Skip to main content

माखनलाल चतुर्वेदी : कठिन जीवन का सृजन-धर्म


डॉ. रजनी शर्मा



 'एक भारतीय आत्मा' माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म सन् 1889 में हुआ था। बाबई में जन्मे माखनलाल जी का जन्म का नाम मोहनलाल था। उनके पिता श्री नन्दलाल जी व्यवसाय से अध्यापक और स्वभाव से आधुनिक संस्कारों तथा सेवाभावी चरित्र के स्वामी थे। माखनलाल चतुर्वेदी को वैष्णव-संस्कार अपने पिता से ही प्राप्त हुए थे। माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन पर उनकी माता जी का बहुत प्रभाव पड़ा था। उन्होंने अपनी माँ के विषय में स्वयं लिखा है -''मेरे जीवन की कोमलतर घड़ियों का आधार मेरी माँ है। मेरे छोटे से ऊँचे उठने में भी, फूला न समाने वाला तथा मेरी वेदना में व्याकुल हो उठने वाला, उस जैसा कोई नहीं।''1  माखनलाल चतुर्वेदी की माँ ममता, वात्सल्य, साहस, त्याग और मानव सुलभ आदर्श गुणों की प्रतिमूर्ति थी। माखनलाल जी को अपने पिता के साथ ही अपनी माँ से संकल्प-शक्ति, अन्याय का विरोध करने की भावना, संघर्ष से प्रेम और विपरीत परिस्थितियों में अदम्य साहस जैसे गुण प्राप्त हुए थे।
 माखनलाल जी अपने प्रारम्भिक जीवन में बहुत ही नटखट प्रवृत्ति के थे। बालसुलभ नटखट स्वभाव के कारण उनके पड़ोसी भी परेशान रहते थे। इस कारण से उन्हें प्रायः ही घर और विद्यालय, दोनों स्थानों पर प्रताड़ित किया जाता था, परन्तु उनके नटखट स्वभाव में कभी भी कमी नहीं आती थी। कभी पड़ौसियों को परेशान करते तो कभी साथियों को और कभी-कभी तो विद्यालय के चपरासी तक को न छोड़ते थे। बाबई में जन्मे चतुर्वेदी जी अपने बाल्य काल में ही छिदगाँव चले गये थे। ''बाबई के बाद माखनलाल अपने पिता के साथ छिदगाँव चला गया। हरदा स्टेशन से 10 मील दूर होशंगाबाद की दिशा में यह एक गाँव है और इस नाम से रेलवे स्टेशन भी है।''2 छिदगाँव की निमग्नता ने माखनलाल को अत्यधिक प्रभावित किया और यहीं पर उनके बाल्य काल का अधिकांश समय व्यतीत हुआ, ''माखनलाल चतुर्वेदी का सम्पूर्ण बाल्य काल और अधिकांश जीवन होशंगाबाद जिले की रहस्यमयी निमग्नता में डूबा रहा है।''3
 माखनलाल जी को अपने प्रारम्भिक जीवन में प्रकृति का भी रमणीय रूप देखने का भरपूर अवसर प्राप्त हुआ, क्योंकि होशंगाबाद पर्वत शृंखलाओं से आवृत्त, नदियों की कल-कल ध्वनि से ओतप्रोत एवं सुरम्य जल धारा से आच्छादित सुन्दर भूभाग है। नर्मदा नदी की जल धारा ने तो उसे और भी धन्य कर दिया है। स्वयं चतुर्वेदी ही नहीं वरन् उनका सम्पूर्ण परिवार भी अपने गाँव बाबई में, जहाँ अपने विद्यादि गुणों के लिए प्रसिद्ध था, वहीं दूसरी ओर अपने दृढ़ संकल्पों के लिए भी जाना जाता था। ये सभी गुण चतुर्वेदी जी को भी विरासत में मिले थे इसलिए तो उनकी स्मरण-शक्ति अतुलनीय थी। उन्होंने स्वयं लिखा है -''हिन्दी की पहली क्लास की पाठ्य-पुस्तक के पाठ मुझे 69 वर्ष की उम्र में भी याद हैं।''4
 माखनलाल चतुर्वेदी जी की प्रारम्भिक शिक्षा उनके गाँव बाबई में ही हुई। पढ़ने में तीव्र बुदध् विद्यार्थी होने के साथ-साथ वे एक सफल अभिनयकर्ता भी थे। प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण हो जाने के पश्चात उन्हें पं0 बालभट्ट जी के पास संस्कृत का अध्ययन करने के लिए भेजा गया। कठोर स्वभाव के गुरु होने के कारण वे उनसे पढ़ने के लिए तैयार न थे। स्वभाव से विनम्र एवं कुशल शिक्षक उनके पिता नन्दलाल जी ने अपने पुत्र को अध्ययन के लिए नादनेर भेजा।  नादनेर की शिक्षा-पद्धति गुरुकुल प्रणाली की थी। वहाँ की प्रणाली में विद्यार्थी अनेक प्रकार के सेवा कार्य भी करते थे, जो माखनलाल जी को पसन्द न थे। वे इससे असन्तुष्ट रहते थे और यहीं पर उनके विद्रोह के स्वर भी फूट पड़ते थे। हिन्दी की पुस्तकें पढ़ने की प्रबल आकांक्षा रखने वाले चतुर्वेदी जी ने नादनेर में हिन्दी का प्रयोग मना होने पर भी लल्लूलाल द्वारा विरचित प्रेमसागर का अध्ययन कर ही डाला, परिणामस्वरूप पिटाई भी मिली। अपनी शंकाओं का समाधान ढूँढने और नए-नए तथ्यों की खोजों में तो वे सदा आगे रहते थे। उनमें कितनी ही खूबियाँ तो पिता की देन थीं। वे स्वयं लिखते हैं - ''चुटकुले, उपमा, छोटी कहानियाँ, मुहावरे और उक्तियाँ मेरे पास अधिकांश में अपने पिता जी की दी हुई हैं। वे जब गाँव में अपने किसी परिचित से बात करते, तब इन चीजों का उपयोग किया करते और कौतूहलवश लगातार सुनने के कारण वे मुझे याद रह जातीं।''5 
 माखनलाल जी चैदह वर्ष की आयु में ही अपने सुन्दर गौर वर्ण, सुन्दर नेत्रों, मुस्कराहट भरे अधरों, आभायुक्त शरीर और संभाषण से किसी को भी आकर्षित कर लेते थे। उनकी इन्हीं विशेषताओं से आकृष्ट बाबई के ही एक सज्जन ने अपनी नौ वर्षीया पुत्री ग्यारसीबाई से चतुर्वेदी जी का विवाह कर दिया। अभावों से भरे वैवाहिक जीवन व निरन्तर उपेक्षा के कारण पत्नी अस्वस्थ हो गयीं और यक्ष्मा रोग की चपेेट में आ जाने से अल्पायु में ही इन्हें सदा-सदा के लिए छोड़ कर परलोकवासी हो गयीं। पत्नी की मुत्यु के कारण इन्हें जीवन अंधकार भरी रात्रि के समान लक्षित हुआ। दूसरा विवाह न करने की बात से ही प्रकट होता है कि अभावग्रस्त वैवाहिक जीवन होने पर भी पत्नी के प्रति उनकी सच्ची आस्था व प्रेम का कोई अन्त नहीं था। 'भाई छोड़ो नही मुझे' शीर्षक गीत के माध्यम से उनकी पत्नी के शोक का एक अलग ही रूप परिलक्षित होता है।
 माखनलाल चतुर्वेदी खण्डवा के स्कूल में अध्यापक थे, जहाँ उन्हें गणित के अध्यापन में पुरस्कार दिया गया था। वहाँ वे सहायक प्रधानाध्यापक भी रहे। उन्हीं दिनों उनका लिखा नाटक सहायक शिक्षा निरीक्षक के समक्ष अभिनीत हुआ था। अध्यापक के रूप में उन्होंने समाज की प्रशंसा प्राप्त की और वे छात्रों के साथ ही अभिभावकों तथा साथी     अध्यापकों में भी लोकप्रिय हुए।
 पत्रकारिता से माखनलाल चतुर्वेदी का सम्बन्ध बहुत गहरा था। उन्होंने सन् 1908 में 'राष्ट्रीय आन्दोलन और बहिष्कार' विषय पर एक निबन्ध लिखा था। उन दिनों माधवराव सप्रे द्वारा ''हिन्दी केसरी''- नामक पत्र का प्रकाशन किया गया था। माखनलाल जी का निबन्ध इस पत्र में प्रकाशित हुआ और उन्हें प्रथम पुरस्कार मिला। इसी प्रकार जब ''सुबोध सिंध'' साप्ताहिक में माखनलाल जी का ''शक्ति पूजा'' शीर्षक निबन्ध प्रकाशित हुआ तो उन्हें राजद्रोही घोषित किया गया। यह एक दूसरे प्रकार का पुरस्कार था। इस घटना ने उन्हें पत्रकारिता जगत से विमुख करने के बदले जीवन भर के लिए उससे जोड़ दिया। पत्रकारिता के साथ उनका यह गठबन्धन जीवनपर्यन्त चला। उन्होंने सन् 1913 में ''प्रभा'' नामक मासिक पत्र का सम्पादन कार्य प्रारम्भ किया। यह एक ऐसा पत्र था, जिसमें तत्कालीन परिस्थितियों के यथार्थ के साथ-साथ प्रचुर मात्रा में साहित्यिक सामग्री का प्रकाशन होता था। स्मरणीय है कि इसके प्रकाशन से कुछ ही वर्ष पहले सन् 1909 में जयशंकर प्रसाद ''इन्दु'' का प्रकाशन करा चुके थे। उधर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ''सरस्वती'' के माध्यम से साहित्य, समाज और और स्वतन्त्रता के लिए अभिनव प्रयास कर रहे थे। ''प्रभा'', ''सरस्वती'' और ''इन्दु'' मिश्रित परम्परा की पत्रिकाएँ थीं। माखनलाल चतुर्वेदी ने सन् 1920 में ''कर्मवीर'' का प्रकाशन प्रारम्भ किया। यह एक ऐसा पत्र था, जिससे भारत पर शासन करने वाली सम्पूर्ण ब्रिटिश सत्ता थर्राती थी। श्रीकांत जोशी ने एक प्रसंग में लिखा है -''माखनलाल चतुर्वेदी के सम्पादकत्व में विगत 30 वर्षों से निकलने वाला ''कर्मवीर'' उनकी आग्नेय पत्रकारिता का तपोवन है। रक्तस्नात दुनिया की भयावह परिस्थितियाँ चाहे अपना अभिशाप फैलाने के लिए हावी हो रही हांे, चाहे देश में मदान्ध अविवेक भारतीयता की हत्या करने पर उतारू हो, इस साप्ताहिक ने विगत 25 वर्षों से हमारे अन्तःकरण की पवित्रता की अत्यधिक सुरक्षा नियोजित की है। ''कर्मवीर'' भारतीय आत्मा की शीलवती कामधेनु बना हुआ विराट रूपिणी भरत माँ के मानस चक्षुओं, वह भी खुले हुए मानस चक्षु का दायित्व वहन कर रहा है। ''कर्मवीर'' का मनोमन्थन, क्षीण-बल, क्षीण-कोष कभी नहीं रहा।''6 कर्मवीर की शक्ति क्रान्तिकारी भावना और प्रखरता को तत्कालीन क्रान्तिकारियों ने अपनी प्रेरणा का स्रोत माना ही था और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने भी इसकी महानता को स्वीकार किया था। माखनलाल जी कर्मवीर के माध्यम से भारत की दासता को नष्ट करने का अभियान चला रहे थे। उन्होंने इस पत्र को जनता के हाथ का बड़ा शक्तिशाली हथियार बना डाला था। बदले में तत्कालीन साम्राज्यवादी सरकार उनसे बहुत नाराज हो गयी थी तथा हर सम्भव उपाय अपना कर उनका मार्ग रोक देना चाहती थी। माखनलाल जी भी कोई कम कुशल नहीं थे। वे अपना वास्तविक नाम छिपाकर ''एक भारतीय आत्मा'', ''एक नवयुवक'', ''श्री गोपाल'', ''श्री विश्व व्याप्त'', ''भक्त सन्तान'', आदि नामों से अंगे्रजी सरकार को ध्वस्त करने में लगे थे तथा जनता को जगाने वाले लेख लिखते थे। ''कर्मवीर'' पहले जबलपुर से प्रकाशित होता था। सन् 1925 में वह खण्डवा आ गया। वहाँ भी उसने अपना क्रान्तिकारी कार्य जारी रखा। माखनलाल चतुर्वेदी ने सन् 1923 में कानपुर से निकलने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी के पत्र ''प्रताप'' का भी सम्पादन किया। गणेश शंकर विद्यार्थी माखनलाल जी की पत्रकार प्रतिभा का लोहा मानते थे। वे उनकी क्रान्तिकारी गतिविधियों से भी परिचित थे। उस युग के इन दो महान पत्रकारों ने सम्पूर्ण हिन्दी पत्रकारिता को दिशा देने का कार्य किया। यह माखनलाल जी की पत्रकारिता का ही प्रभाव था कि उन्हें सन् 1927 में ''भरतपुर सम्पादक सम्मेलन'' और सन् 1934 में ''अखिल भारतीय पत्रकार परिषद्, काशी'' का अध्यक्ष चुना गया। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकार प्रतिभा की दृष्टि से लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, गणेश शंकर ''विद्यार्थी'', महर्षि अरविन्द जैसे महामानवों के समकक्ष थे। उन्होंने सच्चे अर्थों में पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नए क्रान्तिकारी युग का सूत्रपात किया।
 माखनलाल चतुर्वेदी का कार्य-क्षेत्र पत्रकारिता के साथ-साथ राजनीति भी था। यह उस समय की आवश्यकता थी। पराधीन देश के नागरिक के रूप में वे नितान्त असन्तुष्ट और क्षुब्ध रहते थे। उन्हें जिस विवशता ने पत्रकारिता के माध्यम से देश को जगाने के लिए बाध्य किया, उसी परतन्त्रता से जन्मी विवशता ने एक राजनीतिक कार्यकर्ता भी बनाया। उस काल में भारतीय राजनीति के क्षितिज पर महात्मा गाँधी का उदय हो चुका था। माखनलाल जी को भी अन्य अनेक लोगों की भाँति गाँधी जी ने अपनी ओर आकृष्ट किया। परिणाम यह हुआ कि वे कांग्रेस के सदस्य बन गए तथा इस दल द्वारा संचालित राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेकर स्वतन्त्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे। उनका कार्य था - राजनैतिक कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करना और परतन्त्रता के विरुद्ध जगह-जगह भाषण देना। इसी क्रम में जब उन्होंने सन् 1921 में बिलासपुर में भाषण दिया तो उससे चिढ़कर अंग्रेज सरकार ने उन्हें आठ माह का सश्रम कारावास सुनाया। 1923 में झण्डा-सत्याग्रह में उनकी सक्रिय भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही। 1930 में जंगल सत्याग्रह की सक्रिय भूमिका के लिए उन्हें एक वर्ष के कारावास का दण्ड सुनाया गया। जेल में रहते हुए उन्हें बहुत सी यातनाएँ भोगनी पड़ीं। उनकी ''कै़दी और कोकिल'' कविता उन सब यातनाओं का इतिहास है। यह कविता माखनलाल चतुर्वेदी के क्रान्तिकारी व्यक्तित्व और राजनैतिक समझ का उदाहरण भी है।  इसके माध्यम से उन्होंने दासता तथा जनता पर किए जाने वाले अत्याचारों का सजीव चित्रण किया है।
 ऊपर से ऐसा प्रतीत होता हेै कि माखनलाल चतुर्वेदी प्रारम्भ से ही गाँधी-मार्ग के अनुयायी थे, किन्तु यह एक अर्धसत्य है। वास्तविकता यह हैं कि चतुर्वेदी जी मूलतः क्रान्तिकारी प्रकृति के व्यक्ति थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए चलाए जा रहे क्रान्तिकारी आन्दोलन से ही उनका हार्दिक जुड़ाव भी था। क्रान्ति के ये संस्कार उन्हें शिक्षा प्राप्त करते समय ही मिल गए थे। उनका क्रान्तिकारी युवकों से सम्पर्क हो गया था और वे उनके दल के सदस्य भी बन गए थे। डाॅं. चन्द्रभानु प्रसाद सिंह ने माखनलाल चतुर्वेदी और क्रान्तिकारी तरुणों के सन्दर्भ में लिखा है -''इन तरुणों की पाठ्य-पुस्तक बंकिम चन्द्र चटर्जी की ''आनन्दमठ'' नामक पुस्तक थी। ये तरुण एक हाथ में पिस्तौल और दूसरे हाथ में गीता लेकर अपने कर्म-पथ पर अग्रसर थे। गीता उन्हें कर्म की भाषा और वाणी दे रही थी। ''आनन्दमठ'' उस वाणी और कर्म को दिशा दिखाने का काम कर रही थी।''7 उन दिनों चतुर्वेदी जी लोकमान्य तिलक से भी बहुत प्रभावित थे। उनके जीवन का एक ही लक्ष्य बन गया था - क्रान्ति करके इस देश को अंग्रेजों से मुक्त करना। वे आत्मा की नश्वरता का मन्त्र रटते हुए हाथ में पिस्तौल लेकर क्रान्ति अभियान में प्राणपण से सक्रिय रहते थे। आगे चलकर वे गाँधी जी के सम्पर्क में आए और उनके राजनैतिक कार्यक्रम के प्रति आकर्षित हुए। इतने पर भी उनका क्रान्तिकारी स्वभाव पूरी तरह परिवर्तित नहीं हुआ। जब भी अवसर मिला उन्होंने गाँधी जी की समझौते वाली नीति का विरोध किया। माखनलाल चतुर्वेदी का राजनैतिक-जीवन स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी चलता रहा। यह अलग बात है कि जिन नेताओं के हाथों में स्वतन्त्र भारत की बागडोर आई, उन्होंने उन्हें उनका स्वाभाविक प्राप्य नहीं दिया। फिर भी वे समझौता वादी नहीं बने।
 यह आश्चर्य का विषय है कि एक भारतीय आत्मा जैसी सजग विभूति की मृत्यु-तिथि के विषय में अनेक भ्रान्तियाँ प्रचलित हो गई। कुछ ने उनकी मृत्यु 30 जनवरी 1967 (हरिकृष्ण प्रेमी - आज के हिन्दी कवि एवं डाॅ. नगेन्द्र - भारतीय साहित्य कोश आदि) को घोषित की तो कुछ ने बहुत पीछे जाते हुए सन् 1956 (अरविन्द पाण्डे - हिन्दी के प्रमुख कवि: रचना और शिल्प)। दूसरी ओर इतिहास कुछ और ही कहता है। उपलब्ध सामग्री के अनुसार मध्य प्रदेश विधानसभा ने 21 फरवरी, 1968 को माखनलाल चतुर्वेदी को श्रद्धांजलि समर्पित की थी। इस घटना के आधार पर वे उसी वर्ष हमसे विदा हुए। गम्भीर अध्येताओं ने खोज करके उनकी मृत्यु-तिथि 30 जनवरी सन् 1968 घोषित की है। 
 माखनलाल चतुर्वेदी ने एक बार अपने मन की पीड़ा को प्रकट करते हुए कहा था - ''मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना है कि अपना घर हो और उसमें एक बाथ रूम हो। किराए के घर की भी कोई जिन्दगी है ? हर क्षण लगता रहता है कि कोई, जो हमसे भी बड़ा है और उसके हम किरायेदार हैं।''8 इस प्रसंग से माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन संघर्ष का एक ऐसा संकेत मिलता है, जो उनके द्वारा किए जाने वाले सम्पूर्ण जीवन संघर्ष को समझने में सहायक हो सकता है। माखनलाल चतुर्वेदी मूलतः जिस बिन्दु से आगे बढ़े थे, वह बिन्दु ही स्वयं में संघर्ष का प्रतिरूप था। उन्हें जीवन की वास्तविकता को समझने से पहले ही वैवाहिक जीवन में आए घोर अभाव से उत्पन्न मानसिक संघर्ष को सहन करना पड़ा था। इसके बाद तो वे समाज और राष्ट्र से जुड़ते गये तथा उनका संघर्ष भी विस्तार पाता गया। चतुर्वेदी जी के जीवन और साहित्य का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने उनके संघर्ष के विभिन्न पहलुओं को समझा और समझाया है। अध्ययेता मानते हैं कि ''वे रचनाकार और सैनिक दोनों थे। अंग्रेजों की गुलामी में फँसे कसमसाते हुए देश की वेदना को वाणी देने वाले निर्भीक रचनाकार सैनिक माखनलाल जी काल-कोठरी में भी अपनी हुंकार भरते हुए क्रूर शासन की चूलंे हिलाने का दम-खम रखते थे। अंग्रेजों के शोषण, दमन से पूरा देश सकते में आ गया था। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों के रू-ब-रू  होकर बात की माखनलाल जी ने। माखनलाल जी के पास लाग-लपेट नहीं है। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का खुल्लम-खुल्ला विरोध किया। वस्तुतः उनकी रचना का उत्स तो परतन्त्र राष्ट्र की व्यथा-कथा से अप्रयास उच्छवासित हो उठा था, आदि कवि के शोकोच्छवास की तरह।''9 माखनलाल जी ने जो विशाल साहित्य रचा है, उसमें ''भारतवर्ष पर बल पूर्वक शासन करने वाले विदेशी शासकों के अत्याचारों का चित्रण और उनका विरोध विद्यमान है।''10  चतुर्वेदी जी पूरे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से अपने आत्मबल के सहारे पर टकरा जाने का साहस रखते थे। उनका यह टकराव भी बहुआयामी होता था। साम्राज्यवाद इस देश की जनता की दासता का ही प्रतीक नहीं था, वह हमारी जातीय और सांस्कृतिक अवनति का प्रतीक भी था। इसीलिए माखनलाल चतुर्वेदी ने साम्राज्यवाद से संघर्ष को अपने राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग बनाया। परिणामस्वरूप चतुर्वेदी जी का साम्राज्यवाद विरोध, राष्ट्रीय काव्य-धारा के विशाल फलक का अंग बना।11
 माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन-संघर्ष का एक पक्ष सामन्तवाद से संघर्ष भी है। यह भी उनके राष्ट्रीय-संघर्ष का ही एक हिस्सा था। चतुर्वेदी जी मानते थे कि भारत की अवनति के मूल में  सामन्तवाद भी एक बड़ा कारण है, क्योंकि यह साम्राज्यवाद को टिकाए रखने के लिए एक मजबूत पाए का काम करता है। माखनलाल जी के साहित्य में संघर्ष के इस रूप को बड़ी आसानी से रेखांकित किया जा सकता है। ''माखनलाल जी के लेखन-कर्म पर मूल संवेदना का गहरा असर पड़ा है। उन्होंने विभिन्न स्तरों पर साम्राज्यवाद से संघर्ष करने के साथ ही उसके सामाजिक आधार भारतीय सामंतवाद से भी संघर्ष किया है।''12 चतुर्वेदी जी ने अपने पत्रकार जीवन में भी जो संघर्ष किया था, वह बहुआयामी था। परतन्त्रता का वह काल पत्रकारिता और अन्य प्रकार के राष्ट्रवादी लेखक के लिए कोई कम कष्टपूर्ण वैसे भी नहीं कहा जा सकता। माखनलाल जी के लिए तो उसका संकटपूर्ण होना सहज ही था। श्री कान्त जोशी के अनुसार - ''सन् 1913 से सन् 1945 तक की पत्रकारिता एक बड़ी जोखिम थी। इसमें भी सन् 1913 से सन् 1935 तक की पत्रकारिता तो बड़ी कष्टप्रद थी। माखनलाल जी को और उनके मकान को पुलिस और सी.आई.डी. की नजर सतत् घेरे रहती थी, परिणामतः कर्मवीर में लिखना तो दूर की बात थी, कर्मवीर के सम्पादक से किसी का सम्पर्क है, यह बात भी नोट हो जाती थी, लोग भयभीत रहते थे।''13 इतना होते हुए भी माखनलाल चतुर्वेदी ने अपना लक्ष्य और संकल्प नहीं छोड़ा। माखनलाल जी को अपने संघर्ष का भरपूर मूल्य भी चुकाना पड़ा। ''इसकी कीमत उनसे ब्रिटिश साम्राज्य ने ही नहीं वसूली, स्वतन्त्र भारत के शासकों ने भी पूरी कीमत वसूली। भारत स्वतन्त्र हुआ, माखनलाल जी के जीवन का एक सपना पूरा हुआ, किन्तु सत्ता के गलियारों पर अधिकार जमा लेने वाले लोगों ने उन्हें धकेल बाहर किया।''14 
 संघर्ष की इसी बहुआयामी पृष्ठभूमि ने एक भारतीय आत्मा के स्पृहणीय व्यक्तित्व का गठन भी किया। 20वीं शताब्दी के स्वनामधन्य लेखक अज्ञेय ने उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन इन शब्दों में किया है - ''उस युग में जब अधिकतर लेखक विखण्डित व्यक्तित्व वाले लेखक होने लगे थे, माखनलाल जी के अखण्डित व्यक्तित्व ने अपने समकालीनों के सामने एक आदर्श भी रखा, एक चुनौती भी खड़ी की। किसी भी देश, किसी भी समाज के लिए एक अखण्ड व्यक्तित्व एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।''15 डा. के. वनजा, माखनलाल जी के व्यक्तित्व के एक अन्य पक्ष का उद्घाटन करती हैं।'' वे उनके वाणी-कौशल पर  मुग्ध हैं और मानती हैं कि माखनलाल जी के व्यक्तित्व में उनकी वक्तृत्व-शैली का बहुत महत्व है। इसका कारण उनका अध्ययन, राजनैतिक संस्कार और स्वतन्त्रता आन्दोलन में निभायी गई भूमिका तो है ही उनके हास्य-विनोदपूर्ण जीवन संस्कार भी हैं। यह कहना सही प्रतीत होता है कि - ''निर्झरणी के समान प्रवाहमान उनकी वाणी में कहीं भी कोई रुकावट नहीं होती, किन्तु मर्यादा की सीमा को वह वाणी नहीं लाँघती है, भावपूर्ण उनका वक्तव्य कभी उपदेशात्मक नहीं है, बल्कि नर्म-विनोद, हल्का सा व्यंग्य, परिहासपूर्ण है, इनकी वाणी में सचमुच गद्य और पद्य का सरस मिश्रण हुआ है।''16 माखनलाल चतुर्वेदी के व्यक्तित्व का एक पक्ष उनकी रचनाशीलता से भी जुड़ा हुआ है। रचनाकार के व्यक्तित्व में मात्र साहित्य-सृजन का गुण ही नहीं होता, बल्कि सृजन-परम्परा को प्रोत्साहित करने, आगे बढ़ाने और परिपुष्ट बनाने का गुण भी होता है। यह गुण किसी साहित्यकार के आन्तरिक वैशिष्ट्य और सौन्दर्य को प्रकट करता है। चतुर्वेदी जी कवि होने के साथ-साथ एक श्रेष्ठ गद्यकार भी थे। उनकी गद्य रचनाओं में उनका व्यक्तित्व यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है। इतना ही नहीं उन्होंने अपनी गद्य-लेखन क्षमता से सम्पूर्ण गद्य परम्परा को दिशा भी प्रदान की है। इसे उनकी साहित्य को देन भी कहा जा सकता है।17 गद्य के साथ चतुर्वेदी जी का व्यक्तित्व अपनी पूरी भव्यता में कविता में प्रकट हुआ है। उनकी कविता पढ़ कर यह पता चलता है कि उन्होंने अपनी कविताओं के शब्द-शब्द में अपना क्रान्तिकारी व्यक्तित्व उडेला है और उनके माध्यम से राष्ट्र-सेवी पीढ़ियों को प्रभावित किया है। समीक्षकों के अनुसार कविताओं में चतुर्वेदी जी के व्यक्तित्व का जाज्वल्यमान व्यक्तित्व प्रकट हुआ है। वहाँ वे विचारक हैं, चिन्तक हैं, बलिदानी हैं, त्यागी हैं, साहसी हैं और एक सम्पूर्ण राष्ट्रवादी हैं। उनकी कविताएँ सच्चे अर्थों में मन्त्रोच्चार की सी अनुभूति देती हैं।18 चतुर्वेदी जी दुर्धर्ष व्यक्तित्व के स्वामी थे। समझौतावादी नीति से उन्हें घृणा थी। यह विशेषता आजन्म उनके व्यक्तित्व का अंग बनी रही, यहाँ तक कि कांग्रेस की उत्तरवर्ती गतिविधियों में भी उन्होंने समझौतावाद को स्वीकार नहीं किया।19
 माखनलाल चतुर्वेदी के व्यक्तित्व का एक गुण - अन्य लोगों के व्यक्तित्व को सही-सही समझना भी था। वे अपने सम्पर्क में आये लोगों के व्यक्तित्व में पूरी पैठ बनाते थे और समय आने पर अपने अनुभव सहित उसकी प्रस्तुति करते थे। यह कार्य बहुत कठिन और यह गुण बहुत विरल होता है। कोई व्यक्ति व्यापक जीवन-बोध और सूक्ष्मग्राही दृष्टि के अभाव में इसे प्राप्त नहीें कर सकता। माखनलाल जी ने इस गुण को अपने व्यक्तित्व का अंग बनाया था। इसका उदाहरण उनके द्वारा लिखे संस्मरण हैं। उनकी रचनावली में इस प्रसंग का उल्लेख इन शब्दों में हुआ है  - ''एक भी संस्मरण ऐसा नहीं, जिसमें अभीष्ट व्यक्ति का समूचा व्यक्तित्व मुखर न हुआ हो। व्यक्ति के कार्य-क्षेत्र के अनुसार परिस्थिति विश्लेषण, शारीरिक-मानसिक गठन, प्रभाव आदि का विवरण प्रस्तुत करने में वह सफल इतिहासकार कवि की दृष्टि का सम्मिलित प्रयत्न दृष्टिगोचर होता है।''20
 माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन-संघर्ष और उनके व्यक्तित्व से जुड़कर ही उनकी विचारधारा का अध्ययन किया जा सकता है। उनके विषय में यह जानना बहुत आवश्यक है कि ''उनका चिन्तन निठल्लों का मानस-खाद्य कभी नहीं बना। वे शौर्य-पराक्रम की भाषा में चिन्तन करते रहे हैं और मैंने देखा, इस समय उनके संघर्षशील चेतना के पौरुष दृप्त तेज से युक्त आर्य मुख पर बस दो ही सत्य अवशेष रह गए हैं, जीवन कर्म भेदी दृष्टि और उसके नीचे श्वेत श्मश्रु।''21 चतुर्वेदी जी की जीवन गाथा के अनुसार जब वे क्रान्तिकारी गतिविधियों में विश्वास प्रकट करके क्रान्तिकारी दल से जुड़े थे और देश की स्वतन्त्रता के लिए मर-मिटने का संकल्प करके बलिपंथी बने थे, उस समय उन्हें अन्य वस्तुओं के साथ गीता की एक प्रति भी भेंट की गयी थी। इसका उनकी विचारधारा पर अमिट प्रभाव पड़ा। उससे कुछ पहले वे बंकिम के आनन्द मठ के सम्पर्क में आ ही चुके थे। उस उपन्यास कृति ने उन्हें दृढ़ संकल्प और चुनौतीपूर्ण घड़ी में दूरदर्शितापूर्ण निर्णय लेने की प्रेरणा दी थी। इन घटनाओं का माखनलाल जी की विचारधारा से महत्वपूर्ण रिश्ता है। चतुर्वेदी जी के संस्कार बचपन से ही वैष्णव-संस्कार थे। उनके माता-पिता द्वारा प्रदŸा इन संस्कारों ने भी उनके विचारों को संबल प्रदान किया। इतना होने पर भी यह उनकी जन्मजात क्रान्तिकारिता ही थी, जिसने उन्हें वैष्णव रूढ़ियों से भी बचाया। उनके विषय में कहा जाता है कि ''माखनलाल जी वैचारिक-दार्शनिक दृष्टि से एक विशिष्ट प्रकार की वैष्णवी विचारधारा के प्रणेता थे। यह परम्परागत वैष्णवी विचारधारा से सर्वथा भिन्न है। इसे नव वैष्णववाद कह सकते हैं।''22 माखनलाल जी का यह नववैष्णववाद देश-हित को सर्वोपरि मानता है। यही कारण है कि वे धर्म परायण तो थे, किन्तु धार्मिक कर्मकाण्ड के पीछे अन्धे होकर दौड़ने वाले नहीं। उनकी वैष्णवी विचारधारा ने उनके राष्ट्रवाद का पूरी तरह पोषण किया था।23 माखनलाल जी की विचारधारा का निकट से  अध्ययन करने पर यह भी स्पष्ट होता है कि वे अपने विद्रोही स्वभाव के कारण धर्म, राष्ट्र, जाति, संस्कृति आदि के सम्बन्ध में पहले कुछ सीमाएँ खींचते थे और फिर उनका अतिक्रमण भी करते थे। यह एक विस्मयकारी तथ्य है कि चतुर्वेदी जी की वैष्णव-चेतना और उनके क्रान्तिकारी दर्शन के मध्य निरन्तर एक सन्तुलन बना रहा। उनके जीवन में भी और उनके साहित्य में भी।24 इससे चतुर्वेदी जी के वैचारिक क्षितिज की निस्सीमता भी प्रकट होती है। उन्होंने जीवन भर धर्मान्धता का विरोध किया। भारतीय लेखकों में इस दृष्टि से गणेश शंकर विद्यार्थी उनके समकक्ष कहे जा सकते हैं। ये दोनों महापुरुष धर्म को मानव के लिए आवश्यक मानते थे, किन्तु किसी व्यक्ति अथवा वर्ग विशेष के स्वार्थों की पूर्ति के लिए उसके प्रयोग के कट्टर विरोधी थे।
 यह माखनलाल चतुर्वेदी के प्रौढ़ विचार-दर्शन का ही परिणाम है कि उनमें जातिवाद विरोध के साथ-साथ व्यापक मानवतावाद का भी विकास हुआ। इसी के साथ वे सम्पूर्ण कट्टरतावाद और पुरातनपंथी प्रवृŸिा के विरोधी हो गये। माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने गहन-अनुभव के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि भारतवर्ष में हिन्दुओं और मुसलमानों के मध्य जो विरोध भाव है, उसके लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद तो जिम्मेदार है ही, किन्तु इन दोनों जातियों की पुरातनपंथी प्रवृŸिा भी कम जिम्मेदार नहीं है। अपने इसी विचार के आधार पर उन्होंने पुरातन रूढ़ियों और प्रतिगामी प्रवृŸिायों पर भारी प्रहार किये हैं।25 चतुर्वेदी जी के पास एक अखण्ड और ठोस सामाजिक दर्शन भी था। इसका पता नारियों के सम्बन्ध में उनके दृष्टिकोण से चलता है। आधुनिक काल के आगमन के परिणामस्वरूप शताब्दियों से दबी-कुचली नारियों के प्रति सामाजिक जागरण का प्रारम्भ हुआ। स्वयं पुरुषों ने यह सोचना शुरु किया कि जीवन के निर्माण में नारी की महती भूमिका है; अतः उसे उसके सामाजिक अधिकारों से वंचित नहीं रखा जा सकता। माखनलाल चतुर्वेदी ऐसा सोचने वालों में सबसे आगे थे। वे बहुत प्रबल रूप में यह प्रश्न उठाते हैं कि नारी जाति स्व निर्णय अथवा स्वतन्त्रतापूर्वक विचार करने का अधिकार क्यों नहीं प्राप्त कर सकती ? फिर इसके उŸार में इस सत्य का उद्घाटन भी करते हैं कि नारी की इस दशा के लिए पुरुष जाति का स्वार्थी स्वभाव ही जिम्मेदार है। उन्होंने माना कि नारी समाज के संदर्भ में पुरुष जाति अपने स्वार्थ की सीमा का उल्लंघन कर गई है।26
 माखनलाल चतुर्वेदी की विचारधारा का एक पक्ष आर्थिक चिन्तन से भी जुड़ा हुआ है। इसके दो रूप हैं - एक उद्योगों के सम्बन्ध में उनका चिन्तन और दो, किसानों की समस्याओं के सम्बन्ध में उनकी दृष्टि। माखनलाल चतुर्वेदी उद्योग-धन्धों के विकास और देश की आर्थिक उन्नति पर बल देते थे, किन्तु वे यह कभी नहीं चाहते थे कि उद्योगों के नाम पर बड़े उद्योगों का साम्राज्य स्थापित हो जाए और छोटे उद्योगों का गला घोट दिया जाय। उन्होंने हमेशा लघु उद्योगों का पक्ष लिया। उससे जहाँ उनके पूंजीवाद-विरोध का पता चलता है,27 वहींे भारतीय अर्थव्यवस्था सम्बन्धी उनकी गहन गम्भीर जानकारी भी प्रकट होती है। माखनलाल चतुर्वेदी ने हमेशा शोषक और शासक का विरोध किया। स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करते समय भी और स्वतन्त्रता के बाद भी। इसके पीछे भी जनता की आर्थिक समस्याएँ ही मुख्य कारण हैं। वे भारत की कृषि व्यवस्था तथा उसकी समस्याओं को अच्छी तरह जानते थे। उन्हें पता था कि कृषक ही इस देश की आर्थिक रीढ़ तथा अर्थ व्यवस्था के केन्द्र में है। अंग्रेजी साम्राज्यवाद इसी कृषक समाज का शोषण और भारत की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का विनाश कर रहा था। माखनलाल चतुर्वेदी ने इसका विरोध किया। उनका ''कर्मवीर'' किसान जनता को शोषण से बचने के लिए उत्साहित करता था और कृषक समाज में व्याप्त अशिक्षा को समाप्त करने का अभियान चलाता था।  यदि ध्यान से देखें, तो यह सब भी एक भारतीय आत्मा के राष्ट्रवादी दृष्टिकोण और विचारधारा का ही अनिवार्य अंग था।
 ''माखनलाल जी का रचनाकाल भी 1905-06 से 1965-66 के लगभग तक साठ-इकसठ वर्षों के विस्तार में फैला हुआ है।28 यही वह समय था, जब माखनलाल जी का सीधा सम्बन्ध क्रान्तिकारियों से बना रहा। 1916 के लगभग माखनलाल जी गाँधी जी के भी प्रभाव में आए, परन्तु यहाँ भी क्रान्तिकारियों से प्राप्त मत, सलाह आदि बराबर बने रहे। माखनलाल जी का साहित्य कभी भी ठीक समय पर प्रकाशित नहीं हुआ। उनकी प्रथम प्रकाशित कृति है - कृष्णार्जुन युद्ध(1918)। यह एक सफल और अत्यधिक लोकप्रिय नाटक है। 1916 में जबलपुर के अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर इसकी प्रथम प्रस्तुति हुई थी, किन्तु उसके बाद 1943 तक यानी लगभग पच्चीस वर्षों तक माखनलाल जी की कोई किताब न आ सकी। यह वह समय था जब वे अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के हरिद्वार अधिवेशन के सभापति चुने गए थे। उनकी उम्र 54 वर्ष के आसपास थी। उनकी द्वितीय कृति थी - ''हिमकिरीटिनी''।29 ''उनकी विख्यात कृति ''साहित्य देवता'' का प्रकाशन 1943 में हुआ था। प्रकाशन के साथ सम्पूर्ण हिन्दी जगत में ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य जगत में इसने तहलका मचा दिया।''30 इससे बड़ी और कौन सी बात हो सकती थी, जो माखनलाल जी को गद्यकारों की उच्च शृंखला से जोड़ पाती। ''माखनलाल जी केवल कालजयी कवि ही नहीं, वरन् प्रखर, जागरूक, मनस्वी पत्रकार भी थे। ब्रिटिश दासता और देशी रियासतों के राजाओं के दमन के जमाने में पत्र निकालना अत्यन्त कठिन कार्य था। लेकिन चुनौती के रूप में यह कार्य स्वीकार कर आजीवन पत्रकारिता के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया।''31 अंग्रेजी शासन के समय पत्रकारिता का जीवन कोई आसान कार्य नहीं था और इस कार्य की परिणति के लिए किसी वीर योद्धा के समान ही लौह-लेखनी वाले माखनलाल जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन  पत्रकारिता पर न्योछावर कर दिया। ''पत्रकारिता में माखनलाल जी की प्रतिभा अलौकिक है। इस उदात्त और गौरवपूर्ण व्यवसाय के बारे में उनके जो विचार हैं और दृष्टि है, वह भी सचमुच अद्भुत है। बड़ा अचरज होता है कि इतना सारा ज्ञान यह आदमी कहाँ से पा गया ? लेकिन इसका भी मुझे रंज रहा है कि इस ज्ञान से और अनुभव से कमायी जाने वाली क्रान्तिकारी शक्ति की ओर ''दादा'' ने कभी विशेष ध्यान नहीं दिया। दादा यदि निष्ठा और लगन के साथ उसी क्षेत्र में जुटे रहते तो तिलक, अरविन्द की लौह-लेखनी की तरह अपनी लेखनी से हिन्दी भाषी संसार के सबसे जबरदस्त, सबसे प्रभावशाली प्रतिनिधि बन जाते।''32 काव्य के क्षेत्र में  माखनलाल चतुर्वेदी ने हिमकिरीटिनी के साथ ही हिमतरंगिणी, वेणुलो गूँजे धरा, माता, युगचरण, मरण ज्वार, बीजुरी काजल आँज रही जैसी श्रेष्ठ काव्य रचनाओं के माध्यम से प्रखर राष्ट्रवादी भाव धारा का नव्य-प्रणयन किया। डाॅ. चन्द्रभानु प्रसाद सिंह ने उनके काव्य को निराले पथ का संधानक कहा है। उन्हीं के शब्दों में - ''माखनलाल जी की कविता भावबोध और संवेदना के धरातल पर अपनी निजी विशेषताओं का परिचय देती हुई एक निराले पथ का संधान करती है।''33 इसी सृजन-संसार में माखनलाल चतुर्वेदी का वैचारिक जगत भी व्याप्त है।


सन्दर्भ:
1. माखनलाल चतुर्वेदी: यात्रा पुरुष, सम्पादन एवं संकलनकर्ता: श्रीकान्त जोशी, पृ. - 11.2. माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली, सम्पादन - श्रीकान्त जोशी, प्रथम     संस्करण 1983, पृ. 25.
3. वही, पृ. 23.
4. वही, भाग - 1, पृ. 45.
5. वही, भाग - 1, पृ. 47.
6. वही, भाग - 1, पृ. 21.
7. माखनलाल चतुर्वेदी और स्वाधीनता आन्दोलन, डाॅ. चन्द्रभानु प्रसाद सिंह, प्रथम संस्करण  1983, पृ. 39.
8. माखनलाल चतुर्वेदी: यात्रा पुरुष, सम्पादन एवं संकलनकर्ता: श्रीकान्त जोशी, पृ. 14.
9. माखनलाल चतुर्वेदी और स्वाधीनता आन्दोलन, डाॅ. चन्द्रभानु प्रसाद सिंह, प्रथम संस्करण  1983, पृ. 55.
10. ''माखनलाल जी की राष्ट्रीय कविताओं में ब्रिटिश साम्राज्य के अत्याचार और उसे ललकारने की जैसी अभिव्यक्ति हुई है, वैसी उस युग में किसी दूसरे हिन्दी कवि की रचनाओं में नहीं हुई है।'' वही, पृ. 57.
11. ''वे पापी ब्रिटिश शासन पर निर्भय होकर अप्रिय उपजाते रहे। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ बहुआयामी संघर्ष किया। हिन्दी की राष्ट्रीय काव्यधारा में यह बहु आयामी संघर्ष एक विशाल स्थान रखता है।'' वही, पृ. 57.
12. वही, पृ. 103.
13. माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली, सम्पादन - श्रीकान्त जोशी, प्रथम संस्करण 1983.
14. ''स्वतन्त्रता संग्राम के अन्तर्गत माखनलाल जी के सक्रिय जीवन की समाप्ति तो मृत्युपर्यन्त नहीं हो सकी, पर उस युग की जो सत्ताकांक्षी गतिविधि हुई थी, उसमें वे एक तरह से पीछे ढकेल दिए गए।'' - डाॅ. चन्द्रभानु प्रसाद सिंह, माखनलाल     चतुर्वेदी और स्वाधीनता आन्दोलन, पृ. 48.
15. माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली, सम्पादन - श्रीकान्त जोशी, प्रथम संस्करण 1983.
16. माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं में मानव मूल्यों की अवधारणा, डाॅ. के. वनजा, सं. 1995, पृ. 28.
17. वही, पृ. 22.
18. वही, पृ. 18.
19. यह व्यक्तित्व कांग्रेस के विरोधी दल ''स्वतन्त्र कांग्रेस'' की तरफ से पूर्व में कांग्रेस का  विरोध कर चुका था। माखनलाल जी ने केन्द्रीय नेता की बात को अस्वीकार     कर दिया। -माखनलाल चतुर्वेदी और स्वाधीनता आन्दोलन डाॅ. चन्द्रभानु प्रसाद     सिंह, प्रथम संस्करण 1983, पृ. 48.
20. माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली, भाग-5.
21. वही भाग-1 जीवन, पृ. 28.
22. माखनलाल चतुर्वेदी और स्वाधीनता आन्दोलन डाॅ0 चन्द्रभानु प्रसाद सिंह प्रथम संस्करण 1983, पृ. 136.
23. माखनलाल चतुर्वेदी और स्वाधीनता आन्दोलन डाॅ0 चन्द्रभानु प्रसाद सिंह प्रथम संस्करण 1983, पृ. 135.
24. माखनलाल जी अपनी सीमाएँ खींचते हैं और फिर अतिक्रांत भी करते है, वैष्णवता और क्रान्तिकारिता के बीच एक सुखद संतुलन स्थापित करते हैं। --वही, पृ. 140.
25. माखनलाल जी हिन्दू-मुस्लिम विभेद के संदर्भ में सिर्फ साम्राज्यवादी शासन को ही दोषी नहीं ठहराते वरन् वे इसके लिए इन दोनों कौमों की पुरातन पंथी प्रवृत्ति     पर भी प्रहार करते हैं। -वही, पृ. 96.
26. वही, पृ. 114.
27. माखनलाल जी ने देशी उद्योग और व्यवसाय की उन्नति पर बल दिया है, लेकिन हर समय बड़े और छोटे उद्यमियों के फर्क को भी ध्यान में रखा, उन्होंने हर समय छोटे उद्यमियों की वकालत की और बड़े उद्यमियों को आड़े हाथों लिया। यह उनकी पूँजीवाद विरोधी दृष्टि का परिचायक है। -वही, पृ. 84.
28. माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली, सम्पादक श्रीकान्त जोशी, 1983.
29. वही,
30. वही,
31. माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं में मानव मूल्यों की अवधारणा डाॅ. के. वनजा जुलाई  1995, पृ. 21.
32. मध्य प्रदेश संदेश, स्व. अनन्त गोपाल पृ. 88 (माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं में मानव मूल्यों की अवधारणा से उद्धृत पृ. 22)।
33. माखनलाल चतुर्वेदी और स्वाधीनता आन्दोलन, डाॅ. चन्द्रभानु प्रसाद सिंह, प्रथम संस्करण 1983, पृ. 76.


Comments

Popular posts from this blog

मणिपुरी कविता: कवयित्रियों की भूमिका

प्रो. देवराज  आधुनिक युग पूर्व मणिपुरी कविता मूलतः धर्म और रहस्यवाद केन्द्रित थी। संपूर्ण प्राचीन और मध्य काल में कवयित्री के रूप में केवल बिंबावती मंजुरी का नामोल्लख किया जा सकता है। उसके विषय में भी यह कहना विवादग्रस्त हो सकता है कि वह वास्तव में कवयित्री कहे जाने लायक है या नहीं ? कारण यह है कि बिंबावती मंजुरी के नाम से कुछ पद मिलते हैं, जिनमें कृष्ण-भक्ति विद्यमान है। इस तत्व को देख कर कुछ लोगों ने उसे 'मणिपुर की मीरा' कहना चाहा है। फिर भी आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका है कि उपलब्ध पद बिंबावती मंजुरी के ही हैं। संदेह इसलिए भी है कि स्वयं उसके पिता, तत्कालीन शासक राजर्षि भाग्यचंद्र के नाम से जो कृष्ण भक्ति के पद मिलते हैं उनके विषय में कहा जाता है कि वे किसी अन्य कवि के हैं, जिसने राजभक्ति के आवेश में उन्हें भाग्यचंद्र के नाम कर दिया था। भविष्य में इतिहास लेखकों की खोज से कोई निश्चित परिणाम प्राप्त हो सकता है, फिलहाल यही सोच कर संतोष करना होगा कि मध्य-काल में बिंबावती मंजुरी के नाम से जो पद मिलते हैं, उन्हीं से मणिपुरी कविता के विकास में स्त्रियों की भूमिका के संकेत ग्रहण किए ज

अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था और सूचना राजनीति

अवधेश कुमार यादव साभार http://chauthisatta.blogspot.com/2016/01/blog-post_29.html   प्रजातांत्रिक देशों में सत्ता का संचालन संवैधानिक प्रावधानों के तहत होता है। इन्हीं प्रावधानों के अनुरूप नागरिक आचरण करते हैं तथा संचार माध्यम संदेशों का सम्प्रेषण। संचार माध्यमों पर राष्ट्रों की अस्मिता भी निर्भर है, क्योंकि इनमें दो देशों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को बनाने, बनाये रखने और बिगाड़ने की क्षमता होती है। आधुनिक संचार माध्यम तकनीक आधारित है। इस आधार पर सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला- उन्नत संचार तकनीक वाले देश, जो सूचना राजनीति के तहत साम्राज्यवाद के विस्तार में लगे हैं, और दूसरा- अल्पविकसित संचार तकनीक वाले देश, जो अपने सीमित संसाधनों के बल पर सूचना राजनीति और साम्राज्यवाद के विरोधी हैं। उपरोक्त विभाजन के आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व वर्तमान समय में भी दो गुटों में विभाजित है। यह बात अलग है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्काल बाद का विभाजन राजनीतिक था तथा वर्तमान विभाजन संचार तकनीक पर आधारित है। अंतर्राष्ट्रीय संचार : अंतर्राष्ट्रीय संचार की अवधारणा का सम्बन्ध

निर्मला पुतुल के काव्य में आदिवासी स्त्री

वंदना गुप्ता                                          समकालीन हिंदी कवयित्रियों में श्रीमती निर्मला पुतुल एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आदिवासी जीवन का यथार्थ चित्रण करती उनकी रचनाएँ सुधीजनों में विशेष लोकप्रिय हैं। नारी उत्पीड़न, शोषण, अज्ञानता, अशिक्षा आदि अनेक विषयों पर उनकी लेखनी चली है। गगन गिल जी का कथन है - ''हमारे होने का यही रहस्यमय पक्ष है। जो हम नहीं हैं, उस न होने का अनुभव हमारे भीतर जाने कहाँ से आ जाता है? .... जख्म देखकर हम काँप क्यों उठते हैं? कौन हमें ठिठका देता है?''1 निर्मला जी के काव्य का अनुशीलन करते हुए मैं भी समाज के उसी जख्म और उसकी अनकही पीड़ा के दर्द से व्याकुल हुई। आदिवासी स्त्रियों की पीड़ा और विकास की रोशनी से सर्वथा अनभिज्ञ, उनके कठोर जीवन की त्रासदी से आहत हुई, ठिठकी और सोचने पर विवश हुई।  समाज द्वारा बनाए गए कारागारों से मुक्त होने तथा समाज में अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए नारी सदैव संघर्षरत रही है। सामाजिक दायित्वों का असह्य भार, अपेक्षाओं का विशाल पर्वत और अभिव्यक्ति का घोर अकाल  नारी की विडंबना बनकर रह गया है। निर्मला जी ने नारी के इसी संघर्ष