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ताऊ जी

आलोक कुमार 'ताज़गी प्रदान करती ठंडी हवा, खुला चबूतरा, चैपाल, हुक्का गर्मियों की दोपहरी में पीपल की घनी छाँव के नीचे एक साथ बैठकर तास का खेल, बीच-बीच में जुमले, छींटाकशी ये मनोहारी दृश्य होते हैं गाँव के।' गगन गाँव की तारीफ करते-करते रुका, फिर एक छोटे से ब्रेक के बाद बोला 'ताऊ जी जैसे बुजुर्गों का अनुभव अगली पीढ़ी के ज्ञान में वृद्धि कर देता है।' 'चल छोड़ .... तेरे ताऊ जी क्या एनसाईक्लोपीडिया हैं?' एक मित्र ने गगन से कहा तो गगन बिना गुस्सा किए बोला- 'हाँ भाई! मुझे तो ऐसा ही लगता है।' 'चल गाँव तो चलना ही है ताऊ जी से मिलना भी हो जाएगा।' उसी मित्र ने कहा तो गगन ने जवाब दिया, 'बिल्कुल, बस कल ही तो मिलना है।  अपने गाँव की इसी तरह की अनेक विशेषताओं के बीच गगन अपने ताऊजी का अक्सर जिक्र करता रहता है। गगन के साथी भी देहरादून में कृषि वैज्ञानिक हैं। गगन शहर में पढ़ा जरूर है मगर गाँव की जरा-सी बुराई नहीं सुन सकता। उसके साथी जब भी उससे गाँव के बारे में पूछते तो बस जरा-सी शुरूआत की जरूरत होती। सभी मित्र जानते थे परंतु फिर भी गगन को छेड़ने की नियत से कुछ भी पूछ

कर्ज

अमन कुमार सावन का महीना बीत चुका था। आम की फसल इस बार कम ही थी, सो आम का समय भी गया ही समझो। कोयल की कूक तो बस अब अगले साल ही सुनने को मिल पाएगी। गर्मी के मारे बुरा हाल है। उमस भरी इस गर्मी से जमीन फट पड़ी है। यूँ समझो कि वो रोना चाहती है मगर उसकी आँखों का पानी सूख चुका है। अगर ऐसा ही रहा तो अबकी बार धान की फसल भी चैपट ही समझो। धान की पौध क्यारियों में ही सूख गई है। गन्ने की हालत और भी खराब। महेश साईकिल पर तेल की कैन लादे अभी गाँव में घुसा ही था कि उसका छोटा भाई दौड़कर उसके पास पहुँच हाँफते हुए बोला -'तेल मैं ले जाऊँगा भैया! तुम साईकिल से निकल लो, दो सिपाहियों के साथ अमीन आया हुआ है। उसने छोटे और भूरे को पकड़ भी लिया है।' सुनकर महेश की पिंडलियाँ काँप गईं। प्यास तो लग ही रही थी कि होंठों पर पपड़ी जम गई। पसीने की हालत यह थी कि मानो सोते फूटकर नदी बह निकली हो। उसने जल्दी-जल्दी तेल की कैन साईकिल के कैरियर से उतारी और साईकिल लेकर विपरीत दिशा की ओर तेज-तेज पैंडल मारते हुए चला गया। कहाँ जाएगा? उसे पता नहीं। अमीन से बचने के लिए बैठ जाएगा किसी पेड़ की घुटन भरी छांव में। कोई रिश्तेदार भी ऐसा

चोर नहीं

अर्चना सुयाल कोमल है कमजोर नहीं तू, शेरनी है कोई चोर नहीं तू, काली दुर्गा और शिवानी, तू महामाया, तू रूद्रानी । पूजते हैं तुम्हें राजा-रानी, प्रेम से सुनते तेरी कहानी, भर-भर के आॅंखों में पानी, तुझे चढ़ाये गंगा का पानी । कौन बिगाड़ तेरा पायेगा, जो आयेगा मिट जायेगा, रूप देखकर डर जायेगा, क्रोध में तेरे जल जायेगा । हाथ पकड़े तो, तोड़ दे उसको, आॅंख दिखाये तो, फोड़ दे उसको, सच्चा रास्ता दिखा दे उसको, अच्छी सीख सिखा दे उसको । काली दुर्गा की शक्ति तुम, भोले नाथ की हो भक्ति तुम, वर पाओ भोले दानी से, काली, भवानी, रूद्रानी से । पाप का घड़ा फोड़ तुम डालो, पाप का बखिया, उधेड़ तुम डालो, गंगाजी में खूब नहाओ, बम-बम भोले शंकर गाओ ।।

तू ही मेरा प्यार सोनिया

अशोक स्‍नेही तू ही मेरा प्यार सोनिया होंठ सुर्ख़ टेसू दहके से  नयन मस्त भौंरे बहके से अंग-अंग चहके-चहके से चंचल भौंह-दुधारी चितवन- गालों पर अंगार सोनिया।। तू ही मेरा प्यार सोनिया पीठ-पाँव नाजुक कदली से  कुन्तल सावन की बदली से  मुक्त हास चंचल तितली से  दो उरोज दो अल्पनाओं से- ऊपर से ये हार सोनिया।।

दोहे मेरे गाँव के

इंद्रदेव शर्मा 'भारती'   जित देखूँ उत ही दिखै, गाँव-गाँव अंधियार उमर बिताई ढूँढते, दिनकर सा उजियार धनवानों के शीष पै, महल-दुमैली छाँव ऊपर नभ, नीचै धरा, निर्धनिया की ठाँव लिखी हवेली साहू को, लिखे खेत और बाग पर कच्चा कोठा लिखा, क्यों होरी के भाग हारे की हंडिया कढ़ा, दूध पियै गुड़ संग मखना वाले छाछ में, दिखंै गाँव के रंग धूल उड़ि गौधूलि की, गईयन लौटें धाम दिये जलैं हर द्वार पै, गाँवन उतरी शाम बैठ जुगाली कर रहे, गाय, भैंस और बैल भजन-आरती गाये हैं, गाँवन की खपरैल दाता कच्ची कोठरी, निर्धनिया के नाम पक्के कोठे लिख दिये, मुखियाओं के नाम पेड़ माँगने लग गये, बादल जी सै छाँव अब तो बरसो राम जी, पड़ैं तुम्हारे पाँव चूल्हे सुलगैं शाम के, लकड़ी करतीं बात चकला-बेलन बाजते, नाचैं तवा-परात तवे बगड़ की रोटियाँ, हाँडी खदकै साग जीरे, मिरचा, हींग का, छौंक लगावै आग ढोलक, ढपली, बाँसुरी, खो गयी रे खड़ताल आल्हा गूँजैं थे जहाँ, दिखैं न वो चैपाल कली खिलै कचनार की, मादक जिसकी गंध स्वाद कसैला होय है, होय बड़ी गुणवंत होरी, धनिया, गोबरा, साहू, जुम्मन शेख देख सकै तो गाँव को, दाता इनमें देख हरुआ काँधे पै सजै, हाथन हँसिया

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए

दुष्‍यंत कुमार    कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए, कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए। न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए। खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही, कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए। तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की, ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए। जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले, मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

कृषि में नीली-हरी काई का जैव-उर्वरक के रूप में उपयोग

डाॅ. मुकेश कुमार एसोसिएट प्रोफेसर, वनस्पतिविज्ञान विभाग, साहू जैन काॅलेज, नजीबाबाद- 246763 उ.प्र. भारत एक कृषि प्रधान देश है यहाँ की अधिकांश जनसंख्या का मुख्य भोजन चावल है। धान का उत्पादन करने वाले प्रदेशों में उत्तर प्रदेश का अग्रगण्य स्थान है। यहाँ लगभग 56.15 लाख हेक्टेयर भूमि पर धान का उत्पादन किया जाता है। परंतु औसत उपज मात्र 18.27 कुंतल प्रति हेक्टेयर ही है जबकि अन्य प्रदेशों जैसे पंजाब, तमिलनाडु एवं हरियाणा में औसत उपज क्रमशः 35.10, 30.92 एवं 27.34 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। उपज में बढोत्तरी के लिए उन्नत बीजों के साथ-साथ उर्वरकों की समुचित मात्रा की भी आवश्यकता होती है। रासायनिक उर्वरक आयातित पैट्रोलियम पदार्थों से बनते हैं जिसके कारण ऐसे उर्वरकों के दाम दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं और यह लघु एवं सीमांत कृषकों की क्रय क्षमता के बाहर होते जा रहे हैं। अतः ऐसे किसान धान की भरपूर उपज प्राप्त करने में असमर्थ रह जाते हैं। साथ ही दूसरा मुख्य कारण यह है कि पानी भरे धान के खेतों में डाली गई रासायनिक नत्रजन उर्वरक का मात्र 35 प्रतिशत भाग ही धान के नवोद्भिद उपयोग कर पाते हैं, शेष नत्रजन उर्वर