वंदना गुप्ता समकालीन हिंदी कवयित्रियों में श्रीमती निर्मला पुतुल एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आदिवासी जीवन का यथार्थ चित्रण करती उनकी रचनाएँ सुधीजनों में विशेष लोकप्रिय हैं। नारी उत्पीड़न, शोषण, अज्ञानता, अशिक्षा आदि अनेक विषयों पर उनकी लेखनी चली है। गगन गिल जी का कथन है - ''हमारे होने का यही रहस्यमय पक्ष है। जो हम नहीं हैं, उस न होने का अनुभव हमारे भीतर जाने कहाँ से आ जाता है? .... जख्म देखकर हम काँप क्यों उठते हैं? कौन हमें ठिठका देता है?''1 निर्मला जी के काव्य का अनुशीलन करते हुए मैं भी समाज के उसी जख्म और उसकी अनकही पीड़ा के दर्द से व्याकुल हुई। आदिवासी स्त्रियों की पीड़ा और विकास की रोशनी से सर्वथा अनभिज्ञ, उनके कठोर जीवन की त्रासदी से आहत हुई, ठिठकी और सोचने पर विवश हुई। समाज द्वारा बनाए गए कारागारों से मुक्त होने तथा समाज में अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए नारी सदैव संघर्षरत रही है। सामाजिक दायित्वों का असह्य भार, अपेक्षाओं का विशाल पर्वत और अभिव्यक्ति का घोर अकाल नारी की विडंबना बनकर रह गया है। निर्मला जी ने नारी के इसी संघर्ष
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