Skip to main content

Posts

कहानीकारों की दुनिया में गाँव

प्रो. ऋषभदेव शर्मा  ग्रामवासिनी भारतमाता के चित्र हिंदी कहानी ने आरंभ से रुचिपूर्ण उकेरे हैं। कहानीकारों ने यह भी लक्षित किया है कि हमारी ग्राम संस्कृति में परिवर्तन तो युगानुरूप हुआ ही है, प्रदूषण भी प्रविष्ट हो गया है। उन्होंने परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व के साथ ही हाशियाकृत समुदायों के उठ खड़े होने को भी अपनी कहानियों में समुचित अभिव्यक्ति प्रदान की है और उनके संघर्ष को धार भी दी है। इसमें संदेह नहीं कि विभिन्न कहानीकारों ने ग्रामीण जन-जीवन के स्वाभाविक दृश्यों को अपनी-अपनी भाषा-शैली के माध्यम से प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है तथा ग्रामीणों पर होने वाले अत्याचार व अन्याय तथा उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया, संघर्ष और प्रतिरोध को स्वर दिया है।  प्रेमचंद ने ग्राम्य जन-जीवन संबंधी अनेक कहानियाँ लिखीं, जिनमें ग्रामीण यथार्थ संबंधी विभिन्न विषयों का उल्लेख उपलब्ध है। सवा सेर गेहूँ, सती, सद्गति आदि ग्रामीण जीवन की कथाओं में उन्होंने ग्राम जीवन तथा वहाँ के रहन-सहन व शोषण आदि स्थितियों को स्पष्ट किया है। 'सवा सेर गेहूँ' कहानी में शंकर जैसा सीधा-सादा किसान विप्र के ऋण को खलिहानी के रूप मे

एक टुकड़ा ज़मीन दो टुकड़े भूख

आलोक कुमार हैलो सेठ जी, राम-राम! मोबाइल की घंटी बजते ही सुभाष ने मोबाइल की स्क्रीन पर देखा। वह मुस्कुराया और फिर स्पीकर आॅन कर अपने कान से लगा लिया।  -'राम-राम प्रधान जी।' उधर से आवाज़ आई। -'कैसे हैं सेठ जी? कहो कैसे याद किया।' सुभाष ने मुन्नू की ओर देखते हुए पूछा। -'प्रधान जी! हम तो अनीता से बहुत दुःखी हो गए हैं।' उधर से आई आवाज़ को सुनकर मुन्नू घबरा गया। उसके हाथ में थमा फावड़ा छूटकर ज़मीन पर गिर गया और पलक झपकते ही उसका पूरा अस्तित्व सर्दी के बावजूद पसीना-पसीना हो गया। आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा तो वह ज़मीन पर बैठ गया और अपने दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया। -'बात क्या है? सेठ जी!' सुभाष प्रधान ने मुन्नू पर ध्यान दिए बिना ही पूछा। जबकि हालत ख़राब होने के बावजूद मुन्नू के कान फ़ोन से आती आवाज़ पर ही लगे रहे। -'बात क्या है? कुछ बताने लायक़ भी नहीं है। अनीता से बहुत कहते हैं कि सुबह को सब के साथ बैठकर चाय पी लिया कर मगर नहीं मानती।' उधर से कहा गया। -'इसमें नाराज़गी की क्या बात है? जब मन होगा पी लेगी, हम समझा देंगे।' सुभाष ने समझाने का प्रयास किया।

अन्नदाता की भूख

भोलानाथ त्यागी तंत्र जब लोक पर हावी हो जाता है, तब एक नई कहानी का जन्म होता है और इस युग के तथाकथित लोकतंत्र में तो, यह सब सहज संभव है। यहाँ नित्य, नई कहानियाँ करवट बदलती हैं। इसी क्रम में, कृषि प्रधान यह देश, कब कुर्सी प्रधान बन गया? गाँव के सीधे-साधे किसान नहीं समझ पाए और खेती-किसानी के नाम पर, देश की राजधानी में पूरा एक वातानुकूलित मंत्रालय उग आया, जिसमें सूट-बूट धारी, नीति नियंता जो निर्णय लेते, उसमें किसान का क्या हित होता है, यह एक अलग शोध का विषय बन गया है। 'शुगर लाबी' के नाम पर, देश और प्रदेश की राजनीति में एक अलग ही व्यवस्था अंगड़ाई लेने लगी। और 'शुगर लाबी' की, कड़वाहट झेलते-झेलते किसान, इच्छा मृत्यु की चाह करने लगा। भुवन ने अपने खेतों में इस गन्ना सीज़न में, पूरी मेहनत के साथ, गन्ने की अगेती प्रजाती उगाई थी। उसे देखने के लिए, दूर-दूर के ज़िलों के किसान आते। विभागीय अधिकारी और कर्मचारी भी, भुवन के खेत में खड़े होकर उगाई गई गन्ना फ़सल के बीच माॅडलिंग की मुद्रा में फ़ोटो खिंचवाते, अख़बारों में सरकारी आंकड़ों के साथ विज्ञप्ति, प्रकाशन हेतु जारी करते और सरकारी काग़ज़ों में उन

मेरी बछिया

आलोक कुमार सुगन ने लवारे को अपने हाथों से नहलाया और छाया में बिठा दिया। डाॅक्टर ने उसे जो बताया उसने वही किया। अपना दिमाग़ लगाकर वह कुछ गड़बड़ नहीं करना चाहता था। पड़ौस में रहने वाले बिरजू की पत्नी सुगन का भरपूर साथ दे रही थी। शाम को गाय का खीस निकाला गया तो सुगन ने मंदिर में चढ़ाने के बाद पूरे गाँव में परंपरा के अनुसार प्रसाद की तरह बांटा। सुगन बेहद खुश था। आज उसकी बछिया गाय जो बन गई थी। अब वह फिर से गाय का दूध पिएगा और कुछ बेचकर अपनी बहन गीता के बच्चे के लिए कुछ पैसे जोड़ेगा। खुशी के इस अवसर पर सुगन को अपनी बहन के विवाह, माँ और गाय की याद आने लगी थी।  उस दिन गाँव में विशेष चहल पहल और खुशी का माहौल था। होता भी क्यों नहीं? जब भी गाँव में किसी एक के घर कोई उत्सव होता है, उसे पूरे गाँव का उत्सव मान लिया जाता है। अमीर-ग़रीब का भेद मिट जाता है और उत्सवित परिवार की ज़रूरतों पर पूरे गाँव का ध्यान लगा रहता है। ऐसा ही गीता की शादी में भी हुआ। गीता के पिता जी असमय ही स्वर्गवासी हो गए थे। माँ थी जो किसी तरह गीता और उसके भाई सुगन को पाल पोष रही थी। ज़मीन के नाम पर दो बीघा ज़मीन थी। बच्चे छोटे होने के कारण

दुद्दा की कुल्फ़ी

मनोज कुमार त्यागी असौज की विदाई पर कार्तिक माह दस्तक दे रहा था। हल्की-हल्की ठंड पड़ने लगी थी। शहर में जहाँ आठ बजे के बाद रात शिद्दत से जागती है, वहीं गाँव सो जाता है। सपनों को आच्छादित करता कोहरा, मोतियों को मात देती ओस की बूंदे, चप्पे-चप्पे को सराबोर करती चाँदनी मानो गाँव को शोभा प्रदान कर रही हो।  जब तेजस शहर से वापस गाँव आ रहा था तो दूर से उसे आग जलती दिखाई पड़ी थी। गाँव में बिजली तो आ गई थी पर उसे आँख मिचैली वाला खेल खूब भाता था। आठ बजने को थे, पूरा गाँव खर्राटे भर रहा था। वहीं एक वृद्ध जोड़ा अलाव के पास आग ताप रहा था। जोड़े को देख कर तेजस मुस्कराने लगा।  वह जानता था कि बूढ़ा सुमेर सिंह, बूढ़ी जसप्रीत देर रात तक बातें करते रहते हैं। बूढ़े के कानों से बातें टकराकर अटक जातीं, कुछ बातें वो एकदम सुन लेता। वहीं बूढ़ी ज़रा सी फुसफुसाहट को भी ध्वनि में परिवर्तित कर देती। बूढ़ा पढ़ा-लिखा परंतु एकदम खांटी किसान था। तेजस चुपचाप खड़ा होकर उनकी बातें सुनता जो कहानियों की तरह होतीं। लगता जैसे किसी ने उनके संवाद स्क्रिप्ट की तरह लिखकर दे दिए हों। शुरु में तो वो धोखा खा गया था जब उसने शहर से आकर गाँव में रहन

गुलाबों का बादशाह

अमन कुमार           आसपास के सभी लोग उसे गुलाबों के बादशाह के रूप में ही जानते थे। उसका असल नाम क्या है? अब तो स्वयं उसे भी स्मरण नहीं रहा मुश्किल से तीन वर्ष का रहा होगा, जब उसके माँ-बाप ने उससे सदा के लिए विदा ले ली थी। इस भरी दुनिया में वह नितांत अकेला था। उसकी उम्र लगभग पैंसठ वर्ष हो चुकी है। विवाह के अनेकों प्रस्तावों के बावजूद उसने कुंवारा ही रहना उचित समझा। मन लगाने के लिए उसके पास बड़ा सा गुलाबों का बग़ीचा है। कहा जाता है कि जब उसके माता-पिता ने उससे विदा ली थी, तब वह इसी बग़ीचे में था। यह बग़ीचा उस वक़्त उतना ख़ूबसूरत नहीं था, जितना कि आज है। तब व्याधियाँ भी अधिक थीं और उसके माता-पिता इस बग़ीचे की देखभाल भी उचित प्रकार से नहीं कर सके थे। पड़ोसियों के जानवर इस बग़ीचे में आते। जहाँ अच्छा लगता मुँह मारते और जहाँ मन करता गोबर करते और फिर चले जाते। हद तो ये हो गई कि बाद में एक दो सांडों ने इस सुंदर बग़ीचे को अपना आशियाना ही बना लिया। गुलाबों के बादशाह के माता-पिता इन सांडों से मरते दम तक अपने बग़ीचे को आज़ाद नहीं करा सके। आज गुलाबों का बादशाह अपने बग़ीचे को साफ-सुथरा रखता है। क्या मजाल एक भी प

एक दिन व्हाट्सएप पर

रश्मि अग्रवाल   जब से परिचय हुआ व्हाट्सएप से, दुनिया ही बदल गई तब से। आज झटपट बात पहुँच जाती उन तक, पहुँचाना चाहते हैं जिन तक। परंपराएँ बदल रहीं, परिवर्तन की बेला में, छोटे से उपकरण ने धूम मचा दी, दिमाग़ के हर कोने में। बधाई मिलती थी पहले, पास आकर/जाकर- हौले से हाथों को दबाकर, उपहार दिए जाते थे सौग़ातों में, सजीव हों या निर्जीव हाथों में थमाकर। आज.... गिला-शिकवा हो या बधाई, गुलदस्ता हो या मिठाई भेज दी जाती है व्हाट्सएप पर। ये तो कुछ भी नहीं सुनो! इससे आगे की, विवाह हो या वर्षगाँठ, जन्म दिन या मरणदिन सुख-दुःख सभी, बाँट लिए जाते हैं व्हाट्सएप पर। जानते हैं परिणाम क्या होगा? एक दिन  जिन भावनाओं के साथ, निमंत्रण पत्र भेजा जाएगा, उन्हीं भावनाओं के साथ  शगुन भी भेज दिया जाएगा। वैज्ञानिक परिवर्तन की ना पूछो बात, एक दिन हनीमून भी- मना लिया जाएगा व्हाट्सएप के साथ। भले ही इन सबका रंग-रूप स्वाद न ले पाएं हम, पर दूर बैठ कर भी काम चला लिया जाएगा, एक दिन व्हाट्सएप पर।