Skip to main content

महामारी में


इन्द्रदेव भारती


दाता जीवन दीप बचाले,
मौत की इस अँधियारी में।
अपने लगने लगे बेगाने,
दाता इस महामारी में।।


1.
बंद पड़ा संसार है दाता।
बंद पड़ा घर-द्वार है दाता।
बंद पड़ा व्यापार है दाता।
बंद पड़ा रुजगार है दाता।
नक़द है मेहनत, लेकिन मालिक,
धेल्ला दे न उधारी में।।


2.
छोड़ शहर के खोट हैं लौटे।
खाकर गहरी चोट हैं लौटे।
गला भूख का घोट हैं लौटे।
लेकर प्यासे होंठ हैं लौटे।
चले गाँव के गाँव, गाँव को,
आज अजब लाचारी में।।


3.
आगे-घर के राम-रमैया।
पीछे छुटके बहना-भैया।
लाद थकन को चलती मैया।
पाँव पहनके छाले भैया।
राजपथों को नापें कुनबे,
ज्यों अपनी गलियारी में।।



4.
आँगन से छत, चैबारे लो।
चैबारे से अंगनारे लो।
अंगनारे से घर-द्वारे लो।
घर-द्वारे से ओसारे लो।
घूम रहे हैं अपने घर में,
कै़द हो चार दीवारी में।।


5.
घर के बाहर है सन्नाटा।
घर के भीतर है सन्नाटा।
इस सन्नाटे ने है काटा।
घर में दाल, नमक न आटा।
उपवासों की झड़ी लगी है,
भूखों की बेकारी में।।


6.
दूध-मुहों की बोतल खाली।
चाय की प्याली अपनी खाली।
तवा, चीमटा, कौली, थाली।
बजा रहे हैं सारे ताली।
चूल्हे बैठे हैं लकड़ी के-
स्वागत की तैयारी में।।


7.
धनवानों के भाग्य हरे हैं।
महलों के कोठार भरे हैं।
एक के उनके चार धरे हैं।
घर अपने दुर्भाग्य खरे हैं।
भंडारे के बर्तन खाली,
निर्धनिया की बारी में।।


8.
एक छोटा डिब्बा दिखलाते।
दोनों हाथों में पकड़ाते।
दस-दस हाथों से दिलवाते।
एक बड़ा फोटो खिंचवाते।
अखबारों में छाप दिखाते,
सुबह की उजियारी में।।


Comments

Popular posts from this blog

मणिपुरी कविता: कवयित्रियों की भूमिका

प्रो. देवराज  आधुनिक युग पूर्व मणिपुरी कविता मूलतः धर्म और रहस्यवाद केन्द्रित थी। संपूर्ण प्राचीन और मध्य काल में कवयित्री के रूप में केवल बिंबावती मंजुरी का नामोल्लख किया जा सकता है। उसके विषय में भी यह कहना विवादग्रस्त हो सकता है कि वह वास्तव में कवयित्री कहे जाने लायक है या नहीं ? कारण यह है कि बिंबावती मंजुरी के नाम से कुछ पद मिलते हैं, जिनमें कृष्ण-भक्ति विद्यमान है। इस तत्व को देख कर कुछ लोगों ने उसे 'मणिपुर की मीरा' कहना चाहा है। फिर भी आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका है कि उपलब्ध पद बिंबावती मंजुरी के ही हैं। संदेह इसलिए भी है कि स्वयं उसके पिता, तत्कालीन शासक राजर्षि भाग्यचंद्र के नाम से जो कृष्ण भक्ति के पद मिलते हैं उनके विषय में कहा जाता है कि वे किसी अन्य कवि के हैं, जिसने राजभक्ति के आवेश में उन्हें भाग्यचंद्र के नाम कर दिया था। भविष्य में इतिहास लेखकों की खोज से कोई निश्चित परिणाम प्राप्त हो सकता है, फिलहाल यही सोच कर संतोष करना होगा कि मध्य-काल में बिंबावती मंजुरी के नाम से जो पद मिलते हैं, उन्हीं से मणिपुरी कविता के विकास में स्त्रियों की भूमिका के संकेत ग्रहण किए ज

अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था और सूचना राजनीति

अवधेश कुमार यादव साभार http://chauthisatta.blogspot.com/2016/01/blog-post_29.html   प्रजातांत्रिक देशों में सत्ता का संचालन संवैधानिक प्रावधानों के तहत होता है। इन्हीं प्रावधानों के अनुरूप नागरिक आचरण करते हैं तथा संचार माध्यम संदेशों का सम्प्रेषण। संचार माध्यमों पर राष्ट्रों की अस्मिता भी निर्भर है, क्योंकि इनमें दो देशों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को बनाने, बनाये रखने और बिगाड़ने की क्षमता होती है। आधुनिक संचार माध्यम तकनीक आधारित है। इस आधार पर सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला- उन्नत संचार तकनीक वाले देश, जो सूचना राजनीति के तहत साम्राज्यवाद के विस्तार में लगे हैं, और दूसरा- अल्पविकसित संचार तकनीक वाले देश, जो अपने सीमित संसाधनों के बल पर सूचना राजनीति और साम्राज्यवाद के विरोधी हैं। उपरोक्त विभाजन के आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व वर्तमान समय में भी दो गुटों में विभाजित है। यह बात अलग है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्काल बाद का विभाजन राजनीतिक था तथा वर्तमान विभाजन संचार तकनीक पर आधारित है। अंतर्राष्ट्रीय संचार : अंतर्राष्ट्रीय संचार की अवधारणा का सम्बन्ध

निर्मला पुतुल के काव्य में आदिवासी स्त्री

वंदना गुप्ता                                          समकालीन हिंदी कवयित्रियों में श्रीमती निर्मला पुतुल एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आदिवासी जीवन का यथार्थ चित्रण करती उनकी रचनाएँ सुधीजनों में विशेष लोकप्रिय हैं। नारी उत्पीड़न, शोषण, अज्ञानता, अशिक्षा आदि अनेक विषयों पर उनकी लेखनी चली है। गगन गिल जी का कथन है - ''हमारे होने का यही रहस्यमय पक्ष है। जो हम नहीं हैं, उस न होने का अनुभव हमारे भीतर जाने कहाँ से आ जाता है? .... जख्म देखकर हम काँप क्यों उठते हैं? कौन हमें ठिठका देता है?''1 निर्मला जी के काव्य का अनुशीलन करते हुए मैं भी समाज के उसी जख्म और उसकी अनकही पीड़ा के दर्द से व्याकुल हुई। आदिवासी स्त्रियों की पीड़ा और विकास की रोशनी से सर्वथा अनभिज्ञ, उनके कठोर जीवन की त्रासदी से आहत हुई, ठिठकी और सोचने पर विवश हुई।  समाज द्वारा बनाए गए कारागारों से मुक्त होने तथा समाज में अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए नारी सदैव संघर्षरत रही है। सामाजिक दायित्वों का असह्य भार, अपेक्षाओं का विशाल पर्वत और अभिव्यक्ति का घोर अकाल  नारी की विडंबना बनकर रह गया है। निर्मला जी ने नारी के इसी संघर्ष