्रणाली : यह प्रणाली पूरी तरह से शिक्षक की प्रतिभा पर आधारित है। इसमें सबसे अधिक शिक्षक की सक्रियता एंव भागीदारी होती है। इसमें शिक्षक ही कक्षा के समक्ष आंगिक एवं वाचिक अभिनय करते हुए, नाटक की बारीकियों को बताता और दिखाता है। भावाभिनय और संवाद के माध्यम से हाव-भाव को दर्शाता है। इससे छात्रों को पात्र के चरित्र का स्पष्ट आभास हो जाता है। जिससे छात्रों को भाव ग्रहण करने में कोई कठिनाई नहीं होती। यह प्रणाली नाटक शिक्षण की सबसे महत्वपूर्णॅ प्रणाली है। इसमें धन, श्रम तथा समय का अधिक व्यय नहीं होता। पाठ शिक्षा की दृष्टि से यह प्रणाली प्रभावकारी अवश्य है। हाँ, छात्रों की इसमें कोई सीधी भागीदारी नहीं हो पाती है। इस प्रणाली में छात्र मात्र श्रोता एवं दर्शक बनकर रह जाता हैं। इसके अतिरिक्त पठित नाटक के तत्वों की व्याख्या भी इस प्रणाली द्वारा होना असंभव है। इन दोषों के होते हुए भी यह प्रणाली अच्छी और मितव्ययी है। जिससे कक्षा में लागू करना आसान है।



5. व्याख्यात्मक अथवा समीक्षात्मक प्रणाली : यह प्रणाली नाटक को उच्च श्रेणी में शिक्षण करते समय प्रयोग में लाई जाती है। इसमें नाटक के सभी तत्वों यथा भाषा, शैली, चरित्र, कथोपकथन, कथा, पात्र आदि की समीक्षात्मक व्याख्या प्रस्तुत की जाती है। व्याख्या का माध्यम कथन तथा प्रश्नोत्तर होते हैं। इस प्रणाली में पठित नाटक के गुण-दोषों की विवेचना प्रस्तुत की जाती है। यह कार्य शिक्षक ही मुख्य रूप से करता है। तुलना, दृष्टांत एवं आचार्य- मान्याताओं द्वारा शिक्षक अपनी समीक्षा को पुष्ट बनाता है। इस विधि से छात्रों में गुण-दोष विवेचना की शक्ति का विकास होता है, किंतु अन्य सभी उद्देश्य गौण पड जाते हैं। यदि छात्रों को ज्यादा मौका दिया जाय तो उच्च शिक्षा में यह प्रणाली सर्वाधिक उपयोगी तथा प्रभावकारी हो सकती है।



4. महत्त्व एवं उपयोगिता: साहित्य की किसी भी प्रणाली की सार्थकता तभी है जब वह अपने महत्व एंव उपयोगिता सिदध् करे। नाटक इस रूप में घटना को हमारी कल्पना से निकाल कर मंच पर साकार करती है। जिसके विभिन्न आयाम इस प्रकार् हैं।



1.कविता के चरमोत्कर्ष की भाषा – नाटक की प्रस्तुति में कविता की भाषा अपने पूरे उत्कर्ष को प्राप्त करती है।है। काव्य में वर्णित दृश्य या मानसिक अवस्था को कल्पना में रुपाकार किया जाता है। इसके विपरीत नाट्क में वर्णित दृश्य अथवा स्थिति को रंगमंच पर प्रत्यक्ष देखकर देखकर आनंद प्राप्त किया जा सकता है। इस आनंद को 'चिन्मय आनंद' 'ब्रह्मानन्द सहोदर' की संज्ञा दी गई है। जिसका रसास्वादन एक ही माध्यम के दवारा किया जा सकता है।



2. अनेकानेक रुचियों की संतुष्टि का माध्यम: – नाटक एक ऐसा साहित्यिक साधन है जिसके द्वारा मानव की विभिन्न रुचियों की संतुष्टि होती है। भरत से लेकर वर्तमान काव्य शास्त्रीयों तक सभी ने इसकी पुष्टि की है। जिसका तात्पर्य है “ऐसा कोई ज्ञान, योग, विद्या, कला अथवा शिल्प नहीं है, जिसे नाटक के माध्यम से प्रस्तुत न किया जा सके। नाटक में कहीं धर्म, कहीं क्रीडा अर्थ, कहीं श्रम, कहीं हँसी, कहीं रुदन, कहीं काम तथा श्रृंगार के बहुरंगी फव्वारे छूटते रहते है।। वीर-रस तथा रुद्र-रस का निर्झर भी अपने पूर्ण वर्ग के साथ प्रवाहित होता है इसमें। अतः यह स्पष्ट है कि नाट्क मानव की विभिन्न रुचियों की संतुष्टि का साधन है, माध्यम है।



3. यथार्थ की पृष्ठभूमि पर मानव- मन की साकार प्रस्तुति: – नाटक में कल्पना के स्थान पर वास्तविकता अधिक होता है। यही कारण है कि नाटक जीवन के अधिक निकट होता है। सच तो यह है जीवन को रूपायित करने का सबसे सटीक माध्यम है नाटक। मानव मन की ऐसी कल्पनाओं को जो एक ही जीवन में सम्भव नही हो सकती, मंच पर देखकर या उसे चरित्र को
निभा कर व्यक्ति अपनी उस इच्छा को पूरा कर सकता है। विशेष कर



4. नाटक गद्य, पद्य का मिश्रित रूप है: – नाटक की रचना गद्य, पद्य के मिश्रित रूप में ही सम्भव है। भरत नें 'नान्दी पाठ' से जिस परम्परा की नींव डाली वो आज भी भारतीय नाटय में किसी न किसी रूप में मौजूद है। भाष्य, भवभूति तथा कालिदास जैसे महान् नाटककारों ने अपने नाटकों की रचना पद्य में की है। भारतेन्दु, प्रसाद, हरिकृण प्रेमी, सेठ गोविंद दास, राजकुमार वर्मा ने अपने नाटक मुख्य रूप से गद्य में लिखे हैं। उन्हें मिश्रित भी इस अर्थ में कहा जा सकता है कि उनमें गीतों का भी अपना महत्वपूर्ण स्थान है। जो सम्प्रेषण और प्रभांवान्विति को बढाते ही हैं।, प्रसाद के चन्द्र्गुप्त का यह “अरूण यह मधुमय देश हमारा, जहाँ पहुँच अंजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।” नाट्क में एक सन्देश तो प्रेषित करता ही है। साथ ही कविता के उच्च धरातल को भी व्यंजित करता है। इस तरह के गीतों एक पूरी परम्परा है हिन्दी नाटकों में जो रसास्वादन ही नही करवाती उसकी परस्परता को अन्य विषयों से बराबर जोडती है।



5. सर्वजन हिताय तथा सर्वजन बहुताय से परिपूर्ण: - नाटक में लोकरंजन के साथ ही समाज के लोकहित की भावना प्रमुख होती है। इससे दर्शकों तथा पाठकों का स्वस्थ मनोरंजन का उददेश्य तो होता ही है, उससे शिक्षा तथा प्रेरणा भी मिलती है। नान्दी पाठ से लेकर उददेश्य प्राप्ति तक इसी भाव को लेकर नाट्क चलता है। भरत मुनि के शब्दों में नाटक के इस महत्त्व
को और भी स्पष्ट किया जा सकता है –
'हितोपदेश जननम् नाट्य्मेतद् भविष्यति।
विनोदकरणम् लोके नाट्यमेतद् भविष्यति॥'
यह अवश्य है कि भारतेन्दु से लेकर प्रसाद, तथा मोहन राकेश से लेकर वर्तमान नाट्य लेखकों नें पूर्व व पाश्चात्य नाटय तत्वों के समंवय से त्रासदी का समावेश किया। लेकिन वह भी जीवन के आवश्यक अंग के रूप में ही आया है। जो आज के परिवेश में कही अधिक व्यंजनापूर्ण है।



6. सामान्यजन की भाषिक अभिव्यक्ति: – नाटक जन सामान्य की भावनाओं की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है। रंगमंच पर प्रस्तुत किए जाने पर ही नाटक जीवंत व सप्राण हो पाता है। कथोपकथन को वास्तविक रूप में उपस्थित किए जाने पर दर्शक उन्हें ग्रहण करते हैं। रंगमंच पर नाटक की दुरुहता समाप्त हो जाती है। सम्वादों का संबध जीवन की से जुडा होता है संवाद नाट्क का प्राण होता है। जो उसे दर्शक से सीधा जोडता है। “अधिकार सुख कितना मादक होता है।” सीधा मन में उतरता चला जाता है। इस स्ंवाद से जो दर्शक बंधता है। अंत तक बैठा रह जाता है।



7. शिक्षण का प्रभावकारी माध्यम – मनौवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि श्रव्य-दृश्य माध्यम के शिक्षण को सर्वोत्तम रूप से प्रभावकारी बनाया जा सकता है। नाटक एक जीवंत श्रव्य-दृश्य उपादान है। इस महत्त्व को आधुनिक शिक्षा शास्त्रियों ने भी स्वीकार किया है। 


वर्तमान शिक्षण-कार्यों में इसके प्रयोग ने संभावनाओं के नये दवार भी खोलें है। इसकी महत्ता इसी से सिदध हो जाती है कि अब सभी विषयों को नाटक के माध्यम से पढाया जाय। जो थोडी-बहुत परेशानी तकनीकी उपकरणों की वजह से होती है उसे जल्द दूर किया जाये। इस दिशा में निरंतर प्रयास भी किये जा रहें हैं।
आचरण तथा व्यवहार की शिक्षा नाटक के माध्यम से सर्वोत्तम ढंग से दी जा सकती है। मिथक, पुराण और इतिहास की शिक्षा तो नाटक के माध्यम से जीवंत तथा साकार हो जाती है। दूरदर्शन पर तो इस तरह के प्रयोग को आत्मसात करके बहुत समय से दूरस्थ-शिक्षा का पाठयक्रम चला करके दूर- दराज के क्षेत्रों को इससे जोडने का अभियान चल रहा है। इस दिशा में भारतेंदु, प्रसाद, और हरिकृष्ण प्रेमी, मोहन राकेश, लक्ष्मी नारायण, गिरीश कर्नाड, साहनी तथा सुरेन्द्र वर्मा के अतिरिक्त अन्य नाट्ककारों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिनके नाटकों का यथा स्थान प्रयोग किया जा सकता है।


प्रशिक्षण एंव समाधान:-



- ऐसे प्रशिक्षकों की नियुक्ति जो कि नाटक की बारिकियों के साथ उनके शिक्षण में भी सिदध - हस्त हो।



- प्रत्येक कॉलेज व विश्व विदयालय में रंगमंचीय आवश्यकताओं के अनुसार मंच की व्यवस्था। - सीखनें की प्रक्रिया का धैर्य व विश्वास अर्जन।



- रंगमंचीय उपकरणों और वेशभूषा, परिधान व प्रकाश- योजना की समुचित व्यवस्था।



-लोक कलाओं एंव मानवीय अभिरूचियों को समंवित करने की कला का उचित प्रशिक्षण।



-अब तक के नाट्य प्रयोगों का सम्यक ज्ञान व जानकारी।



- इस कार्य को एक अभियान बनाने के लिए यह जरूरी है कि इस विधा को पढने-पढानें वालों को प्रशिक्षित करनें के लिए समय-समय पर कार्यशाला आयोजित की जाय।



- कक्षा में दृश्यों को दिखानें के लिए प्रयुक्त तकनीकी उपकरणों को चालानें की व्यवस्था के लिए विदयार्थी तथा अध्यापक को उचित प्रशिक्षण मिले।



-प्रशिक्षण के उपरांत रोजगार की संभावनाओं की तलाश हो। साथ ही उसमें मानदेय की भी उचित व्यवस्था हो। 'कैम्पस पैनल सलेक्शन' आदि की समुचित व्यवस्था ।



- इसे रोजगारपरक बनाने के लिये सरकारी संस्थानों, कॉरपरेट घरानो, व प्राईवेट सेक्टर से जोडा जाय। जिसका फायदा उन्हे भी होगा जो काम के तनाव, भाग –दौड से थके अपने कर्मचारियों की कार्य क्षमता को बढानें के लिए कई तरह के आयोजन करतें है।



-समाज के उन सभी वर्गों को भी जोडा जा सकता है जो रोटी-रोजी के लिए बिना प्रशिक्षण के भी क्षेत्रीय लोक नाटकों जीवित रखे हुए है। कम संसाधनों के साथ ही घुमंतु के रूप में इसे अपना व्यसाय बनाये हुए है। जो बहुत ही थोडे प्रयास से अपना अमूल्य योगदान दे सकतें हैं।



- उन सभी छात्रों को सबसे पहले लिया जाय जिनकी अभिरुचि तकनीक और मंच को लेकर कुछ नया व सार्थक करने की हो।



-समाज में बहुत से ऐसे बच्चे, बडे लोग आज भी मिल जायेंगे जिनमें प्रतिभा की कमी नही हैं, किंतु सही समय पर पैसा, मौका, शिक्षा का अभाव, अथवा जानकारी का न होना उन्हें इस तरह के कलात्मक, सृजनात्मक कार्यों से वंचित कर देता है। ऐसे लोगो को इस तरह के कार्यों से जोड कर उन्हें व समाज को एक नयी दिशा दी सकती है।



समस्याएं: -


-धन का अभाव


-कौशल का अभाव



-समय का अभाव



- अभ्यास के लिए स्थान का अभाव



-विदयार्थियों की अभिरुचि के अनुरूप विषय रूपांतरण की समस्याएं लगन व परिश्रम की उपेक्षा (विशेष कर लोक नाटकों के सन्दर्भ में)।



-रोजगार की संभावनाओं को बाजार से जोडना आवश्यक।



कुल मिला कर कहा जा सकता है कि ऑनलाईन पाठ सामग्री संकलन, शिक्षण व प्रशिक्षण आदि नई विधा और अनुशासन है। जिसके लिए समय व धैर्य दोनों की आवश्यकता है। इस दिशा में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा से सबन्धित सभी केंद्र, जीवन पर्यंन्त शिक्षण संस्थान दिल्ली विश्वविदयालय, तथा अन्य संस्थानों की पहल एंव प्रयास सराहनीय है



सहायक ग्रंथ:


1. मानक हिन्दी शिक्षण: डॉ. हरिवंश तरूण - प्रकाशन संस्थान नयी दिल्ली -2



2. हिन्दी सिदधांत और व्यवहार :प्रो. गीता शर्मा – श्री हरिअंग प्रकाशन मेरठ(उ.प्र.)



डॉ. चन्द्रकला
दयाल सिंह क़ॉलेज(प्रातः)
लोधी रोड दि.03


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