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समकालीन कविता की जनपदीय चेतना

प्रो. ऋषभदेव शर्मा  'जनपद' शब्द को जहाँ प्राचीन भारत में राज्य व्यवस्था की एक इकाई के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता था और आजकल उत्तर प्रदेश में 'जिले' के अर्थ में व्यवहृत किया जाता है, वहीं आंध्र प्रदेश में इसका 'लोक' के व्यापक अर्थ में इस्तेमाल होता है। हिंदी कविता में 'जनपद' की चर्चा इन संदर्भों के अलावा कभी किसी क्षेत्र विशेष और कभी किसी अंचल विशेष के रूप में भी पाई जाती है। कुछ पत्रिकाओं ने ऐसे कविता विशेषांक भी प्रकाशित किए हैं जो क्षेत्र विशेष, अंचल विशेष, जिला विशेष या प्रांत विशेष की रचनाधर्मिता को एकांततः समर्पित हैं।  'जनपद' से आगे बढ़कर जब 'जनपदीय चेतना' की चर्चा की जाए तो यह सोचना पड़ेगा कि क्या उसे जनपद की भौगोलिक सीमा तक संकीर्ण बनाया जाना चाहिए, अथवा इस शब्दयुग्म को किसी विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ से मंडित करना होगा? यदि जनपदीय चेतना को किसी भौगोलिक सीमा से आवृत्त किया जाएगा तो निश्चय ही एक भारतीय चेतना के भीतर पचीसों क्षेत्रीय चेतनाएँ या सैंकड़ों आंचलिक चेतनाएँ जनपदीय चेतना के नाम पर सिर उठाती दिखाई देंगी। विखंडनवादी उत्तरआधुनिकता

निर्मला पुतुल के काव्य में आदिवासी स्त्री

वंदना गुप्ता                                          समकालीन हिंदी कवयित्रियों में श्रीमती निर्मला पुतुल एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आदिवासी जीवन का यथार्थ चित्रण करती उनकी रचनाएँ सुधीजनों में विशेष लोकप्रिय हैं। नारी उत्पीड़न, शोषण, अज्ञानता, अशिक्षा आदि अनेक विषयों पर उनकी लेखनी चली है। गगन गिल जी का कथन है - ''हमारे होने का यही रहस्यमय पक्ष है। जो हम नहीं हैं, उस न होने का अनुभव हमारे भीतर जाने कहाँ से आ जाता है? .... जख्म देखकर हम काँप क्यों उठते हैं? कौन हमें ठिठका देता है?''1 निर्मला जी के काव्य का अनुशीलन करते हुए मैं भी समाज के उसी जख्म और उसकी अनकही पीड़ा के दर्द से व्याकुल हुई। आदिवासी स्त्रियों की पीड़ा और विकास की रोशनी से सर्वथा अनभिज्ञ, उनके कठोर जीवन की त्रासदी से आहत हुई, ठिठकी और सोचने पर विवश हुई।  समाज द्वारा बनाए गए कारागारों से मुक्त होने तथा समाज में अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए नारी सदैव संघर्षरत रही है। सामाजिक दायित्वों का असह्य भार, अपेक्षाओं का विशाल पर्वत और अभिव्यक्ति का घोर अकाल  नारी की विडंबना बनकर रह गया है। निर्मला जी ने नारी के इसी संघर्ष

स्त्री-स्त्री की पीड़ा

सुचिता शिव कुमार पांडे भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति बहुत ही दयनीय है। आम स्त्री को समाज में कोई स्थान नहीं हैं तो दलित स्त्रियों की दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। सुशीला टाकभौरे अपने एक वैचारिक निबंध में लिखती हैं 'स्त्री सर्वप्रथम स्त्री होने के कारण शोषित होती है। इसके साथ दलित स्त्री होने के कारण दोहरे रूप में शोषण-पीड़ा का संताप भोगती है ।'1 दलित स्त्रियों को अपना जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत सारी कठिनाईयों का समाना करना पड़ता  है। वह खेतों में काम करती है, उच्च जाति के घरों में काम करती है, मजदूरी करती है। दलित स्त्री अपनी मजबूरी के कारण सारे काम करती है। लेकिन पुरुष समाज उनकी मजबूरी का फायदा उठाते है उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार करते है, काम के बहाने शोषण करते है । दलित स्त्रियों की स्थिती बहुत ही दयनीय है। आर्थिक या सामाजिक दृष्टि से दलित स्त्रियों का संघर्ष कई गुना अधिक है। वे हमेशा कठिन परिश्रम करती आयी है। लेकिन उनके मेहनत का उन्हें कभी सही मूल्य नहीं मिला है।  डॉ.काली चरण 'स्नेही' जी ने अपनी कविता 'दोनों के हाथ झाडू है' में लिखते है- 'पुरुष ने अप

आचार्य ब्रह्मानंद शुक्ल के संस्कृत काव्य  में देश-प्रेम की भावना

निधि देश-प्रेम की भावना - देश के प्रति लगाव तथा समर्पण का भाव ही 'देशप्रेम' है। वह देश जहाँ हम जन्म लेते हैं, जिसमें निवास करते हैं उसके प्रति अपनापन स्वाभाविक है। एक सच्चा देश प्रेमी अपनी मातृभूमि को अपनी माँ के समान ही प्रेम करता हैं जो व्यक्ति देशप्रेम की भावना से पूर्ण होते हैं वे ही देश की उन्नति में सहायक होते हैं। देश की सुरखा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देना ही सही मायने में देश प्रेम है। देशप्रेम की भावना ही मनुष्य को अपनी मातृभूमि के प्रति कृतज्ञ बनाती हैं किसी भी देश की शक्ति उसमें निवास करने वाले लोग होते है जिस देश के लोगों में देशप्रेम की भावना जितनी अधिक पाई जाती है वह देश उतना ही विकसित एवं उन्नत होता हैं देश प्रेम की भावना एक पवित्र भावना है। देशप्रेम व्यक्ति के हृदय में त्याग और बलिदान की भावना को जाग्रत कर देता है जिससे व्यक्ति अपने प्राणों को त्यागकर भी देश के सम्मान की रक्षा करता है। जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया गया है-''जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदापिगरीयसी'' जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। हमारा देश 'अनेकता में एकता'

गाँव अपने लौट चलते हैं

अमन कुमार इन शहरों के सौ सुख भैया अब तो खलते हैं। चल रे मनवा गाँव अपने लौट चलते हैं।। लंबी सड़कें दीखें हैं-रे नागिन सी यहाँ, ऊँची ये इमारतें हैं बैरिन सी यहाँ, हर व्यवस्था दीखती है डाकिन सी यहाँ, रहबर खुद ही रहजन बनके हमको छलते हैं।। शहरी नदियों का अमृत सा जल जहरीला है पुरवइयों का रंग यहाँ पे नीला-नीला है, हर-एक सुर्ख गुलाबी चेहरा दिखता पीला है, जाने कितने रोग यहाँ घर घर में पलते हैं।। रिश्ते-नाते धन-दौलत से तोले जाते रे, बिन मतलब के बोल यहाँ कब बोले जाते रे, व्यवहारों में नीम-करेले घोले जाते रे, गुड़-गन्ने से मीठेपन को हाथ मलते हैं।। दिल है पर संवेदना से खाली-खाली है, उजला तन, पर भावना हर मन की काली है, इंसां खुद इंसानियत के नाम गाली है, जाने कैसे लोग यहाँ पे रंग बदलते हैं।। -अमन कुमार त्यागी

लौटे हुए मुसाफिर: एक अंतहीन विभाजन

मधुबाला पाण्डेय madhuvshukla@gmail.com   भारत- पाकिस्तान विभाजन की समस्या को लेकर हिंदी कथा साहित्य में ढेर सारे उपन्यास और कहानियाँ लिखी गई है। इस समस्या के विषय की समानता होने पर भी 'लौटे हुए मुसाफिर' उपन्यास की यह विशेषता है कि इसमें यथार्थवादी दृष्टि से समस्याओं के जड़ से लेकर अंत तक का चित्रण किया गया है। कमलेश्वर ने मुख्यतः मध्यमवर्गीय जीवन के यथार्थ को अपने साहित्य में अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। उनके साहित्य में रूढियों के प्रति तिरस्कार एवं विद्रोह, प्रगतिशीलता एवं नवीन मूल्यों के आग्रह का सशक्त स्वर मिलता है। विभाजन को विषय बनाकर लिखे गए उनके साहित्य में मानवीय संबंधों में पनपते शक, नफरत, अलगाव, तथा टूटते मानवीय मूल्यों, आस्थाओं की छटपटाहट और आकुलता तो है ही, साथ ही विभाजन के कारण मानव जीवन में उत्पन्न विडम्बना पूर्ण स्थितियों का मर्मस्पर्शी चित्रण भी है। विभाजन के दौरान, एहसास में निरंतर आनेवाली कमी को, जिसने मानवीय संबंधों में दरार और उलझनें पैदा की, उसी एहसास का चित्रण उन्होने अपने साहित्य में किया है।  इस संदर्भ में डाॅ. सच्चिदानंद राय का कथन है कि- 'लौटे

आक्रमण कब का हो चुका

प्रो. ऋषभदेव शर्मा  तेलंगाना के किसानों की व्यथा पेद्दिन्टि अशोक कुमार इक्कीसवीं शताब्दी के अत्यंत प्रखर और संभावनाशील तेलुगु कहानीकार हैं। उन्हें जमीन से जुड़े ऐसे लेखक के रूप में पहचाना जाता है जिसे आंध्रप्रदेश, विशेष रूप से तेलंगाना अंचल की समस्याओं और सरोकारों की गहरी पहचान है। विभिन्न भाषाओं में अनूदित और विविध पुरस्कारों से सम्मानित अशोक कुमार एक उपन्यास और पाँच कहानी संग्रह तेलुगु साहित्य जगत को दे चुके हैं। 'आक्रमण कब का हो चुका' में उनके तीन विशिष्ट कहानी संग्रहों से चुनी हुई 11 प्रतिनिधि कहानियों का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया गया  है। इस प्रतिनिधि कहानी संकलन से हिंदी के पाठक तेलुगु के इस जनपक्षीय कथाकार की संवेदना और रचनाशैली से परिचित हो सकते हैं।  पेद्दिन्टि अशोक कुमार मूलतः किसान जीवन के रचनाकार हैं। उन्होंने भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के तेलंगाना के गाँवों पर पड़ रहे दुष्प्रभाव को निकट से देखा-जाना है और विपरीत परिस्थितियों में पड़े हुए किसानों की आत्महत्या के दारुण सत्य को भी अपनी कलम से उकेरा है। आर्थिक विकास का जो माॅडल पिछले दशकों में भारत सरकार ने अपनाया है वह किस