Monday, December 2, 2019

बोल ! अरी, ओ धरती बोल !


असरारुल हक़ मजाज़


 


बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!


बादल, बिजली, रैन अंधियारी, दुख की मारी परजा सारी
बूढ़े, बच्चे सब दुखिया हैं, दुखिया नर हैं, दुखिया नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं सब व्यापारी बोल !


अरी, ओ धरती बोल ! !
राज सिंहासन डाँवाडोल!


कलजुग में जग के रखवाले चांदी वाले सोने वाले
देसी हों या परदेसी हों, नीले पीले गोरे काले
मक्खी भुनगे भिन-भिन करते ढूंढे हैं मकड़ी के जाले



बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!


क्या अफरंगी, क्या तातारी, आँख बची और बरछी मारी
कब तक जनता की बेचैनी, कब तक जनता की बेज़ारी
कब तक सरमाए के धंधे, कब तक यह सरमायादारी


बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!


नामी और मशहूर नहीं हम, लेकिन क्या मज़दूर नहीं हम
धोखा और मज़दूरों को दें, ऐसे तो मजबूर नहीं हम
मंज़िल अपने पाँव के नीचे, मंज़िल से अब दूर नहीं हम


बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!


बोल कि तेरी खिदमत की है, बोल कि तेरा काम किया है
बोल कि तेरे फल खाये हैं, बोल कि तेरा दूध पिया है
बोल कि हमने हश्र उठाया, बोल कि हमसे हश्र उठा है



बोल कि हमसे जागी दुनिया
बोल कि हमसे जागी धरती


बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!


साल मुबारक


अमृता प्रीतम


 


जैसे सोच की कंघी में से
एक दंदा टूट गया
जैसे समझ के कुर्ते का
एक चीथड़ा उड़ गया
जैसे आस्था की आँखों में
एक तिनका चुभ गया
नींद ने जैसे अपने हाथों में
सपने का जलता कोयला पकड़ लिया
नया साल कुछ ऐसे आया...


जैसे दिल के फिकरे से
एक अक्षर बुझ गया
जैसे विश्वास के कागज पर
सियाही गिर गयी
जैसे समय के होंठों से
एक गहरी साँस निकल गयी
और आदमजात की आँखों में
जैसे एक आँसू भर आया
नया साल कुछ ऐसे आया...


जैसे इश्क की जबान पर
एक छाला उठ आया
सभ्यता की बाँहों में से
एक चूड़ी टूट गयी
इतिहास की अँगूठी में से
एक नीलम गिर गया
और जैसे धरती ने आसमान का
एक बड़ा उदास-सा खत पढ़ा
नया साल कुछ ऐसे आया...


ओ देस से आने वाले बता!


अख्तर शीरानी


 


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या अब भी वहां के बाग़ों में मस्‍ताना हवाएँ आती हैं?


क्‍या अब भी वहां के परबत पर घनघोर घटाएँ छाती हैं?


क्‍या अब भी वहां की बरखाएँ वैसे ही दिलों को भाती हैं?


 


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या अब भी वतन में वैसे ही सरमस्‍त नज़ारे होते हैं?


क्‍या अब भी सुहानी रातों को वो चाँद-सितारे होते हैं?


हम खेल जो खेला करते थे अब भी वो सारे होते हैं?


ओ देस से आने वाले बता!


शादाबो-शिगुफ़्ता1 फूलों से मा' मूर2 हैं गुलज़ार3 अब कि नहीं?


बाज़ार में मालन लाती है फूलों के गुँधे हार अब कि नहीं?


और शौक से टूटे पड़ते है नौउम्र खरीदार अब कि नहीं?


 


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या शाम पड़े गलियों में वही दिलचस्‍प अंधेरा होता हैं?


और सड़कों की धुँधली शम्‍मओं पर सायों का बसेरा होता हैं?


बाग़ों की घनेरी शाखों पर जिस तरह सवेरा होता हैं?


 


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या अब भी वहां वैसी ही जवां और मदभरी रातें होती हैं?


क्‍या रात भर अब भी गीतों की और प्‍यार की बाते होती हैं?


वो हुस्‍न के जादू चलते हैं वो इश्‍क़ की घातें होती हैं?


1 प्रफुल्‍ल स्‍फुटित 2 परिपूर्ण 3 बाग


 


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या अब भी महकते मन्दिर से नाक़ूस की1 आवाज़ आती है?


क्‍या अब भी मुक़द्दस2 मस्जिद पर मस्‍ताना अज़ां3 थर्राती है?


और शाम के रंगी सायों पर अ़ज़्मत की4 झलक छा जाती है?


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या अब भी वहाँ के पनघट पर पनहारियाँ पानी भरती हैं?


अँगड़ाई का नक़्शा बन-बन कर सब माथे पे गागर धरती हैं?


और अपने घरों को जाते हुए हँसती हुई चुहलें करती है?


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या अब भी वहां मेलों में वही बरसात का जोबन होता है?


फैले हुए बड़ की शाखों में झूलों का निशेमन होता है?


उमड़े हुए बादल होते हैं छाया हुआ सावन होता है?


 


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या शहर के गिर्द अब भी है रवाँ5 दरिया-ए-हसीं6 लहराए हुए?


ज्यूं गोद में अपने मन7 को लिए नागन हो कोई थर्राये हुए?


या नूर की8 हँसली हूर की गर्दन में हो अ़याँ9 बल खाये हुए?


 


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या अब भी किसी के सीने में बाक़ी है हमारी चाह? बता


क्‍या याद हमें भी करता है अब यारों में कोई? आह बता


ओ देश से आने वाले बता लिल्‍लाह10 बता, लिल्‍लाह बता


[1] शंख की [2] पवित्र [3] अज़ान [4] महानता की [5] बहती है [6] सुन्‍दर नदी [7] मणि [8] प्रकाश की [9] प्रकट [10] भगवान के लिए


 


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या गांव में अब भी वैसी ही मस्ती भरी रातें आती हैं?


देहात में कमसिन माहवशें तालाब की जानिब जाती हैं?


और चाँद की सादा रोशनी में रंगीन तराने गाती हैं?


 


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या अब भी गजर-दम1चरवाहे रेवड़ को चराने जाते हैं?


और शाम के धुंदले सायों में हमराह घरों को आते हैं?


और अपनी रंगीली बांसुरियों में इश्‍क़ के नग्‍मे गाते हैं?


 


ओ देस से आने वाले बता!


आखिर में ये हसरत है कि बता वो ग़ारते-ईमाँ2 कैसी है?


बचपन में जो आफ़त ढाती थी वो आफ़ते-दौरां3 कैसी है?


हम दोनों थे जिसके परवाने वो शम्‍मए-शबिस्‍तां4 कैसी हैं?


 


ओ देस से आने वाले बता!


क्‍या अब भी शहाबी आ़रिज़5 पर गेसू-ए-सियह6 बल खाते हैं?


या बहरे-शफ़क़ की7 मौजों पर8 दो नाग पड़े लहराते हैं?


और जिनकी झलक से सावन की रातों के से सपने आते हैं?


 


ओ देस से आने वाले बता!


अब नामे-खुदा, होगी वो जवाँ मैके में है या ससुराल गई?


दोशीज़ा है या आफ़त में उसे कमबख़्त जवानी डाल गई?


घर पर ही रही या घर से गई, ख़ुशहाल रही ख़ुशहाल गई?


ओ देस से आने वाले बता!



[1] सुबह-सवेरे [2] धर्म नष्‍ट करने वाली (अति सुन्‍दरी) [3] संसार के लिए आफत [4] शयनागार का दीपक [5] गुलाबी कपोल [6] काले केश[7] ऊषा के सागर की [8] लहरों पर


ख़ाके-हिन्द


बृज नारायण चकबस्त


 


अगली-सी ताज़गी है फूलों में और फलों में
करते हैं रक़्स अब तक ताऊस जंगलों में



अब तक वही कड़क है बिजली की बादलों में
पस्ती-सी आ गई है पर दिल के हौसलों में

गुल शमअ-ए-अंजुमन है,गो अंजुमन वही है
हुब्बे-वतन नहीं है, ख़ाके-वतन वही है

बरसों से हो रहा है बरहम समाँ हमारा
दुनिया से मिट रहा है नामो-निशाँ हमारा

कुछ कम नहीं अज़ल से ख़्वाबे-गराँ हमारा
इक लाशे -बे-क़फ़न है हिन्दोस्ताँ हमारा

इल्मो-कमाल-ओ-ईमाँ बरबाद हो रहे हैं
ऐशो-तरब के बन्दे ग़फ़लत, में सो रहे हैं

ऐ सूरे-हुब्बे-क़ौमी ! इस ख़्वाब को जगा दे
भूला हुआ फ़साना कानों को फिर सुना दे

मुर्दा तबीयतों की अफ़सुर्दगी मिटा दे
उठते हुए शरारे इस राख से दिखा दे

हुब्बे-वतन समाए आँखों में नूर होकर
सर में ख़ुमार हो कर, दिल में सुरूर हो कर

है जू-ए-शीर हमको नूरे-सहर वतन का
आँखों को रौशनी है जल्वा इस अंजुमन का

है रश्क़े- महर ज़र्र: इस मंज़िले -कुहन का
तुलता है बर्गे-गुल से काँटा भी इस चमन का

ग़र्दो-ग़ुबार याँ का ख़िलअत है अपने तन को
मरकर भी चाहते हैं ख़ाके-वतन क़फ़न को


क्या कहें उनसे बुतों में हमने क्या देखा नहीं


बहादुर शाह ज़फ़र


 



क्या कहें उनसे बुतों में हमने क्या देखा नहीं
जो यह कहते हैं सुना है, पर ख़ुदा देखा नहीं

ख़ौफ़ है रोज़े-क़यामत का तुझे इस वास्ते
तूने ऐ ज़ाहिद! कभी दिन हिज्र का देखा नहीं

तू जो करता है मलामत देखकर मेरा ये हाल
क्या करूँ मैं तूने उसको नासिहा देखा नहीं

हम नहीं वाक़िफ़ कहाँ मसज़िद किधर है बुतकदा
हमने इस घर के सिवा घर दूसरा देखा नहीं

चश्म पोशी दाद-ओ-दानिस्तख: की है ऐ ज़फ़र वरना
उसने अपने दर पर तुमको क्या देखा नहीं


तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं


फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


 


तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
 


तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं
हदीसे-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं
तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं
हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है
जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं
सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्रे-वतन
तो चश्मे-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं
वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ो-लब की बख़ियागरी
फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं
दरे-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है
तो 'फ़ैज़' दिल में सितारे उतरने लगते हैं


Thursday, November 28, 2019

संविधान दिवस

 



डॉ साधना गुप्ता


 


संविधान दिवस है आज,करें कुछ चर्चा भारतवर्ष की,


लिखित,लचीला,होकर देता परिवर्तन का अधिकार हमें,

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का गौरव आज हमें,

कर्तव्य हमारे इसमें हैं,संग अधिकारों के अधिकारी,

खटकी जाती कुछ बातें, करना है उनकी बात अभी,

करते बात समानता की, फिर आरक्षण की क्यों बात उठी, 

सबको समान अवसर दे शिक्षा के, प्रतिभा को मान मिले,

तब होंगे हम समान सभी,इससे खाई बढ़ती जाती

आत्मसम्मान से जीने का अधिकार न इससे मिल पाता

कुंठित प्रतिभा विवश पलायन को, ना देश उन्नति कर पाता ।

 

                        

         मंगलपुरा, टेक, झालावाड़ 326001 

वैशाली

  अर्चना राज़ तुम अर्चना ही हो न ? ये सवाल कोई मुझसे पूछ रहा था जब मै अपने ही शहर में कपडो की एक दूकान में कपडे ले रही थी , मै चौंक उठी थी   ...