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Showing posts with the label शोध लेख

स्त्री-स्त्री की पीड़ा

सुचिता शिव कुमार पांडे भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति बहुत ही दयनीय है। आम स्त्री को समाज में कोई स्थान नहीं हैं तो दलित स्त्रियों की दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। सुशीला टाकभौरे अपने एक वैचारिक निबंध में लिखती हैं 'स्त्री सर्वप्रथम स्त्री होने के कारण शोषित होती है। इसके साथ दलित स्त्री होने के कारण दोहरे रूप में शोषण-पीड़ा का संताप भोगती है ।'1 दलित स्त्रियों को अपना जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत सारी कठिनाईयों का समाना करना पड़ता  है। वह खेतों में काम करती है, उच्च जाति के घरों में काम करती है, मजदूरी करती है। दलित स्त्री अपनी मजबूरी के कारण सारे काम करती है। लेकिन पुरुष समाज उनकी मजबूरी का फायदा उठाते है उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार करते है, काम के बहाने शोषण करते है । दलित स्त्रियों की स्थिती बहुत ही दयनीय है। आर्थिक या सामाजिक दृष्टि से दलित स्त्रियों का संघर्ष कई गुना अधिक है। वे हमेशा कठिन परिश्रम करती आयी है। लेकिन उनके मेहनत का उन्हें कभी सही मूल्य नहीं मिला है।  डॉ.काली चरण 'स्नेही' जी ने अपनी कविता 'दोनों के हाथ झाडू है' में लिखते है- 'पुरुष ने अप

आचार्य ब्रह्मानंद शुक्ल के संस्कृत काव्य  में देश-प्रेम की भावना

निधि देश-प्रेम की भावना - देश के प्रति लगाव तथा समर्पण का भाव ही 'देशप्रेम' है। वह देश जहाँ हम जन्म लेते हैं, जिसमें निवास करते हैं उसके प्रति अपनापन स्वाभाविक है। एक सच्चा देश प्रेमी अपनी मातृभूमि को अपनी माँ के समान ही प्रेम करता हैं जो व्यक्ति देशप्रेम की भावना से पूर्ण होते हैं वे ही देश की उन्नति में सहायक होते हैं। देश की सुरखा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देना ही सही मायने में देश प्रेम है। देशप्रेम की भावना ही मनुष्य को अपनी मातृभूमि के प्रति कृतज्ञ बनाती हैं किसी भी देश की शक्ति उसमें निवास करने वाले लोग होते है जिस देश के लोगों में देशप्रेम की भावना जितनी अधिक पाई जाती है वह देश उतना ही विकसित एवं उन्नत होता हैं देश प्रेम की भावना एक पवित्र भावना है। देशप्रेम व्यक्ति के हृदय में त्याग और बलिदान की भावना को जाग्रत कर देता है जिससे व्यक्ति अपने प्राणों को त्यागकर भी देश के सम्मान की रक्षा करता है। जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया गया है-''जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदापिगरीयसी'' जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। हमारा देश 'अनेकता में एकता'

लौटे हुए मुसाफिर: एक अंतहीन विभाजन

मधुबाला पाण्डेय madhuvshukla@gmail.com   भारत- पाकिस्तान विभाजन की समस्या को लेकर हिंदी कथा साहित्य में ढेर सारे उपन्यास और कहानियाँ लिखी गई है। इस समस्या के विषय की समानता होने पर भी 'लौटे हुए मुसाफिर' उपन्यास की यह विशेषता है कि इसमें यथार्थवादी दृष्टि से समस्याओं के जड़ से लेकर अंत तक का चित्रण किया गया है। कमलेश्वर ने मुख्यतः मध्यमवर्गीय जीवन के यथार्थ को अपने साहित्य में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। उनके साहित्य में रूढियों के प्रति तिरस्कार एवं विद्रोह, प्रगतिशीलता एवं नवीन मूल्यों के आग्रह का सशक्त स्वर मिलता है। विभाजन को विषय बनाकर लिखे गए उनके साहित्य में मानवीय संबंधों में पनपते शक, नफरत, अलगाव, तथा टूटते मानवीय मूल्यों, आस्थाओं की छटपटाहट और आकुलता तो है ही, साथ ही विभाजन के कारण मानव जीवन में उत्पन्न विडम्बना पूर्ण स्थितियों का मर्मस्पर्शी चित्रण भी है। विभाजन के दौरान, एहसास में निरंतर आनेवाली कमी को, जिसने मानवीय संबंधों में दरार और उलझनें पैदा की, उसी एहसास का चित्रण उन्होने अपने साहित्य में किया है।  इस संदर्भ में डाॅ. सच्चिदानंद राय का कथन है कि- 'लौटे

आक्रमण कब का हो चुका

प्रो. ऋषभदेव शर्मा  तेलंगाना के किसानों की व्यथा पेद्दिन्टि अशोक कुमार इक्कीसवीं शताब्दी के अत्यंत प्रखर और संभावनाशील तेलुगु कहानीकार हैं। उन्हें जमीन से जुड़े ऐसे लेखक के रूप में पहचाना जाता है जिसे आंध्रप्रदेश, विशेष रूप से तेलंगाना अंचल की समस्याओं और सरोकारों की गहरी पहचान है। विभिन्न भाषाओं में अनूदित और विविध पुरस्कारों से सम्मानित अशोक कुमार एक उपन्यास और पाँच कहानी संग्रह तेलुगु साहित्य जगत को दे चुके हैं। 'आक्रमण कब का हो चुका' में उनके तीन विशिष्ट कहानी संग्रहों से चुनी हुई 11 प्रतिनिधि कहानियों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया गया  है। इस प्रतिनिधि कहानी संकलन से हिंदी के पाठक तेलुगु के इस जनपक्षीय कथाकार की संवेदना और रचनाशैली से परिचित हो सकते हैं।  पेद्दिन्टि अशोक कुमार मूलतः किसान जीवन के रचनाकार हैं। उन्होंने भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के तेलंगाना के गाँवों पर पड़ रहे दुष्प्रभाव को निकट से देखा-जाना है और विपरीत परिस्थितियों में पड़े हुए किसानों की आत्महत्या के दारुण सत्य को भी अपनी कलम से उकेरा है। आर्थिक विकास का जो माॅडल पिछले दशकों में भारत सरकार ने अपनाया है वह किस

कहानीकारों की दुनिया में गाँव

प्रो. ऋषभदेव शर्मा  ग्रामवासिनी भारतमाता के चित्र हिंदी कहानी ने आरंभ से रुचिपूर्ण उकेरे हैं। कहानीकारों ने यह भी लक्षित किया है कि हमारी ग्राम संस्कृति में परिवर्तन तो युगानुरूप हुआ ही है, प्रदूषण भी प्रविष्ट हो गया है। उन्होंने परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व के साथ ही हाशियाकृत समुदायों के उठ खड़े होने को भी अपनी कहानियों में समुचित अभिव्यक्ति प्रदान की है और उनके संघर्ष को धार भी दी है। इसमें संदेह नहीं कि विभिन्न कहानीकारों ने ग्रामीण जन-जीवन के स्वाभाविक दृश्यों को अपनी-अपनी भाषा-शैली के माध्यम से प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है तथा ग्रामीणों पर होने वाले अत्याचार व अन्याय तथा उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया, संघर्ष और प्रतिरोध को स्वर दिया है।  प्रेमचंद ने ग्राम्य जन-जीवन संबंधी अनेक कहानियाँ लिखीं, जिनमें ग्रामीण यथार्थ संबंधी विभिन्न विषयों का उल्लेख उपलब्ध है। सवा सेर गेहूँ, सती, सद्गति आदि ग्रामीण जीवन की कथाओं में उन्होंने ग्राम जीवन तथा वहाँ के रहन-सहन व शोषण आदि स्थितियों को स्पष्ट किया है। 'सवा सेर गेहूँ' कहानी में शंकर जैसा सीधा-सादा किसान विप्र के ऋण को खलिहानी के रूप मे

हिन्दी नाटकों के माध्यम से पाठ शिक्षण, प्रशिक्षण और समाधान

डॉ. चन्द्रकला  साहित्य की इस विविधता भरी दुनिया में जहाँ एक तरफ नित्य नए संचार माध्यमों के प्रयोग ने विषयों के तर्कयुक्त, युक्तिसंगत पठन- पाठन, व विमर्शों को तीव्र गति दी है। साएबर जगत से इस परिवर्तन ने ही आज् के विदयार्थियों को जिस तरह से जागरूक किया है। उससे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वर्तमान समय में कक्षा में पढाये जाने वाले पाठ से छात्र को जोडने के साथ उसके अन्दर के सृजनात्मक लोक से भी परिचय कराया जाय। तकनीकी शिक्षा व नई शिक्षा- नीति से उत्पन्न इस चुनौती का सामना वर्तमान शिक्षाविदों एंव अध्यापकों को भी करना है। उन्हें पाठ्य- पुस्तकों को रोचक ढंग से पढने और पढाने की परिपाटी पर नये सिरे से विचार करने की भी आवश्यकता है। आज यह वर्तमान समय की मांग और आवयश्कता भी है। कारण भी स्पष्ट है। -जहाँ एक तरफ स्कूली शिक्षा बहुत पहले ही इस बदलाव से अपने को जोड चुकी है। वहीं कालेजों में विशेष कर हिन्दी में यह सारा दायित्व किताबों ने ही उठा रखा हैं। -आज यदि प्रमाणिक पाठ उपलब्ध नहीं है, या पुस्तक ही प्रिंट में नही है तो उसकी सामग्री किसी साईट पर नही मिलेगी। हिन्दी में इस दिशा में कार्य ही कुछ समय प

चित्रा मुद्गल की कहानियों में व्यक्तिपरक यथार्थ

  डॉ.संगीता शर्मा चित्रा मुदगल हमारे समय की अग्रणी कथाकार है। इन्होंने उपन्यास और कहानी दोनों ही विधाओं में कथ्य और भाषा सभी क्षेत्रों में नई जमीन तोडी है। चित्रा मुद्गल का जन्म 10 दिसंबर 1943 को सामंती परिवेश के निहाल खेड़ा, जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश के एक संपन्न अमेठिहन ठाकुर परिवार में हुआ। पिता साहसी और रोबदार व्यक्ति थे वहीं माताजी सीधी-सादी घरेलू महिला गांव के रोबदार ठाकुर परिवार में जन्म होने के कारण उन्होंने अपने परिवार द्वारा निम्न वर्ग का घरेलू शोषण देखा जिससे उनका बालमन विचलित हो उठा।बालपन से ही उनके मन में अंतर्विरोध जाग उठा मुंबई में 'सारिका' पत्रिका के संपादक अवधनारायण मुद्गल से अंतर्जातीय विवाह किया जिससे परिवार ने उनसे संबंध तोड़ लिए। आर्थिक तंगी का सामना करते हए वे एक चॉल में रहते थे तथा अवधनारायण मदगल ने कविताएं. कहानियां लिखना छोड़ एजेंसियों में विज्ञापन लिखने शुरू किए और चित्राजी ने अनुवाद इन सब परिस्थितियों के बीच भी इन्होंने अपनी साहित्य साधना नहीं रोकी तथा समय-समय पर कई पत्र पत्रिकाओं में इनके लेख, कविताएं, कहानियां छपती रही। इसी बीच में कई सामाजिक संस्था

भारतीय उच्च शिक्षा में मूल्य एवं गुणवत्ता

डाॅ0 नरेन्द्र पाल सिंह  उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हमारे देश में पर्याप्त विकास एवं विस्तार हुआ है, उच्च शिक्षा की प्रगति का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि यह वृद्धि संख्यात्मक रूप से उल्लेखनीय है किन्तु गुणात्मक रूप से तो इसमें कमी आयी है। देश में प्रदान की जा रही शिक्षा को उसके भविष्य के रूप में देखा जाता है, क्योंकि हम जैसी शिक्षा अपनी वर्तमान पीढ़ी को देंगे वैसा ही उसका भविष्य भी होगा। वर्तमान उच्च शिक्षा व्यवस्था का मूल्यांकन सही रूप से न हो पाने के कारण, उच्च शिक्षा की कमजोरियों के लिये आर्थिक मजबूरियों को दोषी माना जाता है। उच्च शिक्षा के लिये संसाधनों की उतनी कमी नहीं है जितनी कि अच्छे प्रबन्धन की है। महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों पर सरकार अथवा इनका प्रबन्धन चाहे जितना खर्च कर ले तब तक सुधार सम्भव नहीं है जब तक कि इनके अच्छे प्रबन्धन पर जोर नहीं दिया जाता। उच्च शिक्षा का उद्देश्य, प्रशासन, उद्योग, वाणिज्यिक व्यवसाय व ज्ञान-विज्ञान में अधिकतम नेतृत्व करना तथा राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना उत्पन्न कर, जीवन को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करना है, अर्थात् यदि किसी राष्ट्र