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Showing posts from November 18, 2019

अमन का राग

शमशेर बहादुर सिंह   सच्‍चाइयाँ जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं हिमालय की बफीर्ली चोटी पर चाँदी के उन्‍मुक्‍त नाचते               परों में झिलमिलाती रहती हैं जो एक हजार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समंदर है उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ कि बसंत के नये प्रभात सागर में छोड़ दी गयी हैं। ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्‍मा के ताने-बाने हैं मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द               लपेट लिया और मैं योरप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर बहुत हौले-हौले नाच रहा हूँ सब संस्‍कृतियाँ मेरे सरगम में विभोर हैं क्‍योंकि मैं हृदय की सच्‍ची सुख-शांति का राग हूँ बहुत आदिम, बहुत अभिनव। हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे सुलग उठे हैं सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं सिम्‍फोनिक आनंद की तरह यह हमारी गाती हुई एकता संसार के पंचपरमेश्‍वर का मुकुट पहन अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोक-प्रेसिडेंट बन उठी है। देखो न हकीकत हमारे समय की कि जिसमें होमर एक हिंदी कवि सरदार जाफरी को इशारे से अपने करीब बुला रहा है कि जिसमें फैयाज खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है म

सूरज के घोड़े

वृंदावनलाल वर्मा   सूरज के घोड़े इठलाते तो देखो नभ में आते हैं टापों की खटकार सुनाकर तम को मार भगाते हैं कमल-कटोरों से जल पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं सूरज के घोड़े इठलाते तो देखो नभ में आते हैं।

आह ! वेदना मिली विदाई

जयशंकर प्रसाद   आह ! वेदना मिली विदाई आह ! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई छलछल थे संध्या के श्रमकण आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अँगड़ाई श्रमित स्वप्न की मधुमाया में गहन-विपिन की तरु छाया में पथिक उनींदी श्रुति में किसने यह विहाग की तान उठाई लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी रही बचाए फिरती कब की मेरी आशा आह ! बावली तूने खो दी सकल कमाई चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर प्रलय चल रहा अपने पथ पर मैंने निज दुर्बल पद-बल पर उससे हारी-होड़ लगाई लौटा लो यह अपनी थाती मेरी करुणा हा-हा खाती विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे इसने मन की लाज गँवाई

ग्राम-गीत

जयशंकर प्रसाद   शरद्-पूर्णिमा थी। कमलापुर के निकलते हुए करारे को गंगा तीन ओर से घेरकर दूध की नदी के समान बह रही थी। मैं अपने मित्र ठाकुर जीवन सिंह के साथ उनके सौंध पर बैठा हुआ अपनी उज्ज्वल हँसी में मस्त प्रकृति को देखने में तन्मय हो रहा था। चारों ओर का क्षितिज नक्षत्रों के बन्दनवार-सा चमकने लगा था। धवलविधु-बिम्ब के समीप ही एक छोटी-सी चमकीली तारिका भी आकाश-पथ में भ्रमण कर रही थी। वह जैसे चन्द्र को छू लेना चाहती थी; पर छूने नहीं पाती थी। मैंने जीवन से पूछा-तुम बता सकते हो, वह कौन नक्षत्र है? रोहिणी होगी। -जीवन के अनुमान करने के ढंग से उत्तर देने पर मैं हँसना ही चाहता था कि दूर से सुनाई पड़ा- बरजोरी बसे हो नयनवाँ में। उस स्वर-लहरी में उन्मत्त वेदना थी। कलेजे को कचोटनेवाली करुणा थी। मेरी हँसी सन्न रह गई। उस वेदना को खोजने के लिए, गंगा के उस पार वृक्षों की श्यामलता को देखने लगा; परन्तु कुछ न दिखाई पड़ा। मैं चुप था, सहसा फिर सुनाई पड़ा- अपने बाबा की बारी दुलारी, खेलत रहली अँगनवाँ में, बरजोरी बसे हो। मैं स्थिर होकर सुनने लगा, जैसे कोई भूली हुई सुन्दर कहानी। मन में उत्कण्ठा थी, और एक कसक भरा क

भारत की जय

चंद्रधर शर्मा गुलेरी   हिंदू, जैन, सिख, बौद्ध, क्रिस्ती, मुसलमान पारसीक, यहूदी और ब्राह्मन भारत के सब पुत्र, परस्पर रहो मित्र रखो चित्ते गणना सामान मिलो सब भारत संतान एक तन एक प्राण गाओ भारत का यशोगान

मेरा देश बड़ा गर्वीला

गोपाल सिंह नेपाली   मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रँगीली नीले नभ में बादल काले, हरियाली में सरसों पीली यमुना-तीर, घाट गंगा के, तीर्थ-तीर्थ में बाट छाँव की सदियों से चल रहे अनूठे, ठाठ गाँव के, हाट गाँव की शहरों को गोदी में लेकर, चली गाँव की डर नुकीली मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रँगीली खडी-खड़ी फुलवारी फूले, हार पिरोए बैठ गुजरिया बरसाए जलधार बदरिया, भीगे जग की हरी चदरिया तृण पर शबनम, तरु पर जुगनू, नीड़ रचाए तीली-तीली मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रँगीली घास-फूस की खड़ी झोपड़ी, लाज सँभाले जीवन भर की कुटिया में मिट्टी के दीपक, मंदिर में प्रतिमा पत्थर की जहाँ बाँस कंकड़ में हरि का, वहाँ नहीं चाँदी चमकीली मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली जो कमला के चरण पखारे, होता है वह कमल कीच में तृण, तंदुल, ताम्बूल, ताम्र, तिल के दीपक बीच-बीच में सीधी-सादी पूजा अपनी, भक्ति लजीली मूर्ति सजीली मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रँगीली बरस-बरस पर आती होली रंगों का त्यौहार अनोखा चुनरी इधर-उधर पिचकारी, गाल-भाल पर कुमकुम फूटा लाल-लाल बन जाए काले, गोरी सूरत पीली-नीली

अँधेरे में

गजानन माधव मुक्तिबोध   जिंदगी के...       कमरों में अँधेरे       लगाता है चक्कर       कोई एक लगातार; आवाज पैरों की देती है सुनाई बार-बार... बार-बार, वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता, किंतु वह रहा घूम तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक, भीत-पार आती हुई पास से, गहन रहस्यमय अंधकार ध्वनि-सा        अस्तित्व जनाता        अनिवार कोई एक, और मेरे हृदय की धक्-धक् पूछती है - वह कौन सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई ! इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से फूले हुए पलस्तर, खिरती है चूने-भरी रेत खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह - खुद-ब-खुद कोई बड़ा चेहरा बन जाता है, स्वयमपि मुख बन जाता है दिवाल पर, नुकीली नाक और भव्य ललाट है, दृढ़ हनु कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति। कौन वह दिखाई जो देता, पर नहीं जाना जाता है ! कौन मनु ? बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब... अँधेरा सब ओर, निस्तब्ध जल, पर, भीतर से उभरती है सहसा सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है और मुसकाता है, पहचान बताता है, किंतु, मैं हतप्रभ, नहीं वह समझ में आता। अरे ! अरे !! तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष चमक-चमक उठते

अकाल में दूब

केदारनाथ सिंह   भयानक सूखा है पक्षी छोड़कर चले गए हैं पेड़ों को बिलों को छोड़कर चले गए हैं चींटे चींटियाँ देहरी और चौखट पता नहीं कहाँ-किधर चले गए हैं घरों को छोड़कर भयानक सूखा है मवेशी खड़े हैं एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए कहते हैं पिता ऐसा अकाल कभी नहीं देखा ऐसा अकाल कि बस्ती में दूब तक झुलस जाए सुना नहीं कभी दूब मगर मरती नहीं - कहते हैं वे और हो जाते हैं चुप निकलता हूँ मैं दूब की तलाश में खोजता हूँ परती-पराठ झाँकता हूँ कुँओं में छान डालता हूँ गली-चौराहे मिलती नहीं दूब मुझे मिलते हैं मुँह बाए घड़े बाल्टियाँ लोटे परात झाँकता हूँ घड़ों में लोगों की आँखों की कटोरियों में झाँकता हूँ मैं मिलती नहीं मिलती नहीं दूब अंत में सारी बस्ती छानकर लौटता हूँ निराश लाँघता हूँ कुएँ के पास की सूखी नाली कि अचानक मुझे दिख जाती है शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच एक हरी पत्ती दूब है हाँ-हाँ दूब है - पहचानता हूँ मैं लौटकर यह खबर देता हूँ पिता को अँधेरे में भी दमक उठता है उनका चेहरा 'है - अभी बहुत कुछ है अगर बची है दूब...' बुदबुदाते हैं वे फिर गहरे विचार में खो जाते हैं पिता  

किसको नमन करूँ मैं भारत?

रामधारी सिंह दिनकर तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ? मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ? किसको नमन करूँ मैं भारत ? किसको नमन करूँ मैं ? भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ? नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ? भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ? भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं ! खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं ! दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन आत्मबंधु कहकर ऐस

अबोला

ऋषभदेव शर्मा बहुत सारा शोर घेरे रहता था मुझे कान फटे जाते थे फिर भी तुम्हारा चोरी छिपे आना कभी मुझसे छिपा नहीं रहा तुम्हारी पदचाप मैं कान से नहीं दिल से सुनता था बहुत सारी चुप्पी घेरे रहती है मुझे मैं बदल गया हूँ एक बड़े से कान में पर कुछ सुनाई नहीं देता तुम्हारे अबोला ठानते ही मेरा खुद से बतियाना भी ठहर गया वैसे दिल अब भी धड़कता है

अब जो इक हसरत-ए-जवानी है

मीर तकी मीर अब जो इक हसरत-ए-जवानी है उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है। ख़ाक थी मौजज़न जहाँ में, और हम को धोखा ये था के पानी है। गिरिया हर वक़्त का नहीं बेहेच दिल में कोई ग़म-ए-निहानी है। हम क़फ़स ज़ाद क़ैदी हैं वरना ता चमन परफ़शानी है। याँ हुए 'मीर' हम बराबर-ए-ख़ाक वाँ वही नाज़-ओ-सर्गिरानी है।

मज़े जहाँ के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं

मिर्ज़ा ग़ालिब मज़े जहाँ के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं सिवाय ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं मगर ग़ुबार हुए पर हव उड़ा ले जाये वगर्ना ताब-ओ-तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं ये किस बहीश्तशमाइल की आमद-आमद है के ग़ैर जल्वा-ए-गुल राहगुज़र में ख़ाक नहीं भला उसे न सही, कुछ मुझी को रहम आता असर मेरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं ख़्याल-ए-जल्वा-ए-गुल से ख़राब है मैकश शराबख़ाने के दीवर-ओ-दर में ख़ाक नहीं हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारतगरी से शर्मिंदा सिवाय हसरत-ए-तामीर घर में ख़ाक नहीं हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल्लगी के 'असद' खुला कि फ़ायेदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं

सावन आया

अमीर खुसरो अम्मा मेरे बाबा को भेजो री - कि सावन आया बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री - कि सावन आया अम्मा मेरे भाई को भेजो री - कि सावन आया बेटी तेरा भाई तो बाला री - कि सावन आया अम्मा मेरे मामू को भेजो री - कि सावन आया बेटी तेरा मामू तो बांका री - कि सावन आया

एक बूँद

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ज्यों निकल कर बादलों की गोद से थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी सोचने फिर-फिर यही जी में लगी, आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी? देव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा, मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ? या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी, चू पडूँगी या कमल के फूल में? बह गयी उस काल एक ऐसी हवा वह समुन्दर ओर आई अनमनी एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला वह उसी में जा पड़ी मोती बनी। लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।

मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ

भगवतीचरण वर्मा   मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा देने वाले को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर पल भर सुख भी देखा फिर पल भर दुख भी देखा। किस का आलोक गगन से रवि शशि उडुगन बिखराते? किस अंधकार को लेकर काले बादल घिर आते? उस चित्रकार को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर देखा है चित्रों को बन-बनकर मिट-मिट जाते। फिर उठना, फिर गिर पड़ना आशा है, वहीं निराशा क्या आदि-अन्त संसृति का अभिलाषा ही अभिलाषा? अज्ञात देश से आना, अज्ञात देश को जाना, अज्ञात अरे क्या इतनी है हम सब की परिभाषा? पल-भर परिचित वन-उपवन, परिचित है जग का प्रति कन, फिर पल में वहीं अपरिचित हम-तुम, सुख-सुषमा, जीवन। है क्या रहस्य बनने में? है कौन सत्य मिटने में? मेरे प्रकाश दिखला दो मेरा भूला अपनापन।

आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे

अदम गोंडवी   आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे तालिबे-शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए चार छह चमचे रहें माइक रहे माला रहे

फूल का जीवन

रश्मि अग्रवाल शस्य श्यामला धरती, सबका ही दुःख हरती। इसलिए तो ... पतझड़ मुझको कभी ना भाता, भाता हरियाली से नाता। खिली-अधखिली कलियाँ होतीं, जब अपने यौवन पर... कोई पत्तों की गोद में हँसती, कोई पत्तों के ऊपर, कोई जब खिल फूल हुई, हमसे तब एक भूल हुई । रूप-सुगन्ध के वशीभूत हो, हमने तोड़ा दम से ... एक फूल खिला, जो तेज़ हवा से लड़कर जीता- और उपवन महकाया, एक हार गया और गिरा ज़मीं पर, जल्दी ही मुरझा गया। मैं छुई-मुई सी, खड़ी-खड़ी सब देख रही थी, सोच रही थी, मन ही मन ... जग को सुरभित करने वाला फूल .... तेरा-भी क्या जीवन?

साप्‍ताहिक शार्प रिपोर्टर का आजमगढ में लोकार्पण

आजमगढ़। आजमगढ़ जर्नलिस्ट फेडरेशन द्वारा महात्मा गांधी के 150वीं जयंती वर्ष पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन नेहरू हाल के सभागार में किया गया। गोष्ठी का विषय महात्मा गांधी और उनकी पत्रकारिता रहा। इस अवसर पर शार्प रिपोर्टर साप्ताहिक के गांधी विशेषांक का लोकार्पण भी किया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में महामना मदन मोहन मालवीय हिन्दी पत्रकारिता संस्थान, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी के निदेशक प्रो. ओमप्रकाश सिंह एवं मुख्यवक्त के रूप में जिलाधिकारी नागेन्द्र प्रसाद सिंह तथा विशिष्ट अतिथि पुलिस अधीक्षक प्रो. त्रिवेणी सिंह मौजूद रहे। इस वैचारिक संगोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार व समाजवादी विचारक विजय नारायण ने किया। संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए मुख्य वक्ता जिलाधिकारी नागेन्द्र प्रसाद सिंह ने कहा कि गांधी के राम साम्राज्यवादी नहीं, बल्कि समानता पर आधारित स्वायत्त फेडरेशन को स्थापित करते हैं। आज यहीं फेडरेशन कि अवधारणा उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था कि आत्मा है। जिसके प्रथम अवधारक हजारांे वर्ष पूर्व चक्रवर्ती उदार सम्राट राम रहे है। उन्होने चर्चा को आगे बढ़ाते हुये कहा कि गांधी