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मणिपुरी कविता: कवयित्रियों की भूमिका


प्रो. देवराज



 आधुनिक युग पूर्व मणिपुरी कविता मूलतः धर्म और रहस्यवाद केन्द्रित थी। संपूर्ण प्राचीन और मध्य काल में कवयित्री के रूप में केवल बिंबावती मंजुरी का नामोल्लख किया जा सकता है। उसके विषय में भी यह कहना विवादग्रस्त हो सकता है कि वह वास्तव में कवयित्री कहे जाने लायक है या नहीं ? कारण यह है कि बिंबावती मंजुरी के नाम से कुछ पद मिलते हैं, जिनमें कृष्ण-भक्ति विद्यमान है। इस तत्व को देख कर कुछ लोगों ने उसे 'मणिपुर की मीरा' कहना चाहा है। फिर भी आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका है कि उपलब्ध पद बिंबावती मंजुरी के ही हैं। संदेह इसलिए भी है कि स्वयं उसके पिता, तत्कालीन शासक राजर्षि भाग्यचंद्र के नाम से जो कृष्ण भक्ति के पद मिलते हैं उनके विषय में कहा जाता है कि वे किसी अन्य कवि के हैं, जिसने राजभक्ति के आवेश में उन्हें भाग्यचंद्र के नाम कर दिया था। भविष्य में इतिहास लेखकों की खोज से कोई निश्चित परिणाम प्राप्त हो सकता है, फिलहाल यही सोच कर संतोष करना होगा कि मध्य-काल में बिंबावती मंजुरी के नाम से जो पद मिलते हैं, उन्हीं से मणिपुरी कविता के विकास में स्त्रियों की भूमिका के संकेत ग्रहण किए जा सकते हैं। 



आधुनिक काल में मणिपुरी भाषा की कविता का प्रारंभ लमाबम कमल सिंह के सन् 1929 में प्रकाशित काव्य-संग्रह, ' लै-परेड्.',(पुष्प-माला) से हुआ। यह समय मणिपुरी साहित्य के इतिहास मेें ' नवजागरण-काल ' के रूप में प्रसिद्ध है। कवि कमल के अतिरिक्त दरेन्द्रजीत, ख्वाइराक्पम चाओबा, हिजम अड.ाड्.हल, हवाइबम नवद्वीपचन्द्र, अशाड्.बम मीनकेतन, मयूर ध्वज और राजकुमार शीतलजीत इस काल के महत्वपूर्ण कवि (इन सभी ने गद्य भी लिखा है) थे। यह आश्चर्य का विषय है कि संपूर्ण नवजागरण-काल में एक भी कवयित्री नहीं हुई। मणिपुरी समाज नारी स्वातन्त्रय की दृष्टि से सारे संसार में प्रसिद्ध है। इतना होते हुए भी यह खोज और शोध का विषय है कि उस काल मेें किसी स्त्री ने लेखनी उठाने का प्रयास क्यों नहीं किया। न केवल तब, बल्कि सन् 1950 तक भी किसी स्त्री-लेखक का नाम मणिपुरी साहित्य में नहीं मिलता। 


मणिपुरी कविता के क्षेत्र मेें स्त्री-रचनाकारों का प्रवेश साठोत्तरी काल में हुआ और आश्चर्य का यह दूसरा बिंदु है कि प्रवेश के तुरंत बाद इन कवयित्रियों ने धूमकेतु की भाँति मणिपुरी काव्याकाश को चकाचैंध से भर दिया। समकालीन जीवन के जितने भी पक्ष थे और उन पक्षों की जितनी सच्चाइयाँ थीं, स्त्री-रचनाकारों ने उन सभी को विषयवस्तु और कला-सौष्ठव, दोनों ही स्तरों पर प्रभावपूर्ण व सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की। परिणामतः मणिपुरी काव्य-धारा मेेें अत्यल्प-समय में ही उनका महत्वपूर्ण स्थान निर्धारित हो गया। स्त्री-रचनाकारों की संख्या, उनके काव्य सृजन का स्तर, परिमाण, गुणात्मकता आदि सभी पक्ष आश्चर्यचकित कर देने वाले है।


जहाँ तक मणिपुरी कविता को समृद्ध बनाने में स्त्री-रचनाकारों की भूमिका का मूल्यांकन करने का प्रश्न है, उसके लिए मैं पाठकों के समक्ष एक कविता प्रस्तुत करके मूल विषय पर आना चाहता हूँ-
   आत्मा तुम्हारी चाहे या न चाहे
   माने या न माने तुम्हारी आत्मा
   मैं 
   उत्तर हूँ युगों के प्रश्न का तुम्हारे,
   समझ बैठे थे क्या मुझे
   चाँदनी की चकोर
   या फिर भोर में
   फूलते गुलाब की 
   पंखुड़ी पर पड़ी ओस,
   नहीं हूँ मैं, वह हर्गिज नहीं
   मैं हूँ तड़ित् रानी
   समझ गए न! तड़ित् रानी !
   मेरी कर्कश-कठोर प्रतिध्वनि से
   टूट गिरेंगे 
   नव-नवीन रंगों से 
   लिपे-पुते
   सड़ चुके तुम्हारे दोंनो बाजू
   फैलाए खड़े हो जिन्हें दर्प के साथ
   एक नए इतिहास के दरवाजे पर 
   मेरे नेत्रों से परावर्तित 
   हजारों-हजार स्फुल्लिंग भस्म कर डालेंगे
   तुम्हारे युगों-युगों के
   कालिख पुते विचारों की गठरी 
   भयंकरता मेरी
   सहोगे जब मूंद कर आँखें 
   संपूर्ण हो जाएगी
   धरा की नव-सृष्टि ।


यह कविता समकालीन मणिपुरी साहित्य के 'युवा कविता आन्दोलन' की सबसे समर्थ एवं चर्चित कवयित्री मेमचैबी की रचना है और इसका आधार एक पौराणिक विश्वास है। कहा जाता है कि जब 'अतिया गुरु शिदबा (अशीबा) सृष्टि-रचना में प्रवृत्त हुए तो ' हराबा ' नामक राक्षस उसका विध्वंस करने में जुट गया। अशीबा जितनी रचना करते, हराबा उतनी ही नष्ट कर डालता। जब हराबा किसी भी उपाय से रोका नहीं जा सका तो 'मपू शिदबा' ने ' नोड्.थाड्.लैमा' नामक देवी का आह्वान किया।


तड़िताम्बरधारिणी देवी के दिव्य सौन्दर्य को देखते ही हराबा उस पर मोहित हो गया और उसका परिचय पाने को व्याकुल हो उठा। उसने नोड्.थाड्.लैमा से उसका परिचय पूछा और देवी ने उसकी जिज्ञासा का समाधान किया। इस तरह प्रश्नोत्तर शैली में दोनों के बीच प्रेम-प्रसंग घटित हुआ। इसी अवसर का लाभ उठा कर अशीबा ने सृष्टि-निर्माण किया। 


मेमचैबी ने इस पौराणिक-प्रसंग की देवी, नोड्.थाड्.लैमा को समकालीन परिस्थितियों में विकसित स्त्री-सत्ता की प्रतीक के रूप में ग्रहण करके पुरुष समाज के समक्ष अनुपेक्षणीय चुनौती  प्र्रस्तुत की है। कविता का हिन्दी अनुवाद पढ़ कर साफ समझा जा सकता है कि आज की स्त्री न तो पुरुष के दैहिक बल पर आधारित शोषण को सहन करने को तैयार है और न स्त्री के विरोध में शताब्दियों से सक्रिय कलुषित, बुर्जुआ विचारों को। इसका कारण भी साफ है। उसने अपनी आन्तरिक शक्ति को पहचान कर एक नया व्यक्तित्व अर्जित कर लिया है, जिसमें यथार्थ-दृष्टि, साहस, ईमानदारी, बौद्धिकता और संघर्षशीलता जैसे तत्वों का प्राधान्य है। भावना, प्रेम, लज्जा, और मर्यादा भी इस नवीन व्यक्तित्व में हैं, किन्तु इतनी मात्रा में नहीं कि वह परम्परागत स्त्री की भाँति 'चाँदनी की चकोर' या फिर 'गुलाब की पंखुड़ी पर पड़ी ओस' बनी रहे। यही कारण है कि नोड्.थाड्.लैमा (तड़ित् रानी) के नेत्र आग्नेय हैं, जिनसे हजारों-हजार स्फुल्लिंग फूट कर पुरुष के युगों पुराने कालिख भरे विचारों की गठरी जला डालने को तैयार हैं। ऐसा हुए बिना इस पृथ्वी पर नवीन-सृष्टि संभव नहीं है। 


एक स्वाभाविक जिज्ञासा हो सकती है कि क्या मेमचैबी ने अचानक स्त्री को इस भूमिका मेें लाकर खड़ा कर दिया है ? ऐसा नहीं है। उन्होंने उसके शोषण का निकट से निरीक्षण किया, स्त्री-शोषण के धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, यहाँ तक कि यथास्थितिवादी, निहितस्वार्थी कला और साहित्य केन्द्रित आधारों को जाँचा-परखा, युगों से चले आते पुरुष-सत्तात्मक समाज-तन्त्र के अधीन तिल-तिल टूटती-बिखरती स्त्री के जीवन को नष्ट करते विरोधाभासों कोे समझा और स्त्री के भीतरी दर्द को कुछ इस तरह अपनी कविता में उतारा - '' दरिद्र/तेरे घर में तेरी दासी/पिता ने तेरे लिए पाला मुझे/प्रदान किया निष्कलंक रूप/हे धनवान/हूँ मैं तेरे लिए कठपुतली भर/शृंगार किया माँ ने मेरा/अनेक रंगों से सजाया तेरे आकर्षण हेतु/चन्द्रिका के लावण्य से अपरिचित मैं/मेघों की, आकाश की सुन्दरता से भी/ओह/शून्य/नहीं जानती, अपरिचित/पुराण बखानते/स्वर्ग लोक है यही/अंधकार में स्वर्ग के/जीती आई तू/जिया जीवन तूने हे नारी/मृतात्मा/शोषित आत्मा/उच्च आसन पर आरूढ/कवियों की मनोज्ञ वाणी में/चेतनाशून्य जीती आई/संबोधित करता तुझे विश्व/वीरांगना मैतै लैमा।'' कविता की अन्तिम पंक्तियों में मणिपुरी स्त्री के माध्यम से स्त्री मात्र के जीवन की त्रासदी को चिन्हित कर दिया गया है। 


स्त्री के जीवन और व्यक्तित्व की सच्ची तस्वीर के साथ ही उसके भीतर की शक्ति को अभिव्यक्त करने का कार्य केवल मेमचैबी ने ही नहीं किया है, बल्कि उनके साथ अनेक अन्य कवयित्रियाँ भी हैं। अपने 'लैरोन चम्ख्रबा थाजबा' काव्य संग्रह की एक कविता में ल.इबेम्हल देवी कहती हैं- '' मांस की भूख के क्षण/कराया जाता वेश्या का अभिनय/कहा जाता सतीत्व भरी/गृहिणी की उपाधि देकर/पराजय के क्षण/देखता पशु के रूप में/अनिच्छा और घृणा के समय/माता है, पुत्री है, अनुजा है/अग्रजा है, पत्नी है, बांधवी है/और वेश्या है।'' ऐसे कठोर अभिशाप से पीड़ित स्त्री की बेबसी और अपने अस्तित्व के अहसास के क्षण उसी बेबसी की प्रतिक्रिया केा एक अन्य कवयित्री लैशाड्.थेम इबेयाइमा ने अपने 'मैरा परेड्.गी थाओ मै' काव्य-संग्रह में चित्रित करते हुए कहा है - '' मुझे मेरा अधिकार लौटाओ/लौटाओ मुझे मेरा हक./थोड़ा सा जीेने दो मुझे/जरा कहना फिर से/चाहते कौन-सा दोष मढ़ना/मेरे बंधे हाथ/खोलो जरा, आँखों की पट्टी भी खोलो/चैन से जीने दो क्षण भर को/मढ़ रहे जो दोष/सही है या गलत/सिद्ध करने दो आजाद होकर इसी जीवन में/न दो चुनौती मेरे अधिकार को हे दर्पी/देह साँस लेना बन्द कर देगी जब/करोगे बदनाम झूठा दोष मढ़ कर/लगेगा बुरा मेरी आत्मा को/मनुष्य हूँ मैं भी/मुझे मेरा अधिकार लौटाओ।'' 


यही स्त्री एक और मोड़ पर अपने समाज की सांस्कृतिक पहचान की व्याकुलता को वाणी देने की जिम्मेदारी निभाती हुई भी मिलती है। मणिपुर में राज्य-व्यवस्था का प्रारंभ सन् 33 ईसवी के लगभग हुआ माना जाता है। उस समय मणिपुरी (मीतै/मैतै) जाति सात वंशों - खाबा, चेड्.लै, लुवाड्., खुमन, मोइराड्., अड्.ोम, निड्.थौजा मेें विभक्त थी। राज्य-व्यवस्था का प्रारंभ ' इबुधौ पाखड्.बा ' (दादामह पाखड्.बा) ने किया था। कालान्तर में सातों वंशों ने अपने-अपने राज्य स्थापित किए। अन्त में सभी राज्यों का विलय ' निड्.थौजा ' के राज्य में हो गया। इसी राज्य की राजधानी 'कड्.ला' कहलाई । निड्.थौजा-शासन के अधीन मणिपुरी जनता ने लगभग दो हजार वर्ष तक स्वाधीनता का ध्वज आकाश में फहराए रखा। दुर्भाग्य से सन् 1891 मेें ' खोड्.जोम-युद्ध ' मेें अंगरेजों की सेना ने इस राज्य को जीत लिया और स्वाधीन मणिपुर ब्रिटिश साम्राज्य का छोटा सा उपनिवेश बन गया। ऐतिहासिक गौरव का 'कड्.ला' अंगरेजों के बूटों तले रौंदा जाने लगा। इसके बाद जब भारत स्वाधीन हुआ तो मणिपुर भारत-संघ की राजनैतिक इकाई बना। मणिपुरी  जनता को आशा थी कि उसके ऐतिहासिक-सांस्कृतिक वैभव का जाज्वल्यमान प्रतीक कड्.ला उसके लिए खोल दिया जाएगा, किन्तु भारत सरकार ने उसे एक सैन्य-केन्द्र में बदल दिया और वहाँ असम राइफल्स की टुकड़ी रहने लगी। जनता की ओर से मांग की गई कि कड्.ला को जनता के हवाले कर दिया जाए, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। जनता की मांग ने आन्दोलन का सहारा लिया। सरकार के कान पर फिर भी जूँ नहीं रेंगी। परिणाम यह हुआ कि कड्.ला की मुक्ति का संघर्ष मणिपुरी जनता की सांस्कृतिक पहचान बचाने का शक्तिशाली  संघर्ष बन गया,जिसमें समाज के सभी वर्ग कूद पड़े। जिन दिनों जन-संघर्ष अपने उबाल पर था, उन्हीं दिनों मेमचैबी ने एक कविता रची थी, जो इस प्रकार है- '' खोलो दरवाजा,खोलो दरवाजा/हमारे कड्.ला का खोलो दरवाजा/उस भूमि का स्पर्श होने दो एक बार/मैं हूँ कौन ?/मैं बनने वाली हूँ माँ/गर्भवती हूँ मैं/एक बार स्पर्श करने दो उस भूमि का/खोलो दरवाजा, खोलो दरवाजा/दरवाजा, जिसे कर रखा है बन्द/हमारे कड्.ला का खोलो दरवाजा। '' इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि मेमचैबी अपनी इस कविता में एक सामान्य स्त्री न रह कर जनता की सच्ची प्रतिरूप बन कर उभरी । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जिस दिन कड्.ला को सैन्य बल के हाथों से मुक्त करके जनता को सौंपा, उस दिन कविता का आन्तरिक अर्थ भी जनता के हृदय की संपदा बन गया। 


मणिपुरी कविता को स्त्री-चेेेतना के साथ-साथ सांस्कृतिक संदर्भों से जोड़ने का कार्य मणिपुरी भाषा की कवयित्रियों ने सफलता के साथ किया। इससे समग्र काव्य-परम्परा समृद्ध हुई। इस संदर्भ में उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इन कवयित्रियों ने स्त्री की तमाम ऊर्जस्विता और शक्तिमत्ता को चित्रित करते हुए भी उसे यथार्थ अनुभवों से कटने नहीं दिया है। वे जानती हैं कि भारतीय सामाजिक  संदर्भों में स्त्री की संपूर्ण मुक्ति आज भी असंभव दिखती है, क्योकि विपरीत परिस्थितियों के चलते वह पुरुष की तुलना में आज भी निर्बल बनी  हुई है। अतः और अधिक शक्ति अर्जित करने की, अपने भीतन और अधिक साहस व वीरता जगाने की आवश्यकता है। सापम श्यामोलता सिंह अपनी 'निड्.ोल मपोक' (स्त्री जीवन) कविता में मातृ-भूमि से प्रार्थना करती हैं-'' चिंतामुक्त विश्राम नहीं/फिर भी जीते चले जाना है/बढ़ा दो माँ शक्ति अपार/स्त्री जीवन में/आँचल पसारती/हर स्त्री को/बना दो / वीरांगना''


मणिपुर के आर्थिक-विकास के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा आतंकवाद और उग्रवाद है। वर्तमान में इस राज्य में लगभग तीस उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं, जिनके एजेण्डे में भारत संघ से मणिपुर की मुक्ति सबसे ऊपर है। इनके अनुसार 15 अक्टूबर 1949 को मणिपुर का भारत-संघ में विलय अनुचित है, इसलिए इसे निरस्त करके इस राज्य को राजनैतिक-स्वाधीनता मिलनी चाहिए। इन सभी संगठनों की समय-समय पर की गई घोषणाओं के अनुसार ये उसी स्वाधीनता के लिए सुरक्षा बलों सेे सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं। आए दिन अद्र्ध सैनिक बल, सेना आदि पर किए जाने वाले हमले, जगह-जगह बम-विस्फोट, गोलीबारी उसी संघर्ष का हिस्सा है। ये उग्रवादी संगठन सहयोग के नाम पर जनता के सभी वर्गों से धन-वसूली करते हैं। कभी-कभी ये प्रेस को भी अपने आदेश के डण्डे से हाँकने की कोशिशें करते हैं। इससे समाज में आंतक का संचार होता है और आर्थिक-विकास की योजनाओं का क्रियान्वयन बुरी तरह प्रभावित होता है। 


उग्रवादी संगठनों के सामने खड़ा दूसरा पक्ष शासन है उसके अनुसार 'मणिपुर ही नहीं, पूरे राष्ट्र के विकास को उग्रवाद प्रभावित कर रहा है, अतः प्रत्येक उपाय का उपयोग करके इसे समाप्त किया जाना चाहिए। शासन इसके लिए, 'शक्ति का विनाश शक्ति से' नीति का अनुसरण करता है। सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आम्र्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट-। FSPA) और पोटा (POTA) लागू करके शासन ने अपनी नियत का परिचय दिया, जिनके अन्तर्गत सुरक्षा बलोें को विशेष छापेमारी अभियान (काॅम्बिगं आॅपरेशन) चलाने, मात्र संदेह पर किसी को भी हिरासत में लेने, प्रकृत नागरिक आजादी का हनन करने जैसी कार्यवाहियों के आधार पर शासन की नीति लागू करने की स्वतन्त्रता मिल गई। इससे समाज मेें एक और आतंक का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे आम जनता मेें शासन के आतंक या प्रति आतंकवाद के रूप  में जाना गया। 


इस आतंकवाद और प्रति आतंकवाद (या शासन द्वारा प्रायोजित आतंकवाद) के बीच आम आदमी उसी प्रकार पिसने लगा, जैसे चक्की के दो पाटों के बीच अनाज पिस जाता है। इसका सबसे अधिक बुरा प्रभाव पड़ा स्त्री पर, क्योंकि युद्ध, चाहे वह खुला हो या छद्म या शीत-सबसे अधिक स्त्री को प्रभावित करता है। जो भी आतंक और प्रति आतंक का शिकार होकर अपने जीवन से हाथ धोता है, वह स्त्री के पिता, पति, प्रेमी, भाई आदि में से ही कोई होता है। मणिपुर में असंख्य लोग आतंकवाद की आग में झुलस चुके हैं और हर बार झुलसते हुए व्यक्ति के साथ किसी न किसी स्त्री की आँखें हमेशा के लिए आँसुओं के समुद्र में डूबी हैं। उसके विदीर्ण हृदय का रुदन सुनने के लिए भी जीते-जागते आदमी नहीं, केवल शव बचे हैं। मणिपुरी भाषा की कवयित्री शांतिबाला ने ऐसी एक स्त्री का चित्रण करते हुए कहा है-''बंदूक की नोंक पर/जबर्दस्ती/ले जाए गए पुत्र का समाचार/ अतापता न मिलने के कारण/इंतजार में डूबी है/माॅ: ग (शव-गृह) पर/निर्धन माँ/फाटक के बाहर ले जाए गए/आँखों से ओझल हुए लोगों का/पड़ाव हो गया है यह माॅ: ग/आएँगे अवश्य/विश्राम करने यहाँ/करेंगे अवश्य/आखरी दस्तखत/सुनेंगे विलाप/माँ-बाप, भाई-बहनों का।'' आतंक और प्रति आतंक की लपटों के बीच कुछ लोग ही नहीं, पूरी जाति घिर गई है। अपने ही शरीर से बहते खून के फैलाव में अपने को विविध रूपों में देखना उसकी नियति है। ऐसे में भला जीने का क्या अर्थ हो सकता है? सगोलसेम विलासिनी देवी कहती हैं-''समय के दावनल में भस्म/मेरे हृदय की बगिया में/छाई में बदल गए/हमारी जाति के फूल/बेबसी है खिलने की/इसीलिए खिलते हैं/देखें कैसे/हृदय की असह्य दुख भरे रुदन की आवाज में/अपने ही बहते हुए खून के/रोंगटे खड़े कर देने वाले विविध रूप।'' 


मणिपुरी भाषा की कवयित्रियों ने अपनी वैचारिक और सांस्कृतिक जड़ों से कटे समाज की मानसिक-त्रासदी के चित्रण पर बहुत अधिक ध्यान केन्द्रित किया है। राष्ट्र की मुख्य भूमि से दूरी, पर्वतीय क्षेत्र की परिस्थितियों, विकास योजनाओं की असफलता, शिक्षा के उच्च स्तर के अभाव आदि ने मणिपुरी समाज को आधुनिक विश्व ओैर विज्ञान केन्द्रित आधुनिक सभ्यता का अभ्यासी नहीं होने दिया। इस कारण यहाँ के लोग अपनी युगों पुरानी पारम्परीण संस्कृति से चिपके रहे। दूसरी ओर सूचना के प्रसार ने उन्हें यूरोपीय जीवन शैली व अंगरेजी पद्धति की शिक्षा के प्रति भी आकर्षित किया। इससे मणिपुरी समाज परम्परा और आधुनिकता के बीच उत्पन्न वैचारिक संघर्ष का शिकार होकर अपनी वास्तविक जड़ोें से कट कर जीने लगा। परिणाम यह हुआ कि आम जन-जीवन में भयावह खोखलेपन ने घर कर लिया, जिसने गणनातीत मानसिक समस्याओं, अजनबीपन , अकेलेपन, निष्फल होते जाने की पीड़ा, व्यक्तित्व के अधूरेपन की कसक आदि को जन्म दिया। भानुमति देवी ने कहा-''एक पंखुरी देखी/उभर आए असंख्य विचार/रोते बार बार/हँसते बार बार/नहीं अंत खोज का/नहीं विराम चर्चा पर/और अंत में/शून्य ही शून्य।'' खोखलेपन और भीतरी अनिश्चितता के यथार्थ का अंकन करते हुए मोहराड्.थेम वरकन्या ने कविता रची-''बीनाई कमजोर पड़ गई हमारी/डाॅक्टर ने/प्रेस्क्राइब्ड कर दिए चश्मे/उल्लसित हम/पहले की सी बीनाई/पाने के उत्साह में/लेकिन गुड़गोबर हो गया सब/पर्वत, झील, नदी/पेड़-पौधे, खेत खलिहान/रंच मात्र हरियाली/दिखती नहीं वनस्पतियों में/सब कुछ बेरंग/चली गई शक्ति/दावानल मेें भस्म पर्वत-माला सा दृश्य/संसार राख के टीले की तरह/उसी पर चक्कर काटते/मटमैला सा चश्मा पहने/हाथ-पैरों से टटोलते/हरे रंग का एक निशान।'' रंजिता कोन्थौजम ने वर्तमान परिवेश के प्रभाव को न केवल मनुष्यों, बल्कि प्रकृति पर भी अनुभव किया-''चाँद की वद्र्धमान कलाएँ/घट कर तुरंत/बन गई अमावस्या/अनुभव कर लिया उन्होंने/इस आकाश में/असंभव है जी पाना उनके लिए।'' जिस आकाश का यथार्थ कवयित्री ने दर्शाया है, वह उस वातावरण का नियंता है, जिसमें मार काट और अपराधाओें का बोलबाला है। उसमें स्वार्थों की आपसी टकराहट और चोरोें की दुर्नीतियों का घृणास्पद खेला है। इस वातावरण और इसे संरक्षित करने वाले कारकों से कवयित्री सन्जेन्बम भानुमति इतनी परेशान हो उठती हैं कि वे सूर्य और चन्द्रमा तक से पूछने लगती हैं कि वे इस विद्रूप संसार पर अपना प्रकाश क्यों फैला रहे हैं और अपने लिए एक नए सौर-जगत की खोज क्यों नहीं करते ? वे 'क्या लाभ' शीर्षक कविता में कहती हैं-''हे सूर्य चन्द्र तारो !/समेट लेना नहींे चाहते अब भी/अपनी रौशनी ??/भाता है क्या देना मार काट को/चोरी को, अपराधी स्वभाव को/अपना प्रकाश ??/निर्मित करो, खोजो कोई दूसरा सौर जगत/जिस पर बिखरा सको निर्मल/अपनी आभा।'' 


मानवता के विरुद्ध भंयकरतम अपराध है, व्यक्ति को उसकी इयत्ता से काट देना। यह ऐसा ही है, जैसे किसी पक्षी के पंख काट कर या उसे जन्म लेेते ही पिंजरे में बंद कर उसकी उड़ने की शक्ति नष्ट करके उसे उड़ान भरने के लिए मजबूर किया जाए। आज ऐसा ही किया जा रहा हैै। कवयित्री इबेमपिशक देवी ऐसे तोते की व्यथा बयान करती हैं, जिसे इतने छोटे पिंजरे में बन्द कर दिया गया है कि वह ढंग से अपने पंख भी नहीं फड़फड़ा सकता। लम्बे समय तक लोहे के पिंजरे से लड़ते-लड़ते उसका स्वाभाविक हरा रंग धूमिल पड़ गया है, यहाँ तक कि उसका स्वर भी अपने दोस्तों जैसा नहीं रह गया है। फिर भी उसके भीतर का तोेता अभी पूरी तरह निष्प्राण नहीं हुआ है, इसीलिए उसे अपनी पूर्व की उछल-कूद के साथ ही पेड़ों पर लगे मीठे फल याद आते हैं। उसकी इच्छा होती है कि वह जंगल में लौट जाए, किन्तु ऐसा संभव नहीं हो पाता। उसे अपनी बेबसी सालने लगती है। ऊपर से उसे बंधक बना कर रखने वाले ही उसे उड़ने को उकसा कर उसका उपहास करने लगते हैंै। उनकी बार-बार की जाने वाली वही बातें उसे खीझ से भर देती हैं। 'गिर गया था' शीर्षक कविता का तोता अपनी जिजीविषा और विवशता के द्वन्दव को इन शब्दों में बयान करता है- ''मेरा हरा रंग तक/बदल गया धूमिल रंग में/मेरा स्वर/नहीं रहा मित्रों जैसा/सुस्वादु फल/उछल-कूद यहाँ से वहाँ/फड़फड़ाना पंख/स्वच्छन्द जीवन वन का/जब भी आया सूरज पहाड़ के नजदीक/लौटने की चाह जगी मेरे भीतर भी/मन में आया फड़फड़ाऊँ पंख एक बार/फँस कर गिर गया इस पिंजरे के भीतर/घिरे हुए इस पिंजरे में।'' कवयित्री यहीं तक सीमित नहीं रही। उसने उन लोगों के स्वभाव, स्वरूप और कार्य-पद्धति का भी पर्दाफाश किया, जिन्होंने इस तोेते को उसके मूल अधिकार, उसकी स्वाधीनता से वंचित किया। शहराती चाल-चलन वाले ये लोग मनुष्यता से परे हैं, क्योंकि इनके विचारों में मात्र पशुता बची है। इनके लिए सह-अस्तित्व, सहयोग, प्रेम-प्यार, सदाशयता आदि का कोई महत्व नहीं है, इसीलिए- ''उस नगर में/होते हैं कुछ लोगों के सिर बाघ के/क्षणिक बुभुक्षा में लील जाते/बेचारे निरपराध जीवों को/''''उस विकसित नगर में/आखेटक के पीछा करने से/हिंस्र बाघ के भागने से/धूल से अट जाती हैं/नगर की चमचमाती इमारतें।''
  मणिपुरी समाज को आन्दोलित करने वाली व्यापक चिन्ताओं के साथ-साथ कवयित्रियों ने दैनन्दिन जीवन और सामाजिक रिश्तों को प्रभावित करने वाली समस्याओं को भी अपनी कविताओं में उठाया है। उदाहरण के लिए निर्धनता और उसके स्त्री पर पड़ने वाले प्रभाव को कोइजम शान्तिबाला ने इन शब्दों में चित्रित किया है-''लावण्यती/नाटक के अभिनय में/मन्त्री की पत्नी/बनी सना इबेमा/करके ललित अभिनय/मनुहार करती मन्त्री की/आग्रह करती हार बनवाने की/मिले रुपये से/लौटती है घर/भूखी/निर्बल माँ/छोट-छोटे बच्चे।'' इसी प्रकार विश्व प्रसिद्ध झील, 'लोकताक' की दुर्दशा पर चिंता व्यक्त करते हुए अनेक कवयित्रियों ने रचनाएँ की हैं। जंगल कटते चले जाने से पर्यावरण असंतुलन का संकट उत्पन्न हो गया है। इसके बावजूद यह प्रक्रिया जारी है। तोनजम कमला चनु इस समस्या को उठाते हुए कहती हैं-''कुल्हाड़ी कंधे पर/आ पहुँचा लकड़हारा/जंगल तक/देख विशाल वृक्ष/लकड़हारा मुस्कराया/जंगल भी उसे देख कर/मुस्कराया होगा क्या धीरे-धीरे/या रो पड़ा होगा विदीर्ण हृदय।''


इन सारे पक्षों के साथ मणिपुरी भाषा की कवयित्रियों ने मातृ-भूमि के प्रति जो जुड़ाव अनुभव किया है, वह अनुकरणीय है। इस जुड़ाव की विशेषता यह है कि इसमें भाववादी शैली मेें मातृभूमि का गुणानुवाद नहींे है, बल्कि उसकी उन्नति की चिन्ता है। इन कवयित्रियों का मानना है कि जब तक हम पारस्परिक फूट का शिकार रहेंगे, मातृभूमि की आँखों के आँसू नहीं पोंछ पाएँगे। इस फूट और विभेद को मिटाने का भी सबसे सार्थक उपाय यह है कि हम सब अपने सामाजिक-धार्मिक विभेदों को सदा के लिए तिलांजलि देकर अपने को केवल और केवल मनुष्य समझना प्रारंभ कर दें। सच्चे मातृभूमि प्रेम की यही कसौटी है। चिड्.गाड्.बम चन्द्रकला देवी अपनी एक कविता मेें कहती हैं-''हे मनुष्य/तुम इतने हिंस्र/तुम इतने मूर्ख/नहीं परिचित मनुष्यता से ?/'''' मैं तुम वह/हिन्दू मुस्लिम क्रिश्चियन/पहाड़ी मैदानी सब/हैं संतान जन्म भूमि की/विस्मृत कर दिया, हैं बहिन-भाई ?/ईष्र्या-द्वेष के विचार ने/विभक्तिकरण अपनी पराई भूमि का/क्यों इतनी रुचि से/हृदय से लगाया लड़ाई को/एक होकर बंध जाएँ हम/एकता के सूत्र में/गाँठ लगाएँ मजबूत/प्रेम के धागे से/दिखाएँ एकता की शक्ति/मनुष्य हैं हम सब।''
 मणिपुरी भाषा की कवयित्रियों का यह आह्वान भावी काव्य-विकास के प्रति निश्चय ही आश्वस्त करने वाला है। 
   


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अवधेश कुमार यादव साभार http://chauthisatta.blogspot.com/2016/01/blog-post_29.html   प्रजातांत्रिक देशों में सत्ता का संचालन संवैधानिक प्रावधानों के तहत होता है। इन्हीं प्रावधानों के अनुरूप नागरिक आचरण करते हैं तथा संचार माध्यम संदेशों का सम्प्रेषण। संचार माध्यमों पर राष्ट्रों की अस्मिता भी निर्भर है, क्योंकि इनमें दो देशों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को बनाने, बनाये रखने और बिगाड़ने की क्षमता होती है। आधुनिक संचार माध्यम तकनीक आधारित है। इस आधार पर सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला- उन्नत संचार तकनीक वाले देश, जो सूचना राजनीति के तहत साम्राज्यवाद के विस्तार में लगे हैं, और दूसरा- अल्पविकसित संचार तकनीक वाले देश, जो अपने सीमित संसाधनों के बल पर सूचना राजनीति और साम्राज्यवाद के विरोधी हैं। उपरोक्त विभाजन के आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व वर्तमान समय में भी दो गुटों में विभाजित है। यह बात अलग है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्काल बाद का विभाजन राजनीतिक था तथा वर्तमान विभाजन संचार तकनीक पर आधारित है। अंतर्राष्ट्रीय संचार : अंतर्राष्ट्रीय संचार की अवधारणा का सम्बन्ध

निर्मला पुतुल के काव्य में आदिवासी स्त्री

वंदना गुप्ता                                          समकालीन हिंदी कवयित्रियों में श्रीमती निर्मला पुतुल एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आदिवासी जीवन का यथार्थ चित्रण करती उनकी रचनाएँ सुधीजनों में विशेष लोकप्रिय हैं। नारी उत्पीड़न, शोषण, अज्ञानता, अशिक्षा आदि अनेक विषयों पर उनकी लेखनी चली है। गगन गिल जी का कथन है - ''हमारे होने का यही रहस्यमय पक्ष है। जो हम नहीं हैं, उस न होने का अनुभव हमारे भीतर जाने कहाँ से आ जाता है? .... जख्म देखकर हम काँप क्यों उठते हैं? कौन हमें ठिठका देता है?''1 निर्मला जी के काव्य का अनुशीलन करते हुए मैं भी समाज के उसी जख्म और उसकी अनकही पीड़ा के दर्द से व्याकुल हुई। आदिवासी स्त्रियों की पीड़ा और विकास की रोशनी से सर्वथा अनभिज्ञ, उनके कठोर जीवन की त्रासदी से आहत हुई, ठिठकी और सोचने पर विवश हुई।  समाज द्वारा बनाए गए कारागारों से मुक्त होने तथा समाज में अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए नारी सदैव संघर्षरत रही है। सामाजिक दायित्वों का असह्य भार, अपेक्षाओं का विशाल पर्वत और अभिव्यक्ति का घोर अकाल  नारी की विडंबना बनकर रह गया है। निर्मला जी ने नारी के इसी संघर्ष