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आठवां स्वर की भूमिका

 राममधारी सिंह ‘‘दिनकर’’


त्यागी ने एक जगह गीत की परिभाषा देते हुए कहा है-

गीत क्या है? सिर्फ़ छंदों में सजाई,

आदमी की शब्दमय तस्वीर ही तो।

लेकिन, आदमी की शब्दमय तस्वीर तो साहित्य मात्र है। इसलिए, गीतों का महत्व मैं एक दूसरी तरह से आंकता हूं। साहित्य का सर्वश्रेष्ठ अंश कवित्व है और कवित्व उपन्यासों से अधिक कविता में और कविताओं में भी सबसे अधिक गीतों में रहता है। गीतों में सिमट कर बैठने वाला कवित्व साहित्य की चरम शक्ति का पर्याय होता है। उपन्यास कुछ सफल और कुछ असफल हो सकते हैं, खंड काव्य और महाकाव्य भी अंशतः सफल और अंशतः असफल हो सकते हैं, किंतु, गीतों में आधी सफलता और आधी असफलता की कल्पना नहीं की जा सकती-गीत या तो पूर्ण रूप से सफल होते हैं अथवा ये होते ही नहीं।

गीतों से जिसे स्वयं आनंद नहीं मिलता, उसे उनका अर्थ समझाकर आनंदित करना बड़ा ही कठिन काम है। कई बार यह कार्य मुझसे नहीं हो पाता। गीतों में ऐसे संकेत होेते हैं जो बहुत दूर तक जाते हैं, उनके भीतर मनोदशाएं होेती हैं, जिनके पीछे अनुभूतियों का विशाल इतिहास पड़ा होता है, और सबसे बढ़कर तो यह कि उनके शब्दों की अदाएं ऐसी होती हैं जो सिर्फ़ देखते बनती हैं, जिनके विषय में बहुत कुछ बोलकर भी कुछ कहा नहीं जा सकता। फूूल पर शबनम चमकती है तो देखने वाली आंखें निहाल हो जाती हैं। मगर, उंगली से छूूकर शबनम को परखनेे की कोशिश मर्कटों का काम है। त्यागी ने ठीक ही कहा है-

‘मन का एक झरोखा खोलो,/ मेरी बात सुनाई देगी।’

अभी हाल में ही, मैंने कहीं लिखा है कि कविता का स्वाद बदलने वाला है, ग़ज़ल, दादरे और ठुमरी का ज़माना बदलने लगा है। ग़ज़ल, दादरे और ठुमरी की विदाई यानी संगीत अलग और कवित्व अलग। मगर ग़ज़ल, दादरे और ठुमरी का ज़माना भले ही लद जाय, गीतों का ज़माना हमेशा बरक़रार रहेगा, क्योंकि भावाविष्ट अवस्था में कवि महाकाव्य नहीं लिखता, वह छोेटा-सा गीत लिख देता है।

और कितने अच्छे होते हैं ये गीत। दर्द की छोटी-सी टीस, मगर पता नहीं, वह कहां से उठती और कहां जाकर विलीन हो जाती है। उमंग का एक मतवाला झोंका जो आता तो बड़ी ही गर्मी से है, मगर सारी वाटिका के भीतर एक सिहरन-सी दौड़ जाती है! किसी नन्हीं उंगली की एक हल्की-सी चोट पड़ती तो एक तार पर है, किंतु जीवन-वीणा के सारे तार एक साथ झनझना उठते हैं।

‘मृत्यु की भाषा कठिन होती बहुत ही,

ज़िंदगी उसका सरलतम व्याकरण है।’

त्यागी की कविताओं पर विचार करते हुए कई बातें ध्यान में आती हैं।

महादेवी और बच्चन ने जो परंपरा चलाई वह जनता की अब भी पसंद है। वही परंपरा नीरज, त्यागी, वीरेन्द्र, राही आदि कवियों के भीतर से अपना प्रसार कर रही है।

बच्चन तक हिंदी गीतों के छंद केवल हिंदी के छंद से लगते थे, अब वेे उर्दूू के पास पहुंच रहे हैं। भाषा भी इन गीतों की हिंदुस्तानी रूप ले रही है। कहां है हिंदी में रिवाइवलिज़्म? यह तो रिवाइवलिज़्म के ठीक विपरीत चलने वाली धारा है।

तीसरी बात यह है कि जिस ज़ोर से प्र्रयोगवादी कवि अपना नूतन प्रयोग कर रहेे हैं, उसी ज़ोर से इस पीढ़ी के अनेक नव कवि गीतों में अपना अंतर उड़ेल रहे हैं। यह ठीक है कि नए आलोेचकों ने अपनी आशा प्रयोगवाद से बांध रखी है, किंतु जनता का प्रेेम आज भी इन गीतों पर ही बरस रहा है।

और त्यागी के गीतों में भी यह प्रमाण मौजूद है कि हिंदी के नए गीत अपने साथ नई भाषा, नए मुुहावरे, नई भंगिमा और नई विच्छित्ति ला रहे हैं। प्रयोगवाद सर्वथा नवीन वृक्ष उगाने के प्रयास में है। हिंदी के नए गीतकार परंपरा की डालों में से नई टहनियों की तरह फूट निकले हैं।

त्यागी के गीत मुझे बहुत पसंद आते हैं। उसके रोने, उसके हंसने, उसके बिदकने और चिढ़ने, यहां तक कि उसके गर्व में भी एक अदा है जो मन को मोेेह लेती है।

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