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प्रेम शिशु


अर्चना राज


 


अँधियारे एकांत मे कभी बाहें पसारे अपलक निहारा है चाँद को 
बूँद-बूँद बरसता है प्रेम रगों मे जज़्ब होने के लिए 
लहू स्पंदित होता है -धमनियाँ तड़कने लगती हैं 
तभी कोई सितारा टूटता है एक झटके से  
पूरे वेग से दौड़ता है पृथ्वी की तरफ़ 
समस्त वायुमंडल को धता बताते हुए,


बिजलियाँ ख़ुद में महसूस होती हैं 
तुरंत बाद एक ठहराव भी हल्के चक्कर के साथ, 


स्याहियाँ अचानक ही रंग बदलने लगती हैं 
लकीरों मे जुगनू उग आते हैं और नदी नग़मे में बदल जाती है 
ठीक इसी पल जन्म होता है बेहद ख़ामोशी से एक प्रेम शिशु का ख़ुद में,


तमाम उदासियाँ -तनहाइयाँ कोख की नमी हो जाती हैं 
महसूस होता है स्वयं का स्वयं के लिए प्रेम हो जाना,


अब और किसी की दरकार नहीं,
बहुत सुखद है प्रेम होकर आईना देखना 
अकेले ही ...... !!!


 


क़तरा-क़तरा दर्द से


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