आलोक कुमार सुगन ने लवारे को अपने हाथों से नहलाया और छाया में बिठा दिया। डाॅक्टर ने उसे जो बताया उसने वही किया। अपना दिमाग़ लगाकर वह कुछ गड़बड़ नहीं करना चाहता था। पड़ौस में रहने वाले बिरजू की पत्नी सुगन का भरपूर साथ दे रही थी। शाम को गाय का खीस निकाला गया तो सुगन ने मंदिर में चढ़ाने के बाद पूरे गाँव में परंपरा के अनुसार प्रसाद की तरह बांटा। सुगन बेहद खुश था। आज उसकी बछिया गाय जो बन गई थी। अब वह फिर से गाय का दूध पिएगा और कुछ बेचकर अपनी बहन गीता के बच्चे के लिए कुछ पैसे जोड़ेगा। खुशी के इस अवसर पर सुगन को अपनी बहन के विवाह, माँ और गाय की याद आने लगी थी। उस दिन गाँव में विशेष चहल पहल और खुशी का माहौल था। होता भी क्यों नहीं? जब भी गाँव में किसी एक के घर कोई उत्सव होता है, उसे पूरे गाँव का उत्सव मान लिया जाता है। अमीर-ग़रीब का भेद मिट जाता है और उत्सवित परिवार की ज़रूरतों पर पूरे गाँव का ध्यान लगा रहता है। ऐसा ही गीता की शादी में भी हुआ। गीता के पिता जी असमय ही स्वर्गवासी हो गए थे। माँ थी जो किसी तरह गीता और उसके भाई सुगन को पाल पोष रही थी। ज़मीन के नाम पर दो बीघा ज़मीन थी। बच्चे छोटे होने के कारण