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कला का स्वाभाव और उद्देश्य


अज्ञेय


 


एक बार एक मित्र ने अचानक मुझसे प्रश्‍न किया- '‍कला क्‍या है?'


मैं किसी बड़े प्रश्‍न के लिए तैयार न था। होता भी, तो भी इस प्रश्‍न को सुनकर कुछ देर सोचना स्‍वाभाविक होता। इसीलिए जब मैंने प्रश्‍न के समाप्‍त होते-न-होते अपने को उत्तर देते पाया, तब मैं स्‍वयं कुछ चौंक गया। मुझे अच्‍छा भी लगा कि मैं इतनी आसानी से इस युग युगांतर के मसले पर फतवा दे गया।


पीछे लाज आई। तब बैठकर सोचने लगा, क्‍या मैंने ठीक कहा था?


क्रमश: सोचना आरंभ किया, कला के विषय में जो कुछ एक अस्‍पष्‍ट और अर्धचेतन विचार अथवा धारणाऍं मेरे मन में थी, जिनसे मैं अनजाने ही शासित होता रहा था और कला संबंधी विवादों के वातावरण में रहकर भी आवश्‍वस्‍त भाव से कार्य कर सका था, वे विचार और धारणाएँ चेतन मन के तल पर आईं, एकाधिक कोणों से जाँची गईं। आज मैं दुबारा उस दिन कही हुई बात को कह सकता हूँ- कुछ हिचक के साथ, लेकिन फिर भी अनावश्‍वस्‍त भाव से नहीं। कुछ इस भावना से कि यह एक प्रयोगात्‍मक स्‍थापना है-संपूर्ण सत्‍य इसमें नहीं होगा, लेकिन इसकी अवधारणा सत्‍य के अन्‍वेषण और पर्यवेक्षण पर हुई है, अत: उसकी असंपूर्णता भी वैज्ञानिक है।


पहले सूत्र, फिर व्‍याख्‍या यह भारत की शास्‍त्रीय प्रणाली है। इसी के अनुकूल चलते हुए पहले सूत्र रूप से अपनी स्‍थापना उपस्थित की जाए। परिभाषा वह नहीं है, लेकिन परिभाषा उसमें निहित है, और व्‍याख्‍या में लक्ष्‍य हो सकेगी।


कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्‍न अपर्याप्‍तता के विरुद्ध विद्रोह है।


इस स्‍थापना की परीक्षा करने के पहले कल्‍पना के आकाश में एक उड़ान भरी जाए। आइए, हम उस अवस्‍था की परिकल्‍पना करने का यत्‍न करें जिसमें पहली पहली कलात्‍मक चेष्‍टा हुई- जिसमें कला का जन्‍म हुआ।


काव्‍य कला के बारे में आपने वाल्‍मीकि की कथा सुनी है क्रॉंच वध से फूटे हुए कविता के अजस्‍त्र निर्झर की बात आप अवश्‍य जानते हैं। वह कहानी सुंदर है, और उसके द्वारा कविता के स्‍वभाव की ओर जो संकेत होता है - कि कविता मानव की आत्‍मा के आर्त्त चीत्‍कार का सार्थक रूप है उसकी कई व्‍याख्‍याऍं की जा सकतीं और की गई हैं। लेकिन हम इसे एक सुंदर कल्‍पना से अधिक कुछ नहीं मानते। बल्कि हम कहेंगे कि हम इससे अधिक कुछ मानना चाहते ही नहीं। क्‍योंकि हम यह नहीं मानना चाहते कि कविता ने प्रकट होने के लिए इतनी देर तक प्रतीक्षा की। वाल्‍मीकि का रामचंद्र का काल, और आयोध्‍या जैसी नगरी का काल, भारतीय संस्‍कृति के चरमोत्‍कर्ष का काल चाहे न भी रहा हो, यह स्‍पष्‍ट है कि संस्‍कृति की एक पर्याप्‍त विकसित अवस्‍था का काल था, और हम यह नहीं मान सकते - नहीं मानना चाहते कि मौलिक ललित कलाओं में से कोई एक भी ऐसी थी जो इतने समय तक प्रकट हुए बिना ही रह गई थी।


अतएव हम जिस अवस्‍था की कल्‍पना करना चाहते हैं, वह वाल्‍मीकि से बहुत पहले की अवस्‍था है। वैज्ञानिक मुहावरे की शरण लेकर कहें कि वह नागरिक सभ्‍यता से पहले की अवस्‍था होनी चाहिए, वह खेतिहर सभ्‍यता से और चरवाहा (Nomadic) सभ्‍यता से भी पहले की अवस्‍था होनी चाहिए वह अवस्‍था जब मानव करारों में कंदराऍं खोदकर रहता था, घास-पात या कभी पत्‍थर या ताँबे के फरसों से आखेट करके मांस खाता था।


उस समय के मानव समाज (उस प्रकार के यूथ को 'समाज' कहना हास्‍यास्‍पद ल्रग सकता है, लेकिन 'समाज' का मूल रूप यही विस्‍तारित कुटुंब रहा होगा) की कल्‍पना कीलिए और कल्‍पना कीजिए उस समाज के एक ऐसे प्राणी की, जो युवावस्‍था में ही किसी कारण सरदी खा जाने से, या पेड़ पर से गिर जाने से, या आखेटक में चोट लग जाने से किसी तरह कमजोर हो गया है।


समाज के प्रत्‍येक व्‍यक्ति का समाज के प्रति कुछ दायित्‍व होता है। समाज जितना ही कम विकसित हो, उतना ही वह दायित्‍व अधिक स्‍पष्‍ट और अनिवार्य होता है- अविकसित समाज में विकल्‍प की गुंजाइश कम रहती है। इसी बात को यों भी कहा जा सकता है कि समाज में प्रत्‍येक व्‍यक्ति का एक निश्चित धर्म (Function) होता है, और जितना ही समाज अविकसित होता है, उतना ही वह धर्म रूढ़ और अनिवार्य। इसलिए, जहाँ आज के समाज में व्‍यक्ति स्‍कूल भी जा सकता है और बाजार या नाचघर या खेत पर भी, वहाँ हमारी कल्पित अवस्‍था में नित्‍यप्रति समाज के सभी सदस्‍य सबसे पहले अपने-अपने अस्‍त्र लेकर खाद्य सामग्री की खोज में निकलते होंगे। फिर वे आवश्‍यकतानुसार खोह बनाते या साफ करते होंगे, इत्‍यादि। इस धर्म में रुचि वैचित्र्य के कारण कोई अदल-बदल भी हो सकता है, यह उनकी कल्‍पना के बाहर की बात होगी।


स्‍पष्‍ट है कि हमने जिस 'किसी कारण कमजोर' व्‍यक्ति की कल्‍पना की है, वह अपने समाज का यह धर्म निभा न सकता होगा। अतएव सामाजिक दृष्टि से उसका अस्तित्‍व अर्थ हीन होता होगा। कौट्रंबिक स्‍नेह, मोह या ऐक्‍य भावना के कारण कोई उस व्‍यक्ति को कुछ कहता न भी हो, तो भी मूक करुणा का भाव, और उसके पीछे छिपा हुआ उस व्‍यक्ति के जीवन की व्‍यर्थता का ज्ञान, समाज के प्रत्‍येक सदस्‍य के मन में होता ही होगा।


और क्‍या स्‍वयं उस व्‍यक्ति को इसका तीखा अनुभव न होता होगा? क्‍या बिना बताए भी वह इस बोध से तड़पता न होगा कि वह अपात्र है, किसी तरह घटिया है, क्षुद्र है? क्‍या उसका मुँह इससे छोटा न होता होगा और इस अकिंचनता के प्रति विद्रोह न करता होगा?


यहाँ तक उसकी अनुभूति की बात है, और आशा की जा सकती है कि आपको यह कल्‍पना अग्राह्या नहीं होगी। अब तनिक सोचा जाए कि यह अनुभूति उसे प्रेरणा क्‍या देगी किस कार्य की मूल प्रेरणा बनेगी।


यह कहना कठिन है कि इस अपर्याप्‍तता के ज्ञान से एक ही प्रकार की प्रेरणा मिल सकती है। यह वास्‍तव में व्‍यक्ति के आत्‍मबल पर निर्भर करता है कि उसमें क्‍या प्रतिक्रिया होती है। वह आत्‍महत्‍या भी कर सकता है और शत्रु से लड़ने जाने का विराट् प्रयत्‍न भी कर सकता है। लेकिन सब संभाव्‍य प्रतिक्रियाओं की जाँच यहाँ अप्रासंगिक होगी। हम ऐसे ही व्‍यक्ति को सामने रखें, जिसमें इतना आत्‍मबल है कि इस ज्ञान की प्रतिक्रिया रचनात्‍मक (Positive) हो, न कि आत्‍म नाशक।


ऐसे व्‍यक्ति के अहं का विद्रोह अनिवार्य रूप से सिद्धि की सार्थकता के Justification की खोज करेगा। वह चलेगा कि यदि वह समाज का साधारण धर्म निबाहने में असमर्थ है, तो वह विशेष धर्म की सृष्टि करे, यदि समाज के रूढ़िगत जीवन के अनुरूप नहीं चल सकता है तो उस जीवन को ही एक नया अवयव दे जिसके ताल पर वह चले।


यह चाहना शायद चेतन नहीं होगी, तर्कना द्वारा सिद्धि करके नहीं पाई गई होगी। सिद्धि की इच्‍छा अहं का तर्क द्वारा निर्धारित किया हुआ धर्म नहीं है, वह उसका मौलिक स्‍वभाव है। अतएव यह चाहना तर्कना के तल पर न आने से भी कमजोर नहीं हुई होगी, बल्कि अधिक दुर्निवार ही होगी-वैसे ही जैसे समुद्र की सतह की छालियों से कहीं अधिक दुर्निवार प्रवाह नीचे की धाराओं (Currents) में होता है।


तो इस चाहना द्वारा अज्ञात-रूप से प्रेरित होकर-वैसे ही, जैसे कस्‍तूरी मृ्ग अपने ही गंध द्वारा उन्‍मादित होता है व्‍यक्ति क्‍या करेगा? अपना-अपना धर्म संपादित करते हुए व्‍यक्तियों से घिरे हुए अपर्याप्‍तता के बोध के उस निविड़ अकेलेपन में, वह किस तरह अपने मर्म की रक्षा करता होगा?


हमारी कल्‍पना देखती है कि जब उस समाज के समर्थ और बलिष्‍ठ अहेरी अपने-अपने अस्‍त्र सँभालते हैं, तब वे पाते हैं, उनके अस्‍त्रों के हत्‍थों पर शिकार की मूर्तियाँ खुदी हुई हैं, जिनमें अपनी सामर्थ्‍य का प्रतिबिंब देखकर उनकी छाती फूल उठती है, कि जब वे दल बॉंधकर खोहों से बाहर निकलते हैं, तब शिकार रणनाद और घमासान के तुमुल स्‍वर न जाने कैसे एक ही कंठ के आलाप में रणरंगित हो उठते हैं, कि जब वे लदे हुए कंधों पर थके और श्रमसिंचित मुँह लटकाए खोहों की ओर लौटते हैं तब पाते हैं कि खोहों का मार्ग पत्‍थर की बुकनी से आँकी गई फूल पत्तियों से सजा हुआ है, कि जब वे दांपत्‍य जीवन की द्विगुणित एकांतता में प्रवेश करते हैं तब सहसा पाते हैं कि उस जीवन की चरमावस्‍था सहचरी के वक्ष पर किसी फल के रस से गोद दी गई है।


तब वे विस्‍मय से भरकर कहते है, 'अमुक है तो विचारा, लेकिन उसके हाथ में हुनर है।'


हमारे कल्पित 'कमजोर' प्राणी ने हमारे कल्पित समाज के जीवन में भाग लेना कठिन पाकर, अपनी अनुपयोगिता की अनुभूति से आहत होकर, अपने विद्रोह द्वारा उस जीवन का क्षेत्र विकसित कर दिया है उसे एक नई उपयोगिता सिखाई है- सौंदर्य बोध। पहला कलाकार ऐसा ही प्राणी रहा होगा, पहली कलाचेष्‍टा ऐसा ही विद्रोह रही होगी, फिर चाहे वह रेखाओं द्वारा प्रकट हुआ हो, चाहे वाणी द्वारा, चाहे ताल द्वारा, चाहे मिट्टी के लोंदों द्वारा।


कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्‍न अपर्याप्‍तता के विरुद्ध विद्रोह है।


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यहाँ पाठक कह सकता है, कल्‍पना तो अच्‍छी है, लेकिन जो स्‍थापना उसके सहारे की गई है वह कोई निश्चित अर्थ नहीं रखती। क्‍योंकि 'समाज से क्‍या मतलब? और अपर्याप्‍तता का क्‍या अभिप्राय? मान लीजिए कि व्‍यक्ति रहता ही है अकेला, उसके आस-पास कोई और व्‍यक्ति या व्‍यक्तियों का समुदाय है ही नहीं, तब क्‍या वह कलाकार हो ही नहीं सकता? और आधुनिक युग में, जब समाज का संगठन ऐसा है कि 'कमजोर' व्‍यक्ति भी पद या धन की सत्ता के कारण समर्थ हो सकता है, तब अपर्याप्‍तता का अनुभव कैसा?


'समाज' से अभिप्राय है वह परिवृत्ति जिसके साथ व्‍यक्ति किसी प्रकार अपनापा महसूस करे। वह मानव समाज का एक अंश भी हो सकती है, और मानव समाज की परिधि से बाहर बढ़कर पशु पक्षिओं (जीव मात्र) को भी घेर सकती है, बल्कि (चरमावस्‍था में) मानव'समाज को छोड़कर पशु पक्षियों और पेड़ पत्तों तक ही रह जा सकती है। समाज की इयत्ता अंततोगत्‍वा समाजत्‍व की भावना पर ही आश्रित है। यदि किसी कारण हम अपनी परिवृत्ति से सामाजिक संबंध नहीं महसूस करते तो वह हमारा समाज नहीं है, यदि किसी दूसरी परिवृत्ति से वैसा संबंध मानते हैं, तो वह हमारा समाज है। इस संबंध की अनुभूति के कारणों का विश्‍लेषण यहाँ प्रासंगिक नहीं है।


'अपर्याप्‍तता' का आधुनिक अर्थ भी इसी प्रकार समझना चाहिए। यदि कोई व्‍यक्ति धन की, या पद की, या किसी दूसरी सत्ता के कारण अपने को अपने अहं के सामने प्रमाणित कर लेता है, तो अपर्याप्‍तता की भावना उसमें नहीं होगी, न उसके विरुद्ध विद्रोह करने की ललकार ही उसे मिलेगी। अंतत: कंदरावासी कलाकार और आधुनि कलाकार में कोई विशेष भेद नहीं रहता दोनों ही में एक अपर्याप्‍तता चीत्‍कार करती है। यह अनिवार्य नहीं है कि उसके ज्ञान से सदा कला वस्‍तु ही उत्‍पन्‍न हो, वह परास्‍त भी कर सकती है परंतु उससे हमारी यह स्‍थापना झूठी नहीं होती कि प्रत्‍येक कला-चेष्‍टा की जड़ में एक अपर्याप्‍तता की भावना काम कर रही होती है।


पाठक की इन प्रारंभिक शंकाओं के शांत हो जाने पर अन्‍य शंकाएँ खड़ी होंगी पाठक के मन में नहीं तो स्‍वयं कलाकार के मन में। हमारा साहित्‍यकार शायद जोर-शोर से इस स्‍थापना का खंडन करेगा, क्‍योंकि इससे उसकी 'कमजोरी', उसकी अपूर्णता अथवा हीनता ध्‍वनित होती समझी जा सकती है। लेकिन इसे इस दृष्टि से देखना उसकी भूल होगी। एक तो इसलिए कि यह वास्‍तविक अपूर्णता नहीं, यह एक विशेष दिशा में असमर्थता है। समाज का साधारण जीवन जिस दिशा में जाता है, जिन लीकों में चलता है, उन दिशाओं और उन लीकों में चलने की असमर्थता तो इससे ध्‍वनित होती ही है, लेकिन क्‍या यही वास्‍तव में अपूर्णता या हीनता (Inferiority) है? नहीं। समाज के साधारण जीवन में अपना स्‍थान न पाकर तो वह प्रेरित होता है कि वह स्‍थान बनाए, अतएव पुरानी लीकों पर चलने की असामर्थ्‍य ही नई लीकें बनाने की सामर्थ्‍य की प्रोत्‍साहन देती हैं। दूसरे यह भी ध्‍यान में रखना चाहिए कि लेखकों में बल्कि साधारणतया कलाकार समुदाय में, जो एक विशेष प्रकार की असहिष्‍णुता, अहम्‍मन्‍यता, एक दुर्विनीत श्रेष्‍ठता की भावना दीखा करती है, वह भी एक आत्‍म रक्षा का कवच है किसी मौलिक अपूर्णता या अपर्याप्‍तता के ज्ञान को अपने अहं के आगे से हटा देने की चेष्‍टा है। जो पाठक या लेखक आधुनिक मनोविज्ञान की स्‍थापनाओं से परिचित हैं, वे जानेंगे कि इस प्रकार कि क्षतिपूरक क्रियाएं मानव जीवन में कितना महत्‍व रखती हैं। उपर्युक्‍त अवधारण एक प्रकार की कल्‍पना ही है। फिर भी वह उससे कुछ अधिक है। उससे हम एक स्‍थापना पर पहुँचते हैं और वह कला की परिभाषा न भी करे तो उसके स्‍वभाव की कुछ व्‍याख्‍या अवश्‍य करती है। लेकिन कोई भी व्‍याख्‍या सार्थक नहीं है, फलवती नहीं है यदि वह विषय को स्‍पष्‍ट करने के अतिरिक्‍त कुछ प्रदर्शन नहीं करती, निर्देश करती। क्‍या हमारी व्‍याख्‍या इस दृष्टि से कुछ अर्थ रखती है?


हमारा अनुमान है कि 'यदि कला कैसे उत्‍पन्‍न होती है? इस प्रश्‍न का हमारा दिया हुआ उत्तर ठीक है, तब 'कला किसलिए है?' इस प्रश्‍न का उत्तर भी इस में निहित होना चाहिए। क्षण-भर जाँच करके देखें, तो हम पाएँगे कि यह अनुमान गलत नहीं है, अर्थात इस कसौटी पर हमारी परिभाषा खरी उतरती है। करमै देवाय हविषा विधेम, का समुचित उत्तर हमें इस परिभाषा से मिल जाता है।


हमने कहा कि कला एक अपर्याप्‍तता की भावना के प्रति व्‍यक्ति का विद्रोह है। इसका अभिप्राय क्‍या है? कला संपूर्णता की ओर जाने का प्रयास है, व्‍यक्ति की अपने को सिद्ध प्रमाणित करने की चेष्‍टा है। अर्थात वह अंतत: एक प्रकार का आत्‍मदान है, जिसके द्वारा व्‍यक्ति का अहं अपने को अक्षुण्‍ण रखना चाहता है, सामाजिक उपादेयता यद्यपि भौतिक उपादेयता से श्रेष्‍ठ ढंग की उपादेयता का अनुभव करना चाहता है। अतएव अपनी सृष्टि के प्रति कलाकार में एक दायित्‍व भाव रहता है अपनी चेतना के गूढ़तम स्‍वर में वह स्‍वयं अपना आलोचक बनकर जाँचता रहता है कि जो उसके विद्रोह का फल है, जो समाज को उसकी देन है, वह क्‍या सचमुच इतना आत्‍यंतिक मूल्‍य रखती है कि उसे प्रमाणिक कर सके, सिद्धि दे सके? इस प्रकार कलावस्‍तु रचना का एक नैतिक मूल्‍यांकन निरंतर होता रहता है। इस क्रिया को हम यों भी कह सकते हैं कि 'सच्‍ची कला कभी भी अनैतिक नहीं हो सकती' और यों भी कह सकते हैं कि 'प्रत्‍येक शुद्ध कला चेष्‍टा में अनिवार्य रूप से एक नैतिक उद्देश्‍य निहित है' अथवा सच्‍ची कलावस्‍तु अंतत: एक नैतिक मान्‍यता (Ethical Value) पर आश्रित है, एक नैतिक मूल्‍य रखती है'। हाँ, यह ध्‍याल दिला देना आवश्‍यक होगा कि हम एक श्रेष्‍ठतर नीति (Ethic) की बात कह रहे हैं, निरी नैतिकता (Morality) की नहीं।


यह एक पक्ष है कि कला समाज के द्वारा समाज के इस या उस अंग के लिए नहीं है, पर उद्देश्‍यहीन सौंदर्योंपासना, निरा उच्‍छवास भी नहीं है, एक नैतिक उद्देश्‍य से अंत:सलिल है।


किंतु यह एक पक्ष ही है। दूसरा पक्ष भी एक है। ऊपर कहा गया कि कला एक प्रदान का आत्‍मदान है, जिसके द्वारा व्‍यक्ति का अहं अपने को सिद्ध प्रमाणित करना चाहता है। अगर इस वाक्‍य के पूर्वार्ध पर आग्रह था, अब उसके उत्तरार्थ पर विचार किया जाए। 'आत्‍मदान' अहं को ही पुष्‍ट करने के लिए है, क्‍योंकि अहं को छोटा करके व्‍यक्ति संपूर्ण नहीं रह सकता, बल्कि शायद जी भी नहीं सकता। इस प्रकार कलाकार का आत्‍मदान केवल एक नैतिक मान्‍यता के लिए ही नहीं होता, सच्‍चे अर्थ में 'स्‍वान्‍त: सुखाय' भी होता है, और वह सुख अपनी सिद्धि पा लेने का, समाज को उसके बीच रहे होने का प्रतिदान दे देने का सुख है। ' कला कला के लिए' झूठ नहीं है, वह अत्‍यंत सत्‍य है, लेकिन एक विशेष अर्थ में। यदि 'कला कला के लिए' का अर्थ है, निरे 'सौंदर्य' की खोज -किन्‍हीं विशेष सिद्धांतों के द्वारा एक रासायनिक सौंदर्य की उपलब्धि, तब वह कला और कलाकार को कोई भी सुख नहीं दे सकती- न आत्‍मदान का, न आत्‍मबोध का, वह कला बंध्‍या है।


कला के इस दुहरे उत्तरदायित्‍व को समझकर ही अपने कलाकार अपने और अपने समाज और यदि उसकी आत्‍मा इतनी विशाल है कि 'समाज' के अंतर्गत समूचे मौलिक जगत को खींच सकती है, तब वह अपने संसार के संबंध को फलप्रद बना सकता है, सिद्ध हो सकता है, अर्थात सच्‍चा कलाकार हो सकता है।


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