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कृषि में नीली-हरी काई का जैव-उर्वरक के रूप में उपयोग


डाॅ. मुकेश कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर, वनस्पतिविज्ञान विभाग,
साहू जैन काॅलेज, नजीबाबाद- 246763 उ.प्र.



भारत एक कृषि प्रधान देश है यहाँ की अधिकांश जनसंख्या का मुख्य भोजन चावल है। धान का उत्पादन करने वाले प्रदेशों में उत्तर प्रदेश का अग्रगण्य स्थान है। यहाँ लगभग 56.15 लाख हेक्टेयर भूमि पर धान का उत्पादन किया जाता है। परंतु औसत उपज मात्र 18.27 कुंतल प्रति हेक्टेयर ही है जबकि अन्य प्रदेशों जैसे पंजाब, तमिलनाडु एवं हरियाणा में औसत उपज क्रमशः 35.10, 30.92 एवं 27.34 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। उपज में बढोत्तरी के लिए उन्नत बीजों के साथ-साथ उर्वरकों की समुचित मात्रा की भी आवश्यकता होती है। रासायनिक उर्वरक आयातित पैट्रोलियम पदार्थों से बनते हैं जिसके कारण ऐसे उर्वरकों के दाम दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं और यह लघु एवं सीमांत कृषकों की क्रय क्षमता के बाहर होते जा रहे हैं। अतः ऐसे किसान धान की भरपूर उपज प्राप्त करने में असमर्थ रह जाते हैं। साथ ही दूसरा मुख्य कारण यह है कि पानी भरे धान के खेतों में डाली गई रासायनिक नत्रजन उर्वरक का मात्र 35 प्रतिशत भाग ही धान के नवोद्भिद उपयोग कर पाते हैं, शेष नत्रजन उर्वरक बेकार चला जाता है। इस परिस्थिति में नीली-हरी काई जैव-उर्वरक ;बीजीएद्ध का प्रयोग एक विकल्प ही नहीं अपितु वरदान है। नीली-हरी काई जैव-उर्वरक को 12.5 किग्रा./है. की मात्रा 30 किग्रा./नत्रजन प्रति हेक्टेयर देती है। जहाँ पर रासायनिक नत्रजन उर्वरकों का उपयोग आवश्यक मात्रा में संभव नहीं हो पाता, वहाँ शैवालीकरण द्वारा 25-30 किग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर का लाभ फसल को मिलता है। भूमि सुधार के लिए भी नीली-हरी काई जैव उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है। इनके प्रयोग से भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है तथा मिट्टी की भौतिक स्थिति में भी सुधार होता है। मिट्टी में नत्रजन तथा फास्फोरस की मात्रा में वृद्धि होने होती है। अम्लीय भूमि में लौहे आदि तत्वों की विषालुता कम होती है। कार्बनिक तत्वों की मात्रा में वृद्धि से मिट्टी की जल-धारण क्षमता में भी उल्लेखनीय वृद्धि होती है।
नीली-हरी काई मानव जाति के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। यह प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष दोनों ही रूप से हमारे लिए लाभकर हैं। नीली-हरी काई  का एक विशेष गुण है कि वे वातावरण की नत्रजन को नाइट्रेट में बदल देते हैं जिसका उपभोग पादप इनके जीवित रहते अथवा इनकी मृत्यु के पश्चात भूमि से प्राप्त कर लेते हैं। धान के खेतों में तो अलग से नत्रजन खाद देने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। इस प्रकार नीली-हरी काई की समुचित उपस्थिति के कारण किसान भाई काफी धन बचा पाते हैं। नीली-हरी काई जैव-उर्वरक कई दृष्टियों से उपयोगी हैं। यह रासायनिक खाद के मुकाबले कम कीमत पर उपलब्ध है। इनके प्रयोग से कोई प्रदूषण नहीं होता अतः यह पर्यावरण, भूमि की उपजाऊ शक्ति तथा मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए घातक नहीं हैं। रासायनिक उर्वरकों के लगातार प्रयोग से भूमि क्षारीय होकर ऊसर हो जाती है तथा इस मिट्टी में उगाए गए अनाजों में कई तत्वों की कमी हो जाती है। अतः इन अनाजों को खाद्य रूप में प्रयोग करने से हमारे शरीर में रोगों के प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। अतः विशेषज्ञ किसानों को जैव उर्वरकों का प्रयोग करने की सलाह देते हैं।
राजस्थान की सांभर लवण झील में एनाबीनाप्सिस तथा स्पाइरुलाइना जैसे शैवाल प्राकृतिक रूप में उगते हैं। वहाँ के किसान इन्हें खाद के रूप में प्रयोग करते हैं। यह काई मिट्टी की उर्वरता को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। उदाहरणार्थ इनके कोशिकाबाह्य उत्पाद मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्म जीवों के लिए कार्बन और नाइट्रोजन के स्रोत हैं। यह सूक्ष्मजीवी मिट्टी में आवश्यक तत्वों जैसे नत्रजन, सल्फर, फाॅस्फोरस आदि का अनुरक्षण करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ शैवालों के कोशिकाबाह्य उत्पाद अकार्बनिक तथा कार्बनिक आयनों को ऐसे रूपों में संचित करते हैं, जिन्हें पौधे सरलतापूर्वक उपयोग कर सकें। 
देश में हरित क्रांति के लिए खेती में अधिक निवेश और ऊर्जा का उपयोग सुझाया गया है, जिसमें उन्नत बीजों, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, सिंचाई, मशीनों आदि का उपयोग करना पड़ता है। परंतु हरित क्रांति ने पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव भी पैदा किया है। यह स्थिति भूमि, पानी और जैव-संसाधनों पर स्पष्टतः देखे जा सकते हैं। पानी के भराव और लवणीकरण के कारण भूमि उपजाऊ नहीं रही और फसल कटाई के बाद की हानियाँ भी चिंता का कारण है। इसलिए भारत भी जैविक खेती को बढ़ावा दे रहा है। कई राज्यों में 38 लाख  हैक्टेयर भूमि पर अधिक मूल्यवान फसलें ;जैसे मसाले, फल, सब्जियाँ, दूध आदिद्ध पैदा की जा रही हैं और मुर्गी पालन भी किया जा रहा है। इन उत्पादों की बाजार में 25-30 प्रतिशत अधिक कीमत मिलती है। पिछले एक वर्ष में भारत ने इन उत्पादों को अमेरिका, जापान तथा यूरोपीय देशों को निर्यात कर 780 करोड़ डाॅलर विदेशी मुद्रा अर्जित की है। आजकल कुछ देश ;अमेरिका, कनाड़ा, पौलेंड आदिद्ध रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बिना उगाए गए जैविक खाद्य पदार्थ को बढ़ावा दे रहे हैं। यह उत्पाद पौष्टिक होने के साथ-साथ अधिक स्वादिष्ट भी होते हैं। जैविक फल और सब्जियों में रासायनिक उर्वरकों से उगाई गई फल-सब्जियों की अपेक्षा 40 प्रतिशत अधिक एंटी-आॅक्सीडेंट विद्यमान होते हैं। वहाँ इन उत्पादों की गुणवत्ता एक एजेंसी से प्रमाणित कराने की आवश्यकता होती है।
जैविक खेती से पर्यावरण को कोई हानि नहीं होती है और यह भूमि की उर्वराशक्ति को भी बनाए रखती है। इनकी लागत अपेक्षाकृत कम होती है, जिससे गरीब किसानों की आमदनी बढ़ने लगी है और ग्रामीण गरीबी में कमी होने की आशा है। पंजाब में, जैविक खेती किसानों के लिए एक वरदान है, क्योंकि इसमें आने वाली कम लागत के कारण उन्हें कर्ज लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती और घरेलू गोबर की खाद के उपयोग से ही काम चल जाता है। केरल में उपजाऊ खेती के 20 प्रतिशत भाग पर जैविक खेती हो रही है और वहीं जैव-उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है। 
आज खेती में नत्रजन की खपत अधिक ;लगभग 100 किग्रा. प्रति हैक्टेयरद्ध होती है। नत्रजन की वर्तमान आवश्यकता कृत्रिम उर्वरकों से पूरी होती है। प्रति वर्ष इनका उपयोग अंधाधुंध बढ़ रहा है, साथ ही इसका एक बड़ा भाग आयात से पूरा किया जाता है। यह उर्वरक बहुत महँगे भी हैं। इनके उत्पादन में ऊर्जा भी अधिक लगती है। इसलिए ऊर्जा की कमी के समय से इस बात पर ध्यान दिया गया है कि वायुमंडल की नत्रजन को जैविक तरीके से सीधे ही उपयोग किया जाए। वर्तमान में भारतीय कृषि में 10,000 टन से ज्यादा जैव-उर्वरकों का उपयोग हो रहा है। सामान्य उपयोग में आ रहे जैव-उर्वरकों में राइजोबियम एजेटोबैक्टर नामक जीवाणुओं की प्रजातियाँ तथा नीली-हरी काई हैं। वैसे तो यह शैवाल भूमि में प्राकृतिक रूप से विद्यमान होते हैं किंतु जैव-उर्वरक के रूप में प्रयोग करने के लिए इन्हें संबंधित खेतों में अलग से भी डालने की आवश्यकता होती है ताकि इनकी संख्या में तेजी से वृद्धि हो सके। नीली-हरी काई सामान्यतः तालाबों और धान के खेतों के रुके हुए पानी की सतह पर उगती हैं। इनकी अच्छी किस्में अलग करके उन्हें बड़ी मात्रा में व्यापारिक स्तर पर उगाया जा रहा है ताकि अनेक फसलों में उपयोग किया जा सके। एजोस्पारिलम आधारित उर्वरक भी आजकल उपयोग किए जा रहे हैं। इन्होंने अच्छे परिणाम दिए हैं और भविष्य में और भी अच्छी संभावनाएं है। इनके उपयोग से अनाज की पैदावार में बढ़ोत्तरी होती है और 20-40 किग्रा. नत्रजन प्रति हैक्टेयर की बचत होती है। सहजीवी नत्रजन स्थिरीकरण पद्धति में जीवाश्म ईंधन के स्थान पर प्रकाश-संश्लेषण से प्राप्त ऊर्जा का उपयोग होता है। इस क्रम में वायुमंडल की नत्रजन अमोनिया में परिवर्तित की जाती है। इस कार्य में कुछ पौधों में उपस्थित जैविक उत्प्रेरक अथवा प्राकृतिक तौर पर भूमि में पाए जाने वाले जीवाणु और नीली-हरी काई सहायता करते हैं। जैविक तंत्र में विकरों के नियमन करने वाले जीवों के जीन पहचाने जा चुके हैं। साथ ही ऐसे प्रयास भी किए जा रहे हैं कि यह जीन दलहन फसलों में प्रवेश कर जाएं। गेहूँ जैसी महत्वपूर्ण फसलों में नीली-हरी काई से सहसंबंध बढ़ाकर नाइट्रोजन स्थिरीकरण शुरू करवाने में संसार भर के वैज्ञानिक दिलचस्पी ले रहे हैं। 
आजकल नीली-हरी काई को व्यापारिक स्तर पर उगाकर, सुखाकर, पैकिटों में जैव-उर्वरक की तरह बेचा जा रहा है। इसका वार्षिक उत्पादन लगभग 500 टन है। पांच प्रतिशत नील-हरित शैवाल युक्त मिट्टी जैव-उर्वरक के रूप में उपयोग की जाती है। यह मृदा में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में वृद्धि करती हैं जिससे मृदा की उर्वरता और भी बढ़ जाती है। नीली-हरी काई का अतिरिक्त लाभ यह है कि इसके उपयोग से लवणीय मृदाओं की लवणीयता का ह्रास होता है। धान की कृषि में यह विशेषतः लाभदायक है, क्योंकि वहाँ इसे अपनी सतत वृद्धि के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ मिलती हैं। इन शैवालों का गेहूँ के खेतों में उपयोग नहीं किया जा सकता है क्योंकि गेहूं की फसल के लिए अपेक्षाकृत कम पानी के आवश्यकता होती है। इसमें धान की तरह पानी को भरा नहीं रख सकते हैं। फिर भी इस जैव-उर्वरक का दोहन ;विशेषकर प्रतिकूल परिस्थितियों के लिएद्ध शैवालों की अनुकूल किस्म के विकास पर निर्भर करेगा। कृषि वैज्ञानिक इन कठिनाईयों को दूर करने के लिए लगातार अनुसंधान कर रहे हैं और कृषि का दूरगामी भविष्य इन प्रयासों की सफलता पर निर्भर करता है क्योंकि यह रसायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम करके पुनः प्रकृति पर निर्भर होकर आगे बढ़ना सिखाते हैं। 
संदर्भ
1. कुमार मुकेश 2002. बायोडायवर्सिटी आॅफ साइनोफाईसी आॅफ दी सब-हिमालयन बेल्ट, मेजर प्रोजेक्ट फाइनल रिपोर्ट, यू.जी.सी. नई दिल्ली 
2. ड्रीम-2047, विज्ञान प्रसार ;2017द्ध, कुतुब इंस्टिट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली। 
3. देसिकाचारी टी.वी. 1959. सायनोफाईटा, आई.सी.ए.आर., नई दिल्ली। 
4. सिंह आर.एन. 1961. रोल आॅफ ब्लू ग्रीन एल्गी इन दी नाइट्रोजन इकोनोमी आॅफ इंडियन एग्रीकल्चर, आई.सी.ए.आर., नई दिल्ली।
5. वनस्पतिविज्ञान शब्द-संग्रह, 1997. वैज्ञानिक तथा तकनीकी आयोग, नई दिल्ली।


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