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अमन का राग

शमशेर बहादुर सिंह   सच्‍चाइयाँ जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं हिमालय की बफीर्ली चोटी पर चाँदी के उन्‍मुक्‍त नाचते               परों में झिलमिलाती रहती हैं जो एक हजार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समंदर है उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ कि बसंत के नये प्रभात सागर में छोड़ दी गयी हैं। ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्‍मा के ताने-बाने हैं मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द               लपेट लिया और मैं योरप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर बहुत हौले-हौले नाच रहा हूँ सब संस्‍कृतियाँ मेरे सरगम में विभोर हैं क्‍योंकि मैं हृदय की सच्‍ची सुख-शांति का राग हूँ बहुत आदिम, बहुत अभिनव। हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे सुलग उठे हैं सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं सिम्‍फोनिक आनंद की तरह यह हमारी गाती हुई एकता संसार के पंचपरमेश्‍वर का मुकुट पहन अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोक-प्रेसिडेंट बन उठी है। देखो न हकीकत हमारे समय की कि जिसमें होमर एक हिंदी कवि सरदार जाफरी को इशारे से अपने करीब बुला रहा है कि जिसमें फैयाज खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है म

सूरज के घोड़े

वृंदावनलाल वर्मा   सूरज के घोड़े इठलाते तो देखो नभ में आते हैं टापों की खटकार सुनाकर तम को मार भगाते हैं कमल-कटोरों से जल पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं सूरज के घोड़े इठलाते तो देखो नभ में आते हैं।

आह ! वेदना मिली विदाई

जयशंकर प्रसाद   आह ! वेदना मिली विदाई आह ! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई छलछल थे संध्या के श्रमकण आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अँगड़ाई श्रमित स्वप्न की मधुमाया में गहन-विपिन की तरु छाया में पथिक उनींदी श्रुति में किसने यह विहाग की तान उठाई लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी रही बचाए फिरती कब की मेरी आशा आह ! बावली तूने खो दी सकल कमाई चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर प्रलय चल रहा अपने पथ पर मैंने निज दुर्बल पद-बल पर उससे हारी-होड़ लगाई लौटा लो यह अपनी थाती मेरी करुणा हा-हा खाती विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे इसने मन की लाज गँवाई

ग्राम-गीत

जयशंकर प्रसाद   शरद्-पूर्णिमा थी। कमलापुर के निकलते हुए करारे को गंगा तीन ओर से घेरकर दूध की नदी के समान बह रही थी। मैं अपने मित्र ठाकुर जीवन सिंह के साथ उनके सौंध पर बैठा हुआ अपनी उज्ज्वल हँसी में मस्त प्रकृति को देखने में तन्मय हो रहा था। चारों ओर का क्षितिज नक्षत्रों के बन्दनवार-सा चमकने लगा था। धवलविधु-बिम्ब के समीप ही एक छोटी-सी चमकीली तारिका भी आकाश-पथ में भ्रमण कर रही थी। वह जैसे चन्द्र को छू लेना चाहती थी; पर छूने नहीं पाती थी। मैंने जीवन से पूछा-तुम बता सकते हो, वह कौन नक्षत्र है? रोहिणी होगी। -जीवन के अनुमान करने के ढंग से उत्तर देने पर मैं हँसना ही चाहता था कि दूर से सुनाई पड़ा- बरजोरी बसे हो नयनवाँ में। उस स्वर-लहरी में उन्मत्त वेदना थी। कलेजे को कचोटनेवाली करुणा थी। मेरी हँसी सन्न रह गई। उस वेदना को खोजने के लिए, गंगा के उस पार वृक्षों की श्यामलता को देखने लगा; परन्तु कुछ न दिखाई पड़ा। मैं चुप था, सहसा फिर सुनाई पड़ा- अपने बाबा की बारी दुलारी, खेलत रहली अँगनवाँ में, बरजोरी बसे हो। मैं स्थिर होकर सुनने लगा, जैसे कोई भूली हुई सुन्दर कहानी। मन में उत्कण्ठा थी, और एक कसक भरा क

भारत की जय

चंद्रधर शर्मा गुलेरी   हिंदू, जैन, सिख, बौद्ध, क्रिस्ती, मुसलमान पारसीक, यहूदी और ब्राह्मन भारत के सब पुत्र, परस्पर रहो मित्र रखो चित्ते गणना सामान मिलो सब भारत संतान एक तन एक प्राण गाओ भारत का यशोगान

मेरा देश बड़ा गर्वीला

गोपाल सिंह नेपाली   मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रँगीली नीले नभ में बादल काले, हरियाली में सरसों पीली यमुना-तीर, घाट गंगा के, तीर्थ-तीर्थ में बाट छाँव की सदियों से चल रहे अनूठे, ठाठ गाँव के, हाट गाँव की शहरों को गोदी में लेकर, चली गाँव की डर नुकीली मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रँगीली खडी-खड़ी फुलवारी फूले, हार पिरोए बैठ गुजरिया बरसाए जलधार बदरिया, भीगे जग की हरी चदरिया तृण पर शबनम, तरु पर जुगनू, नीड़ रचाए तीली-तीली मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रँगीली घास-फूस की खड़ी झोपड़ी, लाज सँभाले जीवन भर की कुटिया में मिट्टी के दीपक, मंदिर में प्रतिमा पत्थर की जहाँ बाँस कंकड़ में हरि का, वहाँ नहीं चाँदी चमकीली मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली जो कमला के चरण पखारे, होता है वह कमल कीच में तृण, तंदुल, ताम्बूल, ताम्र, तिल के दीपक बीच-बीच में सीधी-सादी पूजा अपनी, भक्ति लजीली मूर्ति सजीली मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रँगीली बरस-बरस पर आती होली रंगों का त्यौहार अनोखा चुनरी इधर-उधर पिचकारी, गाल-भाल पर कुमकुम फूटा लाल-लाल बन जाए काले, गोरी सूरत पीली-नीली

अँधेरे में

गजानन माधव मुक्तिबोध   जिंदगी के...       कमरों में अँधेरे       लगाता है चक्कर       कोई एक लगातार; आवाज पैरों की देती है सुनाई बार-बार... बार-बार, वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता, किंतु वह रहा घूम तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक, भीत-पार आती हुई पास से, गहन रहस्यमय अंधकार ध्वनि-सा        अस्तित्व जनाता        अनिवार कोई एक, और मेरे हृदय की धक्-धक् पूछती है - वह कौन सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई ! इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से फूले हुए पलस्तर, खिरती है चूने-भरी रेत खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह - खुद-ब-खुद कोई बड़ा चेहरा बन जाता है, स्वयमपि मुख बन जाता है दिवाल पर, नुकीली नाक और भव्य ललाट है, दृढ़ हनु कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति। कौन वह दिखाई जो देता, पर नहीं जाना जाता है ! कौन मनु ? बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब... अँधेरा सब ओर, निस्तब्ध जल, पर, भीतर से उभरती है सहसा सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है और मुसकाता है, पहचान बताता है, किंतु, मैं हतप्रभ, नहीं वह समझ में आता। अरे ! अरे !! तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष चमक-चमक उठते