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स्वतन्त्र होने की लड़ाई है-स्त्री विमर्श

प्रतिमा रानी प्रवक्ता-हिन्दी कृष्णा काॅलेज, बिजनौर 'नारीवाद’ शब्द की सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन कार्य हैं यह एक कठिन प्रश्न है राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के सोचने के तरीकों तथा उन विचारों की अभिव्यक्ति का है। स्त्री-विमर्श रूढ़ हो चुकी परम्पराओं, मान्यताओं के प्रति असंतोष तथा उससे मुक्ति पाने का स्वर है। स्त्री-विमर्श के द्वारा पितृक प्रतिमानों व सोचने की दृष्टि पर अनेक प्रश्नों द्वारा कुठाराघात करते हुए विश्व चिंतन में नई बहस को जन्म देता है।  प्राचीन भारतीय समाज में स्त्री को देवी स्वरूप माना गया है। वैदिक काल में कहा भी गया है-  ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, तत्र रम्यते देवता’’ (वैदिक काल)  परन्तु आम बोलचाल की भाषा में नारी को अबला ही कहा गया है। महान् साहित्यकारों ने भी नारी के अबला रूप को साहित्य में कुछ इस तरह वर्णित किया है।   ‘‘हाय अबला तुम्हारी यही कहानी।’’   आँचल में है दूध आँखों में पानी।। (मैथिलीशरण गुप्त)  महादेवी वर्मा ने नारी को कुछ इस प्रकार दर्शाया है।    ‘‘मैं नीर भरी दुःख की बदरी।’’  ‘‘नारी-विमर्श को लेकर सदैव अलग-अलग दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है। इंग्लैंड

वाह रे किसान

अमन कुमार भूकंप के आने से गज सिंह को बड़ा नुकसान हुआ था। पिछले दिन ही तो उसने अपने मकान का लिंटर डलवाया था। लिंटर अभी सैट भी नहीं हुआ था कि करीब पाँच घंटे बाद ही भूकंप आ गया था। भूकंप की तीव्रता इतनी तेज थी कि लिंटर में जगह-जगह दरार आ गई थी। सुबह होते-होते गाँव के लोग इकट्ठा होने लगे थे। सबकी अपनी-अपनी राय थी। मजमा लग चुका था। गज सिंह परेशान हो उठे। उन्होंने सूरज निकलने से पहले ही राज मिस्त्री को बुलवा लिया।  -‘मिस्त्री साहब, जो भी हो नुकसान होने से बचा लो, मेरे पास अब इतना पैसा नहीं है कि मैं पूरा लिंटर डलवा सकूँ।’ गज सिंह ने मिस्त्री को अपनी स्थिति बता दी।  -‘वो तो ठीक है मालिक, मगर अब तक तो सिमेंट सैट हो चुका है, सब तुड़वाना ही पड़ेगा, दरारों को भर देने से भी कोई लाभ नहीं होने वाला है, बारिश में टपकेगा।’ मिस्त्री ने असमर्थता व्यक्त की।  -‘अब क्या होगा?’  -‘होना क्या है? दो कट्टे सीमेंट मँगा लो, प्रयास करता हूँ, दो-चार साल तो काम चल ही जाएगा।’ मिस्त्री ने हिम्मत बधाई तो गज सिंह की जान में जान आई।  -‘ठीक कर दो भैया, बाकी दो-चार साल बाद देखा जाएगा।’ गज सिंह ने कहते हुए एक बार फिर ढुल्ले

अंतिम दशक की हिंदी कविता और स्त्री

स्वाति किसी भी काल का साहित्‍य अपने समाज और परिवेश से कटकर नहीं रह सकता। साहित्य की प्रत्‍येक काल विशेष की रचनाओं में हम उस काल विशेष की सामाजिक स्थिति, परिवेश एवं उस परिवेश में रहने वाले लोगों की इच्‍छाओं एवं आकांक्षाओं को अभिव्‍यक्ति होते पाते हैं। कविता मनुष्य की अनुभूतियों को सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान करने का माध्यम है। कविता के माध्यम से कवि समाज में निहित सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं व विडंबनाओं पर प्रहार करने में सक्षम होता है। बात अगर स्त्री की कि जाए तो आदिकाल से वर्तमान युग तक की कविताओं में स्त्री अपनी उपस्थिती दर्ज कराती आयी है। फर्क सिर्फ यह है की पहले स्त्रियाँ पुरुषों की कविताओं मे दिखाई देती थी,अब खुद अपनी कविताएँ रचती हैं इतना ही नहीं अपने आत्मसम्मान एवं अस्मिता को पाने में निरंतर प्रयासरत हैं। प्रत्येक काल में स्त्रियों को देखने की दृष्टियाँ अलग-अलग रही हैं जैसे-भक्तिकाल में स्त्री को माया, ठगिनी के रूप में प्रस्तुत किया जाता था या मोक्ष के मार्ग में बाधा के रूप में वहीं आदिकाल में स्त्रियों को पाने के लिए किस प्रकार युद्ध होते थे उनका वर्णन हमें देख

राजनीति को वोट की जरूरत होती है

अमन  कुमार त्‍यागी   अंधे को आंख की लंगड़े को टांग की लूले को हाथ की गूंगे को जीभ की बहरे को कान की जैसे जरूरत होती है वैसे ही राजनीति को वोट की जरूरत होती है भूखे को ब्रेड की प्रिय को प्रेम की नंगे को वस्त्र की योद्धा को अस्त्र की बच्चे को मां की जैसे जरूरत होती है वैसे ही राजनीति को वोट की जरूरत होती है वोट की जरूरत दिखाई देती है बटन दबाने तक या मोहर लगाने तक उसके बाद होता है खेल रेलमपेल धकमधकेल धकमधकेल रेलमपेल

बोलो हिन्दुस्तान

- इन्द्रदेव भारती   बोलो हिन्दुस्तान """""""""""""""""""""""""""""" " बोलो  हिन्दुस्तान  कहाँ तक, कितनी  हिंसा  और  सहोगे ।  आज अगर चुप बैठे तो कल, कहने   लायक  नहीं  रहोगे ।     बारूदी   शब्दों   की  भाषा, किसनेआखिर क्यूँ बोली है । अंबर   ने   बरसाये   पत्थर, धरती  ने  उगली  गोली  है ।    प्यार के  गंगाजल में   कैसे, नफरत का  तेज़ाब घुला है । गौतम, गाँधी का  ये आंगन, सुबह लहू से धुला मिला है ।   किस  षड्यंत्री  ने  फेंकी  है,  षड्यंत्रों   की   ये  चिंगारी । गलियों, सड़कों, चौराहों  पे, मौत   नाचती  है   हत्यारी ।   यहीं जन्म लेकर के आखिर, कहो अकारण क्यूँ मर जाएं । क्यूँ अपना घर,गली,ये बस्ती, छोड़ वतन हम कहाँपे जायें ।   कहाँपे जायें ?  कहाँपे जायें ? कहाँपे जायें ?  कहाँपे जायें ?                 - इन्द्रदेव भारती

हम आये तुम आये चले जायेंगे इक रोज

    हम आये तुम आये चले जायेंगे इक रोज समय के शिलापट्ट पर कालजयी कुछ होता नहीं । एक दो रोज पढ़े जाओगे एक दो रोज सब गुनगुनायेंगे। दोहरायेंगे कुछ दिन वेद ऋचा सा फिर सब तुम्हें भूल जायेंगे। दो चार दिन आँसू बहाते हैं सब कोई हम पर जनम भर रोता नहीं ये खजुराहो के मंदिर ये अजंता एलोरा की गुफायें। कुछ प्रतिबिंब अधूरी तपस्याओं के कुछ में चित्रित हैं कुंठित वासनाये। देह पर ही लिखे गए हैं नेह के इतिहास सारे जग में मन जैसा कुछ भी होता नहीं । क्यूँ नाचती है मीरा दीवानी सूफी किसके लिये गीत गाते। प्रीत की चादर बुनते किसके लिए कबीरा सूर किसको रहे अंत तक बुलाते। वाचन मात्र मानस का होता यहाँ राम चरित में कोई भी खोता नहीं । समय के शिलापट्ट पर कालजयी कुछ होता नहीं ।  

स्मृृतियों के कैनवास पर : स्व० हरिपाल त्यागी

      बाबा नागार्जुन की पंक्तियाँ, रह-रह कर स्मरण आ रही है    सादौ कगद हो भले, सादी हो दीवाल। रेखन सौ जादू मरे कलाकार हरिपाल।। इत उत दीखै गगंजल, नहीं जहां अकाल। घरा धन्य बिजनौर की, जहां प्रगटे हरिपाल।।   और हरिपाल अंकल का, मुस्कुराता चेहरा स्मृतियों के कैनवास पर, अनायास साकार हो रहा है। बिजनौर की धरती, साहित्य कला, राजनीति, पत्रकारिता आदि विभिन्न सन्दर्भ में, उर्वरा रही है। स्व० हरिपाल त्यागी का मुझ पर असीम स्नेह और आर्शीवाद रहा। अपने बचपन में ही, घर पर आने वाली, पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों के माध्यम से बाल सुलभ जिज्ञासा के चलते शब्द ओर चित्रों का आकर्षण अपनी ओर खींचने लगा था। बचपन, अपने ननिहाल ग्राम पैंजनियाँ जनपद बिजनौर, उ0प्र0 में नाना श्री स्व0 शिवचरण सिंह के सरंक्षण में बीता। उनका स्थान, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी इतिहास में, अपना एक अलग महत्व रखता हैप्रख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी (कानपुर) की उन पर महती अनुकम्पा थी, और उन्हीं के माध्यम व निर्देश पर नाना श्री के गांव पैजनियाँ में काकोरी काण्ड के ठाकुर रोशन सिंह, अशफाक उल्ला खाँ, अवनीकांत मुकंजी (मिदनापुर), राम