क्षेमचंद्र ‘सुमन’ ‘‘मेरी हस्ती को तोल रहे हो तुम, है कौन तराज़ू जिस पर तोलोगे? मैं दर्द-भरे गीतों का गायक हूं, मेरी बोली कितने में बोलोगे ?’’ त्यागी की ये पंक्तियां हालांकि मेरे लिए चुनौती हैं, फिर भी मैं उसकी हस्ती को तोलने और उसके दर्द-भरे गीतों की बोली बोलने की हिम्मत कर रहा हूं। इसका कारण साफ़ है कि त्यागी से आंख मिलाए बग़ैर आधुनिक गीत-काव्य से परिचय प्राप्त करना संभव नहीं है। वह स्वभाव से अक्खड़, आदतों से आवारा, तबियत से जिद्दी और आचरण से बेहद तुनुक-मिज़ाज है। अगर यों कहूं तो आप इसे और भी अच्छी तरह समझ सकेंगे कि यह वह ख़ुद भी नहीं जानता कि वह क्या है! उसके बहुत-से साथी उसके व्यक्तित्व को असंगतियों और विरोधाभासों का ‘एलबम’ कहते है, तो मैं भी उनके स्वर-में-स्वर मिलाकर इतना कहने की स्वतंत्रता और चाहूंगा कि केवल उसका व्यक्तित्व ही नहीं, पूरा जीवन ही असंगतियों से रंगा हुआ हैऋ और शायद उसकी कविता में भी उसके स्वभाव की ये असंगतियां स्पष्ट रूप से उतरी हैं। त्यागी के व्यक्तित्व की असंगतियों को और भी साफ़़ तौर से आपके सामने रखने के लिए मैं एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। 1957 की एक शाम