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नगरों में मरती मानवीय संवेदना


डाॅ. बेगराज यादव
विभागाध्यक्ष (बीएड)
मौलाना मौहम्मद अली जौहर हायर 
एजुकेशन इंस्टीट्यूट, किरतपुर, बिजनौर


 


मानवीय संवेेदना से अभिप्राय उस प्रत्येक चिंता है जो मनुष्य को मनुष्य से जोड़ती है, और निसके फलस्वरूप मनुष्य अपने व्यक्तिगत वृत को लाँघकर अपने पास-पड़ोस, समुदाय समाज, क्षेत्र तथा राष्ट्र का हित-चिंतन करता है और जो इस प्रक्रिया के उच्चतम स्तर पर पूर्ण विश्व में होने वाली घटनाओं में भी आन्दोलित होती है। संवेदना हृदय की अतल गहराई से आवाज देती प्रतीत होती है। संवेदना को किसी नियम अथवा उपनियम में बांधकर नहीं देखा जा सकता है। संवेदना की न तो कोई जाति होती है और न ही कोई धर्म। संवेदना मानवीय व्यवहार की सर्वोत्कृष्ट अनुभूति है। किसी को कष्ट हो और दूसरा आनंद ले, ऐसा संवेदनहीन व्यक्ति ही कर सकता है। खुद खाए और उसके सामने वाला व्यक्ति भूखा बैठा टुकर टुकर देखता रहे, यह कोई संवेदनशील व्यक्ति नहीं सह सकता। स्वयं भूखा रहकर दूसरों को खिलाने की हमारी परंपरा संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है। संवेदना दिखावे की वस्तु नहीं बल्कि अंतर्मन में उपजी एक टीस है, जो आह के साथ बाहर आती है। संवेदना मस्तिष्क नहीं बल्कि दिल में उत्पन्न होती है। यही संवेदना मनुष्य को महान और अमर बना देती है। सरलाॅक होम्ज ने कहा है - संसार के महान व्यक्ति अक्सर बड़े विद्वान नहीं रहते, और न ही बड़े विद्वान महान व्यक्ति हुए हैं।



विद्वान होना अलग बात है और संवेदनशील होना अलग बात है। विद्वान के पास पुस्तकों और शास्त्रोक्त ज्ञान का भंडार बहुत हो सकता है परंतु उसके पास संवेदना हो यह आवश्यक नहीं है। उसी तरह धनाढ्य व्यक्ति के पास धन की अधिकता हो सकती है परंतु उसके पास संवेदना हो यह कतई आवश्यक नहीं है। यदि ऐसा होता तो उड़ीसा में एक व्यक्ति जो न तो धनाढ्य था न ही विद्वान था और न ही महान था परंतु संवेदनशील था। वह अपनी पत्नी के शव को अस्पताल में ही कंधे पर रखता है और अपने गाँव की ओर चल देता है। उस समय न तो कोई धनाढ्य उसकी मदद करता है और न ही कोई विद्वान। जिससे स्पष्ट होता है कि वहाँ मौजूद सभी व्यक्तियों की संवेदना मर चुकी थी। संवेदना क्या होती है? इसका एक उदाहरण प्रस्तुत है, अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने एक बार मार्ग से गुजरते हुए एक बीमार सूअर को कीचड़ में फँसे हुए देखा तो वह परेशान हो उठे, उन्होंने अपने मन की आवाज को सुना और उस सूअर को बचाने के लिए कीचड़ में कूद पड़े, सूअर को बाहर निकालकर उनहोंने चैन की सांस ली। वहाँ मौजूद लोगों ने हैरानी से पूछा तो वे बोले - मैंने सूअर को बचा कर अपने हृदय की वेदना का बोझ दूर किया है। 



परिस्थिति के बदलने के साथ ही व्यक्ति की संवेदनशीलता के पहलू भी बदलते है, एक समय में जो बात या घटना, मन पर गहरी छाप छोड़ जाती है, जरूरी नहीं दूसरी बार भी अपनी ओर ध्यान देने को बाध्य कर सकें।



अटल बिहारी वाजपेयी के अनुसार- सुनने वाले और सुनाने वाले के बीच तुम और मैं की दीवार टूट जाती है, जहाँ एकाकार हो जाता है। वहीं संवेदना की अवधारणा होती है।



वर्तमान की बात करें तो संवेदना या तो अपने लिए रह गई है अथवा अपनों के लिए। आज दुनिया में आतंकवाद लगातार बढ़ रहा है। संवेदना के नाम पर धर्म का बहाना लिया जाता है और लगातार खून बहाया जाता है। जबकि कोई धर्म नहीं कहता कि एकदूसरे का खून बहाओ। आइएसआइएस आतंकवादी इराक में हज़ारों लड़कियों, औरतों को जनवरों की तरह मंडी लगाकर बेचते हैं, रातों रात हज़ारों लोगों को गाजर मूली की तरह काट दिया जाता है। हमारे ही देश में जन्नत का ख्वाब देखने वाले स्वयं भी मरते हैं और दूसरों को भी मार डालते हैं। कहने का तात्पर्य है कि धर्म के नाम पर भी मानवीय संवेदनाएं मारी जा रही हैं। ऐसे में एक का धर्म दूसरे के लिए अधर्म बनता जा रहा है। यही काम राजनीति भी कर रही है। सीमा पर तैनात जवान हमले में शहीद होते हैं तो तब राजनीति के धुरंधर यहाँ तक कह देते हैं कि जवान तो मरने के लिए ही होते हैं। शहीद जवान से राजनीति को कोई हमदर्दी नहीं है। किसी ग़रीब के घर अपना सामान ले जाकर रोटी खाने का नाटक किया जाता है मगर यही राजनीति किसी शहीद के घर नहीं जाती है। 



आज प्रतिस्पर्धा के दौर में मानवीय संवेदना पूरी तरह से मृत हो गई है। आमजन के सामने हत्या लूट-पाट हो जाती है और वो सिर्फ तमाशबीन बन देखता रह जाता है, किसी के साथ कोई सड़क दुर्घटना हो जाए तो तमाशबीनों की कमी नहीं होती। अक्सर किसी व्यक्ति के सामने कुछ ग़लत हो रहा होता है तो उस समय वह संवेदनशील होने के बजाय यह सोचकर चल देता है कि समय ख़राब करने और कानून के पचड़े में फंसने से क्या लाभ? वह नहीं जानता कि उसकी यह लापरवाही किसी की जान तक ले लेती है। और फिर एक समय वह भी आता है जब वही व्यक्ति दिखावे के लिए सड़क पर मोमबत्ती लेकर पैदल मार्च कर संवेदना प्रकट करता है और अगले दिन जल्दी उठकर अख़बार में अपना नाम या फोटो देखता है। यदि उसका नाम या फोटो छपा होता है तो पूरे दिन उसका जिक्र करता है और नहीं छप पाता तो पूरे दिन अख़बार वालों को गरियाता फिरता है। क्या है ये सब? हमें कुछ तो विचार करना ही पड़ेगा। अगर हम मुंबई, संसद, पठानकोट, उड़ी पर चुप हो जाते हैं तो पुलवामा का नतीजा सामने आता है। यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि जिन लोगों की संवेदनाएं मर चुकी हैं उन लोगों का भी जल्दी ही मर जाना अच्छा है। जो लोग दूसरों को मारकर जश्न मनाते हैं वह किसी भी रूप में मानवीय समुदाय में रहने योग्य नहीं होते। ऐसे लोग धर्म और समाज दोनों के नाम पर कलंक होते हैं। 



संवेदनशीलता के मर जाने का एक बड़ा कारण बढ़ती जनसंख्या और उसमें रोटी के लिए संघर्ष भी है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार बीस-पच्चीस सालों में दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या साठ से अधिक हो जाएगी। चैंकाने वाली बात यह है कि शहरों में ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। विशेषज्ञ आशंकित हैं कि कहीं भारत की बड़ी आबादी शहरी मलिन बस्तियों में न तब्दील हो जाए। 



देश में सौ नए शहर बसाने की तैयारी हो रही है। नए शहर का मतलब होगा कुछ हज़ार-लाख एकड़ उपजाऊ खेतों का कंक्रीट में बदल जाना, पानी के परंपरागत स्रोतों की बलि, हरियाली और नैसर्गिकता का विनाश। और नए संकट होंगे बिजली और पानी की किल्लत, सड़कों पर जाम और चारों तरफ कचरा। रीयल इस्टेट, सीमेंट लोहे का कारोबार बढ़ने से भले ही कुछ लोगों को रोजगार मिलेगा। इसे विकास भी कहा जाएगा। विकास में व्यक्ति, समुदाय और प्रकृति वगैरह सबका कल्याण शामिल होता है। लेकिन यहाँ विकास के रूप में धीमा ज़हर हमारी सांसों में घुलता जाएगा और फिर परिणाम सभी जानते हैं, कहने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में यह भी विचारना उचित ही है कि क्या गाँव में मूलभूत सुविधाएं, परिवहन और संचार, कुटीर उद्योग को सशक्त कर देश के जीडीपी में इजाफा नहीं किया जा सकता? भारत में संस्कृति, मानवता और बस्तियों का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है। लेकिन आज नदियों की धार अवरूद्ध हो गई है। आबादी और औद्योगिक इकाइयों का गंदा पानी नदियों को समाप्त कर रहा है। 
नगरों में मरती माननवीय संवेदना के कारण



1- तीव्र गति से बढ़ती नगरीय जनसंख्या
2- तीव्र गति से बढ़ती शिक्षित बेरोजगारी
3- नैतिक मूल्क प्रेरक शिक्षा का अभाव
4- प्रतिस्पर्धा का दौर
5- संयुक्त परिवार का विघटन, एकाकी परिवार में वृद्धि
6- बच्चों के सामुहिक खेलों का अभाव
7- मोबाइल का अत्यधिक बढ़ता उपयोग।
8- दूरदर्शन पर भ्रमित करते धारावाहिक।
9- मिडिया द्वारा छोटे-छोटे घटनाओं की अधिक बढ़ाकर बताना।
10- घट रहा आपसी भाईचारा।
11- स्वयं की अधिक से अधिक घर की चार दीवारी में समेटना।
12- व्यक्तिगत वाहनों की संख्या में वृद्धि
13- लूटपाट की वारदातों में वृद्धि
14- भावुकता का नजायज लाभ उठाना
15- दूषित पर्यावरण
16- बच्चे का घर में अकेले रहना
17- बच्चों को संवेदनाओं वाली कहानी व दुनाना।
18- गाँव में ही रोजगार के अवसर उपलब्ध न कराना। 


भारत में संस्कृति, मानवता और बस्तियों का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहाँ जगह मिली वह वहीं बहने लगी। यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। असल में, पर्यावरण को हो रहे नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशक में यह प्रवृत्ति पूर देश में बढ़ी है कि शहरों या कस्बों की सीमा से सटे खेतों में अवैध कालोनियां उग आई हैं। बाद में वहाँ कच्ची-पक्की सड़क बना कर आसपास के खेत, जंगल तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगलों में बदल दिया गया। 



देश के अधिकांश शहर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। न तो वहाँ सार्वजनिक परिवहन है, न ही सुरक्षा, न बिजली-पानी। देश में बढ़े काले धन को जब बैंक या घर में रखना जटिल होने लगा तो जमीन में निवेश का सहारा लिया जाने लगा। इससे खेत यानी जमीन की कीमतें बढ़ीं। पारंपरिक शिल्प और रोजगार से पेट न भरने की वजह से लोग शहरों की ओर भागने लगे। 



केवल पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं, शहर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषण से भी ग्रस्त हो रहे हैं। लोग मानवीय संवेदनाओं से, अपनी लोक परंपराओं और मान्यताओं से कट रहे हैं। तो क्या लोग गाँव में ही रहें? क्या विकास की उम्मीद न करें? ऐसे कई सवाल शहरीकरण में अपनी पूंजी को हर दिन कई गुणा होते देखने वाले कर सकते हैं। 



इंसान की क्षमता, ज़रूरत और योग्यता के अनुरूप उसे अपने मूल स्थान पर अपने सामाजिक सरोकारों के साथ जीवनयापन करने की सुविधाएं मिलनी चाहिए। अगर विकास के प्रतिमान ऐसे होंगे तो शहर की ओर लोगों का पलायन रुकेगा। इससे धरती को कुछ राहत मिलेगी। 



किसान या तो शहरों में मजदूरी करने लगता है या फिर जमीन की अच्छी कीमत हाथ आने पर कुछ दिन तक उसी में डूबा रहता है। दो दशक पहले दिल्ली नगर निगम के एक सर्वेक्षण में पता चला था कि राजधानी में अपराध में ताबड़तोड़ बढ़ोतरी के सात मुख्य कारण हैं। 



अवांछित पर्यावरण, उपेक्षा और ग़रीबी, खुला आवास, बड़ा परिवार, नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के विचारों में टकराव और नैतिक मूल्यों में गिरावट। वास्तव में, यह रिपोर्ट केवल दिल्ली ही नहीं, दूसरे महानगरों और शहरों में भी बढ़ते अपराधों का भी खुलासा करती है। ये सभी कारक शहरीकरण की त्रासदी की सौगात हैं। 



आर्थिक विषमता, अंधाधुंध औद्योगिकीकरण और पारंपरिक जीवकोपार्जन में बदलाव की वजह से शहरों की ओर पलायन ज्यादा बढ़ा है। इसके लिए सरकार और समाज दोनों को साझा कोशिश करनी होगी। वर्ना, कुछ ही सालों में देश के सामने शहरीकरण की कठिनाइयां इतनी विकराल होंगी कि महानगर बेगार, लाचार और बीमार लोगों से ठसाठस भरे होंगे, और गाँव उजाड़ हो जाएंगे। प्रकृति विनाश गाँवों में उच्च या तकनीकी संस्थान खोलना, स्थानीय उत्पादों के मद्देनजर ग्रामीण अंचलों में छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना, खेती के पारंपरिक बीज, खाद और दवाओं को प्रोत्साहित करना- ये कुछ ऐसे उपाय हैं, जो पलायन रोक सकते हैं। 



हम गाँव से शहर की ओर तो बढ़ रहे है, और पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण कर रहे है, लेकिन हम अपनी विंब प्रसिद्ध संस्कृति कोे खो रहे है। हम अपनी उस संस्कृति से अपने बच्चों अंजान रख रहे है, जिसके बल पर हम विश्व में पूजे जाते थे। हम विकास कर रहे है, हमारा समााज, देश भी विकास कर रहा है, लेकिन यह विकास तकनीकी रूप से हो रहा है, वास्तव में देखे तो हमारी संस्कृति का छात्र हो रहा है। भविष्यवादिता का में पक्षधर नहीं हैं, लेकिन अपनी संस्कृति की रीढ़ संवेदनाओं को होड़ में विकास के सपने देश ऐसा कदापि नहीं हो सकता है। मेरी सफलता की खुशी मैं अकेले नहीं मना सकता उसके लिए मुझे अपने लोग समाज में चाहिए साथ ही मुझे दुख से उभारने के लिए अपने लोगों की संवेदनाओें की अत्यधिक आवष्यकता होगी। संवेदनाओं के द्वारा हम आपस में जुड़े हुपे हे, इसके अभाव में हम सभी बिखर जाएंगे।



गाँव की अपेक्षा शहरों के लोगों की संवेदनाओं में अधिक छाप हुआ है। लेकिन प्राचीन काल से तुलना करें तो हाथ दोनों जगह हुआ है। हमें वास्तव में दुख के उभरना हो या खुशी मनानी ही दोनों में ही लोगों संवेदनाओं की अपेक्षा रहती है।
शहरों में मरती संवेदनाओं को रोेकने के लिए कुछ सार्थक प्रयास करने आवश्यक है।
1- बढ़ती नगरीय जनसंख्या पर अंकुश लगाना
2- योग्यतानुसार उचित रोजगार के अवसर उपपलब्ध कराना
3- पर्यावरण को स्वच्छ हरा-भरा बनाना
4- नैतिक शिक्षा का उचित प्रबंध
5- स्वच्छ प्र्रतिस्पर्धा एक दूसरे के सहयोग के साथ
6- संयुक्त परिवार को बढ़ावा देना
7- सामुहिक खेली को अधिक बढ़ावा देेना
8- संवेदनाओं में वृद्धि करने वाले धारावाहिकों का अधिक प्रसारण
9- बच्चों को संवेदना प्रेरक कहानी सुनाना
10- समाज में आपसी भाई-चारा बढ़ाना
11- आस-पास ;पड़ोसियोंद्ध के सुख-दुुख में शरीक होना
12- एक दूसरे के साथ खुशी बांटना
13- सभी त्यौहार मिल-झुलकर मनाना



आज हम विकासशील से विकसित भारत का सपना लेकर तो चल रहे है, उच्च तकनीकी से हम अन्य संस्कृतियों के करीब आए हैं और उनको अपना भी रहे है, हम भविष्यवादी समाज से भी निकल रहे है। लेकिन यह भी सच है कि हम अपनी विश्व धरोहर संस्कृति को भूलते जा रहे है या उसे नजर अंदाज़ कर रहे है। आज हम घर, बाहर, दफ्तर में अपने एंडराॅयड फोन में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि हमें अपने घर पर बच्ची बुजुर्गों पर भी ध्यान नहीं दे पाते है। हम अपना अधिकांश समय मोबाइल पर खर्च कर रहे है। ऐसे में हम अपने बच्चचों से कैसे संवेदनाओं की अपेक्षा कर सकते है। दूूसरी तरफ शायद हम सफर में भी मोबाइल में दूरी व्यप्त हो जाते है कि हमें पता ही नहीं रहता कि हमारे पाद कब कहां कौन बैठा और कौन गया। प्रतिदिन कई घटनाएं ऐसी मिल जाती है जब व्यक्ति मोबाइल में व्यस्त ही कर मानवीय संवेदनाओं का गला घोट देता है। ऐसे में हम मरती मानवीय संवेदनाओं को नहीं रोक पाएंगे।


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