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स्मृृतियों के कैनवास पर : स्व० हरिपाल त्यागी

 


 

 

बाबा नागार्जुन की पंक्तियाँ, रह-रह कर स्मरण आ रही है 

 

सादौ कगद हो भले, सादी हो दीवाल।

रेखन सौ जादू मरे कलाकार हरिपाल।।

इत उत दीखै गगंजल, नहीं जहां अकाल।

घरा धन्य बिजनौर की, जहां प्रगटे हरिपाल।।

 

और हरिपाल अंकल का, मुस्कुराता चेहरा स्मृतियों के कैनवास पर, अनायास साकार हो रहा है। बिजनौर की धरती, साहित्य कला, राजनीति, पत्रकारिता आदि विभिन्न सन्दर्भ में, उर्वरा रही है। स्व० हरिपाल त्यागी का मुझ पर असीम स्नेह और आर्शीवाद रहा। अपने बचपन में ही, घर पर आने वाली, पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों के माध्यम से बाल सुलभ जिज्ञासा के चलते शब्द ओर चित्रों का आकर्षण अपनी ओर खींचने लगा था। बचपन, अपने ननिहाल ग्राम पैंजनियाँ जनपद बिजनौर, उ0प्र0 में नाना श्री स्व0 शिवचरण सिंह के सरंक्षण में बीता। उनका स्थान, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी इतिहास में, अपना एक अलग महत्व रखता हैप्रख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी (कानपुर) की उन पर महती अनुकम्पा थी, और उन्हीं के माध्यम व निर्देश पर नाना श्री के गांव पैजनियाँ में काकोरी काण्ड के ठाकुर रोशन सिंह, अशफाक उल्ला खाँ, अवनीकांत मुकंजी (मिदनापुर), राम सिंह, चुन्नीलाल (पंजाब), अप्पाराव (महाराष्ट्र) जैसे क्रान्तिकारियों ने अज्ञातवास किया था, तथा नाना श्री ने, अपने साधनों से क्रान्तिकारियों को हथियारों की सप्लाई का खतरनाक कार्य, अफगानिस्तान, तिब्बत, श्री लंका आदि से एक लम्बे समय तक किया।

 

यहां यह भी, उल्लेखनीय है कि, हिन्दी जगत के तुलनात्मक आलोचना के जनक स्व० पण्डित पद्र्मसिंह शर्मा (नायक नंगला) उनके खानदानी चाचा थे। जिनके यहाँ मुंशी प्रेमचन्द, नाथूराम शंकर शर्मा, अकबर इलाहावादी, शिकार कथा के प्रसिद्ध लेखक श्री राम शर्मा आदि का आना-जाना लगा रहता था। नाना श्री- महात्मा गांधी, सेठ जमना लाल बजाज, महादेव देसाई, रवीन्द्रनाथ टैगोर, पण्डित मदन मोहन मालवीय, अरविन्द घोष, रमण महर्षि, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, सुमित्रा नन्दन पंत, बनारसी दास चतुर्वेदी आदि, अपने समय के अनेक प्रख्यात विभूतियों के भी निकट सम्पकी रहे

 

नाना श्री के इसी गौरवशाली परिवेश का लाभ, अपने बचपन में मुझे भी मिला और साहित्य व कला के साथ-साथ अपनी जिज्ञासा के चलते, जीवन दृष्टि को एक परिपक्व तथा स्पष्ट दिशा बोध, स्वतः ही मिल गया।

 

उ0प्र0 के छोटे से इस जनपद बिजनौर में हिन्दी गजल विद्या के मसीहा दुष्यन्त कुमार, व्यंग्य विद्या के महत्वपूर्ण स्तम्भ रवीन्द्रनाथ त्यागी (महुवा) तथा उनके चचेरे भाई हरिपाल त्यागी जी भी, पैजनियाँ आते-जाते रहे। आगे चल कर इनका महत्व जाना, पीछे छूटे बचपन के साथ, जीवन की गुरू गम्भीर डगर पर इन विभूतियों का स्नेह मुझ पर, बना रहा।

 

स्व0 हरिपाल अंकल तो, इस क्रम में मेरे परिवार के लिये एक अभिभावक ही थे। कला और साहित्य में तो उनका, सर्वोच्च स्थान है ही, लेकिन मेरे लिये तो अपने परिवार के कैनवास पर, उनका कलाकार आज भी, स्मृतियों के चित्र उकेरने में व्यस्त है। जहां तक मुझे स्मरण आ रहा है, वर्ष 1977 या 1978 रहा होगा, हरिपाल अंकल ने "स्पार्टसक्स” शीर्षक से अपनी कृति, मुझे दी। उस पर मोती से चमकते कलात्मक अक्षरों में लिखा था "प्रिय भोला के लिये' और बस यह सिलसिला, अन्त तक बना रहा।

 

मेरे बिजनौर आवास पर उनके साथ अनेके विभूतियाँ, समय-समय पर पधारती रहीं। कभी आशा रानी व्होरा तो कभी डा0 कर्ण सिंह चौहान, कभी बाबा नागार्जुन तो कभी भीमसेन त्यागी, मुझे बरबस याद आ रहा है वह क्षण, जब एक दिन शाम के समय मेरी धर्मपत्नी डा0 ऊषा त्यागी, किचन में व्यस्त थीं, तभी बाहर हरिपाल अंकल की खनकती आवाज़ सुनाई दी। देखा तो, श्री भीमसेन त्यागी उनके साथ थे। 'आदमी से आदमी तक' का सफर, साक्षात सामने था। अगले चार-पाँच दिन कब बीत गये? पता ही नहीं चला। शहर भर से लोग बाग, आते जाते रहे, कभी श्रद्धेय बाबूसिंह चौहान, शकील बिजनौरी, तो कभी निश्तर खानकाही, अजय जन्मजेय। लगा, बाहर ड्राइंग रूम में साहित्य और कला की, प्राण प्रतिष्ठा हो चुकी थी। लोग बाग आते, मिलते-जुलते और समय कब, ठहाकों और निश्च्छल मुस्कान के बीच, कला और साहित्य की महीन बतकहियों में 'मिल्खा सिंह' बन जाता, अहसास ही नहीं हुआ। यह सिलसिला पिछले तीन दशकों से चलता रहा।

 

जब कभी दिल्ली जाना हुआ, तो सादतपुर में हरिपाल अंकल का घर ही ठिकाना हुआ करता। वहां बिखरा निश्च्छल स्नेह, समेटे नहीं सिमटता। मेरी धर्मपत्नी डा0 ऊषा त्यागी के शोध विषय 'बीसवीं शती के हिन्दी साहित्य सवंर्धन में जनपद बिजनौर का योगदान' में हरिपाल अंकल का सक्रिय सहयोग शोध को, और भी प्रमाणिक बना गया।

 

मेरे बेटे विनायक और बेटी स्वाति का बचपन, अंकल की गोद में बीता। उनके बाल सुलभ सवालों का, सहज समाधान हरिपाल अंकल के पास रहता। इन्ही सब बातों के चलते, दोनों बच्चे कलात्मक दृष्टि के सवाहक बन गये हैं बेटा विनायक तो कानून और कला के क्षेत्र में अपनी कीर्ति पताका फहराने में व्यस्त है, और बेटी स्वाति डेनमार्क में अपनी व्यवसायिक कुशलता में। विनायक, तो शब्द और रंगों का, स्वयं में एक खूबसूरत संयोजन लगता है। जब अप्रैल 2019 में दिल्ली में हरिपाल अंकल बीमार थे, तो ऊषा और मेरे साथ विनायक भी उनके दर्शन के लिये गया था। अंकल को बोल पाने में कष्ट हो रहा था, चेहरे पर रहने वाली स्मित, व्याधि की औट में जा छिपी थी - लेकिन उनकी आँखे, बरबस संवाद कर रही थीहमें लग गया था कि कला और शब्दों का यह सूर्य अपने, अवसान की और बढ़ चला है, सभी की आँखें पनियां उठी थीं। तभी हरिपाल अंकल ने, विशाल को संकेत कर अपनी कुछ बहुमूल्य कलाकृतियाँ निकलवायीं, उनमें से एक कलाकृति विनायक की पसन्द से, उसे अपने आर्शीवाद के साथ जब दी, तो हम सबकी वाणी अवरूद्ध हो गई, आँखें छलक उठीं। लेकिन, अंकल अपनी रोग शय्या पर, मानों 'उत्तरायण की प्रतिक्षा' का बोलता चित्र बन चुके थे।

 

भाई रूपसिंह चंदेल, का फोन आया तो उन्होंने अंकल के स्वास्थ्य की ताजा जानकारी चाही, मैंने जव बताया, तो वह चिन्तित हो उठे। बीमारी के चलते कमजोरी बढ़ गई थी, लेकिन हरिपाल जी के चेहरे पर वहीं फौलादी निश्चय की छाया पूर्ववत कायम थी

 

लौटते समय बेटा विनायक, अपनी गाड़ी ड्राइव कर रहा था, ऊषा और में साथ में बैठे थे। हमारे बीच, मौन पसरा था, और विनायक अपने पास रखी, हरिपाल अंकल द्वारा दी गई कलाकृति को रह-रह कर निहारता रहा। घर पहुँचते ही, सबसे पहले वह चित्र उसने अपने सामने दीवार पर लगाया तो मुझे लगा कि हरिपाल अंकल की सभी स्मृतियाँ ही, सामने जा टंगी थी।

 

1 मई 2019 को फोन द्वारा हरिपाल अंकल के महाप्रयाण का समाचार मिला, तो सब स्तब्ध रह गये। कला और साहित्य के साथ ही, एक अपूर्णनीय क्षति थी-यह मेरे परिवार के लिये। अंदर तक बेधती, अंकल की विलक्षण आँखों से झांकता स्नेहिल कलाकार और साहित्कार अब, इतिहास बन चुका था। हिन्दी और कला जगत के साथ ही, उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर ने तो मानों अपना अमूल्य रत्न ही खो दिया। बाबा नागार्जुन की पंक्तियां रह-रह कर, ज़हन में कौघनें लगीं।

 

अपने ग्राम 'महुवा' की नशीली महक लिये, कला और शब्दों का चितेरा अब स्मृतियों में कैद है। उनके तहेरे भाई स्व0 रवीन्द्रनाथ त्यागी, सुप्रसिद्ध  व्यंग्यकार रहे। गांव की मिट्टी से निकले, इन दोनों रत्नों ने समूचे कला और सहित्य जगत में अपने 'त्यागी' सरनेम का पंचम लहराया। लोभ और स्वार्थ से कोसों दूर रहे और जहाँ-जहाँ रहे, वहाँ इंसानियत आबाद होती गई। कला और शब्दों की समझ थिरकने लगी।

 

हरिपाल अंकल के कारण ही बिजनौर का 'इमलिया परिसर' ,  दिल्ली का सादतपुर कहा जाता है, मेरी छोटी सी कुटिया "विनायकम' पर स्व0 रामप्रसाद मिश्र, अलका सिन्हा, डा0 रामदरश मिश्र, डा0 महेश दिवाकर, रामकुमार कृषक, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, बल्लीसिंह चीमा, डा0 रामगोपाल भारतीय, महेन्द्र अश्क शिवबाबू मिश्र जैसे शब्दों के जादूगर पधारते रहे हैं, लेकिन इन सबके मूल में, हरिपाल अंकल की स्मृतियाँ अपना एक अलग ही महत्व रखती हैं। भाई नवीन, निर्दोष, विशाल से आत्मीय रिश्ता बन चुका है। बहिन श्वेता और अनिल अत्री की चर्चा हमेशा बनी रहती है शीला आंटी तो, अपना ‘फेवीकोल' वाला रोल इन सबके बीच, लम्बे समय तक बनाये रहें, यही कामना है। लिखने को तो, स्मृतियों का अंबार लगा है, लेकिन हरिपाल अंकल को लिखना सामान्य काम नहीं है वास्तव में हरिपाल जी ने कला और साहित्य को जिया था, अपनी उम भर वह व्यवसायिक सोच से कोसों दूर रहे। उनकी गंवई सरलता, निश्च्छल व्यवहार और संवदेना उनकी पूंजी थे। जिसके बूते वह दीर्घकाल तक, कला और साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति बनाये रहेंगे।

 

मेरी बेटी स्वाति, जो पिछले कई वर्षों से, कोपेनहेगन (डेनमार्क) में कार्यरत है, बचपन से हरिपाल अंकल को 'रसमलाई' कहती रही। हरिपाल जी जब भी बिजनौर आते, स्वाति की 'रसमलाई' नहीं भूलते । फोन पर स्वाति बता रही थी कि अब जब भी रसमलाई सामने आती है, तो हरिपाल अंकल का हंसता हुआ चेहरा सामने आ जाता है, रसमलाई सरिखे  , उस कलात्मक व्यक्तित्व की पुनीत स्मृति को, हम सभी की श्रद्धाजंली अर्पित है।

 

(भोलानाथ त्यागी)

49/ विनायकम

इमलिया परिसर, सिविल लाइन्स, बिजनौर उ0प्र0

मो०- 7017261904,  9456873005

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