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परिंदों की आवाज़

अमन कुमार  परिंदों के कूकने, कूलने या चहचहाने की आवाज़ मुझे सोचने पर कर देती है मजबूर उनके फड़फड़ाने,  दिवार से टकराने की आवाज़ दिवारें,  दो वस्तुओं के बीच की नहीं बुलन्द इमारतों की खंडहर दिवारें शान्ति मिलती है इन भूतहा दिवारों में जैसे  कोइ आत्मा, अस्तित्व तलाशती है दिवारों में आह! हवा का तेज़ और ठंडा झौंका भारी पत्थरों से टकराता हुआ धूल से जैसे कोई लिखता इबारत   अपढ और रहस्यमयी इबारत पढ लेती है बस खंडहर इमारत घटनाओं - दुर्घटनाओं की कहानी पाप और पुण्य की अंतर कहानी इन दिवारों को लाॅघती हुई फैल जाती है दावानल की भाँति काल जिसे रोक नहीं पाता  और इन कहानियों का, छोटी-बड़ी कहानियों का खंडहर हुई दिवारों का  विशाल इतिहास बन जाता।

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

कृष्ण बिहारी नूर   ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं और क्या जुर्म है पता ही नहीं इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं सच घटे या बढ़े तो सच न रहे झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं जड़ दो चांदी में चाहे सोने में आईना झूठ बोलता ही नहीं  

किसानों की ईद

काज़ी नज़रुल इस्लाम अनुवाद - सुलोचना   बिलाल ! बिलाल ! हिलाल निकला है पश्चिम के आसमान में, छुपे हुए हो लज्जा से किस मरुस्थल के कब्रिस्तान में। देखो ईदगाह जा रहे हैं किसान, जैसे हों प्रेत-कंकाल कसाईखाने जाते देखा है दुर्बल गायों का दल ? रोजा इफ्तार किया है किसानों ने आँसुओं के शर्बत से, हाय, बिलाल ! तुम्हारे कंठ में शायद अटक जा रही है अजान। थाली, लोटा, कटोरी रखकर बंधक देखो जा रहे हैं ईदगाह में, सीने में चुभा तीर, ऋण से बँधा सिर, लुटाने को खुदा की राह में। जीवन में जिन्हें हर रोज रोजा भूख से नहीं आती है नींद मुर्मुष उन किसानों के घर आज आई है क्या ईद ? मर गया जिसका बच्चा नहीं पाकर दूध का महज एक बूँद भी क्या निकली है बन ईद का चाँद उस बच्चे के पसली की हड्डी ? काश आसमान में छाए काले कफन का आवरण टूट जाए एक टुकड़ा चाँद खिला हुआ है, मृत शिशु के अधर-पुट में। किसानों की ईद ! जाते हैं वह ईदगाह पढ़ने बच्चे का नमाज-ए-जनाजा, सुनते हैं जितनी तकबीर, सीने में उनके उतना ही मचता है हाहाकार। मर गया बेटा, मर गई बेटी, आती है मौत की बाढ़ यजीद की सेना कर रही है गश्त मक्का मस्जिद के आसपास। कहाँ हैं इमाम? कौन सा खु

दूसरा बनवास

क़ैफ़ी आज़मी   राम बनवास से जब लौट के घर में आए याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए रक़्से दीवानगी आंगन में जो देखा होगा छह दिसंबर को श्रीराम ने सोचा होगा इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आए जगमगाते थे जहां राम के क़दमों के निशां प्‍यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां मोड़ नफरत के उसी राह गुज़र से आए धर्म क्‍या उनका है क्‍या ज़ात है यह जानता कौन घर न जलता तो उन्‍हें रात में पहचानता कौन घर जलाने को मेरा लोग जो घर में आए शाकाहारी है मेरे दोस्‍त तुम्‍हारा ख़ंजर तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्‍थर है मेरे सर की ख़ता जख़्म जो सर में आए पांव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे कि नज़र आए वहां खून के गहरे धब्‍बे पांव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे राजधानी की फ़िजां आई नहीं रास मुझे छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे

आराम से भाई जिंदगी

भवानीप्रसाद मिश्र   आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से तेजी तुम्हारे प्यार की बर्दाशत नहीं होती अब इतना कसकर किया आलिंगन जरा ज्यादा है जर्जर इस शरीर को आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से तुम्हारे साथ-साथ दौड़ता नहीं फिर सकता अब मैं ऊँची-नीची घाटियों पहाड़ियों तो क्या महल-अटारियों पर भी न रात-भर नौका विहार न खुलकर बात-भर हँसना बतिया सकता हूँ हौले-हल्के बिल्कुल ही पास बैठकर और तुम चाहो तो बहला सकती हो मुझे जब तक अँधेरा है तब तक सब्ज बाग दिखलाकर जो हो जाएँगे राख छूकर सवेरे की किरन सुबह हुए जाना है मुझे आराम से भाई जिंदगी जरा आराम से !

प्रेम शिशु

अर्चना राज   अँधियारे एकांत मे कभी बाहें पसारे अपलक निहारा है चाँद को  बूँद-बूँद बरसता है प्रेम रगों मे जज़्ब होने के लिए  लहू स्पंदित होता है -धमनियाँ तड़कने लगती हैं  तभी कोई सितारा टूटता है एक झटके से   पूरे वेग से दौड़ता है पृथ्वी की तरफ़  समस्त वायुमंडल को धता बताते हुए, बिजलियाँ ख़ुद में महसूस होती हैं  तुरंत बाद एक ठहराव भी हल्के चक्कर के साथ,  स्याहियाँ अचानक ही रंग बदलने लगती हैं  लकीरों मे जुगनू उग आते हैं और नदी नग़मे में बदल जाती है  ठीक इसी पल जन्म होता है बेहद ख़ामोशी से एक प्रेम शिशु का ख़ुद में, तमाम उदासियाँ -तनहाइयाँ कोख की नमी हो जाती हैं  महसूस होता है स्वयं का स्वयं के लिए प्रेम हो जाना, अब और किसी की दरकार नहीं, बहुत सुखद है प्रेम होकर आईना देखना  अकेले ही ...... !!!   क़तरा-क़तरा दर्द से

कालिंदी 

ज्योत्सना भारती कालिंदी सुंदर और प्रतिभा सम्पन्न तो थी ही, एक अच्छी वकील भी थी। उसके विवाह को अभी कुछ ही समय हुआ था कि उसकी चाची सास लखनऊ से उसके पास कुछ दिन रहने के लिए आ गईं। चाची जी बहुत ही नेक और समझदार महिला थीं। उन्होंने आते ही अपनी पसंद और नापसंद के बारे में कालिंदी को सब कुछ बता दिया था। साथ ही ये भी बता दिया कि वो कितने दिन तक रुकने वाली हैं। चाची जी का प्रोग्राम सुनकर उसे कुछ परेशानी तो महसूस हुई मगर उसने बड़ी ही चतुरता से स्वयं को संभाल लिया। असल मे उसकी परेशानी का मुख्य कारण चाची जी नही थीं बल्कि ये था कि उसको न तो घर का कोई कार्य आता था और न ही सीखने में रुचि थी। ऐसे में वो चाची जी की सेवा और नित नई फरमाइशें कैसे पूरी करेगी। चाची जी को उसके पास आए तीन दिन हो गए थे परंतु न तो उसके पास उनके साथ बैठने का समय था और न ही बात करने की फुर्सत। घर में फुल टाइम नौकरानी थी जो सारा घर संभालती थी। कालिंदी को तो आॅफिस और फोन से ही समय नही मिलता था। अतः जो चीज नौकरानी नहीं बना पाती थी वो बाहर से आॅर्डर कर दी जाती थी। जैसा खाना बन जाता था वैसा ही सबको खाना पड़ता था। चाची जी को उसका बनाया हु

क्योंकि सपना है अभी भी

धर्मवीर भारती   ...क्योंकि सपना है अभी भी इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी ...क्योंकि सपना है अभी भी! तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था (एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?) किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना है धधकती आग में तपना अभी भी ....क्योंकि सपना है अभी भी! तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर वह तुम्ही हो जो टूटती तलवार की झंकार में या भीड़ की जयकार में या मौत के सुनसान हाहाकार में फिर गूंज जाती हो और मुझको ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको फिर तड़प कर याद आता है कि सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं तुम्हारा अपना अभी भी इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी ... क्योंकि सपना है अभी भी!

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है

दुष्यंत कुमार इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है| एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है| एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है| एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है| निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है| दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है|

एक यात्रा ऐसी भी

डा. वीरेंद्र पुष्पक                                       मैं पत्रकार हूं, एक स्टोरी की कबरेज के लिए देहरादून आया हुआ था। पुराना मित्र मिल गया। बहुत दिनों के बाद मिला था। घूमने के लिए ऋषिकेश आ गए। गंगा के किनारे बैठे थे। आतंकवाद पर बात होने लगी। उसने एक कहानी सुनाई अपनी कश्मीर, विशेष रूप से अनन्तनाग की यात्रा के सम्बन्ध में। मैं अपने मित्र का नाम जानबूझ कर नहीं लिख रहा हूँ।           उसने कहना शुरू किया कि बात शायद 2014 की है। हमारे यहां से एक बस 10 दिन के टूर पर बाबा बर्फानी अमरनाथ यात्रा पर जा रही है। मेरी पत्नी का निधन हुआ था। मैं उन दिनों डिस्टर्ब सा था। मेरी बेटी ने स्थान परिवर्तन से मेरे मानसिक दबाब को कम करने के लिए अमरनाथ यात्रा का कार्यक्रम बना लिया। मेडिकल, रजिस्ट्रेशन आदि की कबायत पूरी की, जाने की तैयारी करने लगे। कुल मिला कर निश्चित समय पर हम अमरनाथ यात्रा के लिए निकल पड़े।           कश्मीर की सुंदर वादियों का नजारा देखने का मौका मिला। वास्तव में मन कुछ हल्का हुआ। हमारा टूर पहलगांव से चंदनबाड़ी, पिस्सू टॉप होता हुआ शेषनाग तक पहुंच गया। रात्रि में यहां विश्राम करना था। यहां से

कविताएँ

मुहम्‍मद अली जौहर   काम करना है यही ख़ाक जीना है अगर मौत से डरना है यही हवसे-ज़ीस्‍त हो इस दर्जा तो मरना है यही क़ुलज़ुमे-इश्‍क़ में हैं नफ़ा-ओ-सलामत दोनों इसमें छूबे भी तो क्‍या पार उतरना है यही और किस वज़आ की जोया हैं उरुसाने-बिहिश्‍त है कफ़न सुर्ख़, शहीदों का संवरना है यही हद है पस्‍ती की कि पस्‍ती को बलन्‍दी जाना अब भी एहसास हो इसका तो उभरना है यही हो न मायूस कि है फ़तह की तक़रीबे-शिकस्‍त क़ल्‍बे-मोमिन का मिरी जान निखरना है यही नक़्दे-जां नज़्र करो सोचते क्‍यों हो 'जौहर' काम करने का यही है, तुम्‍हें करना है यही चश्‍मे-ख़ूंनाबा बार सीना हमारा फ़िगार देखिये कब तक रहे चश्‍म यह ख़ूंनाबा बार देखिये कब तक रहे हक़ की क़मक एक दिन आ ही रहेगी वले गर्द में पिन्‍हा सवार देखिये कब तक रहे यूं तो है हर सू अयां आमदे-फ़स्‍ले-ख़िज़ा जौर-ओ-जफ़ा की बहार देखिये कब तक रहे रौनके-देहली पे रश्‍क था कभी जन्‍नत को भी यूं ही यह उजड़ा दयार देखिये कब तक रहे ज़ोर का पहले ही दिन नश्‍शा हरन हो गया ज़ोम का बाक़ी ख़ुमार देखिये कब तक रहे आशियां बरबाद हैं यह अनदाज ज़माने के और ही ढ़ग हैं सताने के घर छुटा यूं क

माँ, कह एक कहानी

मैथिलीशरण गुप्त   'माँ, कह एक कहानी!' 'बेटा, समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?' 'कहती है मुझसे यह बेटी तू मेरी नानी की बेटी! कह माँ, कह, लेटी ही लेटी राजा था या रानी? माँ, कह एक कहानी!' 'तू है हटी मानधन मेरे सुन, उपवन में बड़े सबेरे, तात भ्रमण करते थे तेरे, यहाँ, सुरभि मनमानी? हाँ, माँ, यही कहानी!' 'वर्ण-वर्ण के फूल खिले थे झलमल कर हिम-बिंदु झिले थे हलके झोंकें हिले-हिले थे लहराता था पानी।' 'लहराता था पानी? हाँ, हाँ, यही कहानी।' 'गाते थे खग कल-कल स्वर से सहसा एक हंस ऊपर से गिरा, बिद्ध होकर खर-शर से हुई पक्ष की हानी।' 'हुई पक्ष की हानी? करुण-भरी कहानी!' 'चौक उन्होंने उसे उठाया नया जन्म-सा उसने पाया। इतने में आखेटक आया लक्ष्य-सिद्धि का मानी? कोमल-कठिन कहानी।' माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किंतु थे रक्षी! तब उसने, जो था खगभक्षी - 'हट करने की ठानी? अब बढ़ चली कहानी।' 'हुआ विवाद सदय-निर्दय में उभय आग्रही थे स्वविषय में गयी बात तब न्यायालय में सुनी सभी ने जानी।' 'सुनी सभी ने जानी? व्यापक हुई कहानी।&#

नया शिवाला

इक़बाल   सच कह दूं ऐ बिरहमन ! गर तू बुरा न माने तेरे सनमकदों[11] के बुत हो गए पुराने अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा जंगो-जदल[12] सिखाया वाइज़ [13] को भी खुदा ने तंग आके मैंने आखिर दैरो-हरम को [14] छोड़ा वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने [15] पत्‍थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है ख़ाके-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है आ ग़ैरियत[16] के पर्दे इक बार फिर उठा दें बिछड़ों को फिर मिला दें, नक़्शे-दुई [17] मिटा दें सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्‍ती आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें दुनिया से तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ दामाने-आस्‍मां[18] से इसका कलश मिला दें हर सुबह उठके गायें मंतर[19] वो मीठे-मीठे। सारे पु‍जारियों को मय[20] पीत की पिला दें।। शक्ति भी शान्ति भी भक्ति के गीत में है। धरती के बासियों की मुक्ति परीत [21] में है।। [11] बुतख़ाना (मन्दिर) [12] युद्ध [13] इस्‍लामी उपदेशक [14] मन्दिर तथा काबे की चारदीवारी को [15] क‍हानियां [16] वैर-भाव [17] दुई के चिह्न [18] आकाश का दामन (आकाश) [19] मन्‍त्र [20] मदिरा [21] प्रीत   साभार https://www.hindisamay.com/content/612/1/%E0%A

क्या करते

माहेश्वर तिवारी   आग लपेटे जंगल-जंगल हिरन कुलाँच रहे हैं क्या करते बेबस बर्बर गाथाएँ बाँच रहे हैं सहमे-सहमे वृक्ष-लताएँ पागल जब से हुईं हवाएँ अपना होना बड़े गौर से खुद ही जाँच रहे हैं डरे-डरे हैं राजा-रानी पन्ने-पन्ने छपी कहानी स्नानघरों से शयनकक्ष तक बिखरे काँच रहे हैं

शारदे ,मेरे शब्दों को प्रवाह दो

  डॉ साधना गुप्ता   शारदे ,मेरे शब्दों को प्रवाह दो सोयी मानवता को जगाने को, पश्चिमी विपरीत बयार से  संस्कृति को बचाने को मेरे शब्दों को धार दो, शक्ति दो,करूणा की पुकार दो- मचा सके जो आतताइयों में हाहाकार नारी की अस्मिता रक्षार्थ अग्रजों के सम्मानार्थ अनुजों के स्नेहार्थ, मेरे शब्दों को ज्ञान दो- कर सके जो सत-असत का भान अपने पराए की पहचान जीवन लक्ष्य प्रति सावधान, मेरे शब्दों को दो सँवार- दे सके जो बच्चों को संस्कार युवाओं को परिवार बुजुर्गों को प्यार शारदे, मेरे शब्दों को प्रवाह दो।                    मंगलपुरा, टेक, झालवाड़ 326001 राजस्थान

ढलती उम्र का प्रेम

अर्चना राज   ढलती उम्र का प्रेम कभी बहुत गाढ़ा  कभी सेब के रस जैसा, कभी बुरांश  कभी वोगेनविलिया के फूलों जैसा, कभी जड़-तने तो कभी पोखर की मछलियों जैसा, ढलती उम्र में भी होता है प्रेम !!   क़तरा-क़तरा दर्द से साभार 

बोल ! अरी, ओ धरती बोल !

असरारुल हक़ मजाज़   बोल ! अरी, ओ धरती बोल ! राज सिंहासन डाँवाडोल! बादल, बिजली, रैन अंधियारी, दुख की मारी परजा सारी बूढ़े, बच्चे सब दुखिया हैं, दुखिया नर हैं, दुखिया नारी बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं सब व्यापारी बोल ! अरी, ओ धरती बोल ! ! राज सिंहासन डाँवाडोल! कलजुग में जग के रखवाले चांदी वाले सोने वाले देसी हों या परदेसी हों, नीले पीले गोरे काले मक्खी भुनगे भिन-भिन करते ढूंढे हैं मकड़ी के जाले बोल ! अरी, ओ धरती बोल ! राज सिंहासन डाँवाडोल! क्या अफरंगी, क्या तातारी, आँख बची और बरछी मारी कब तक जनता की बेचैनी, कब तक जनता की बेज़ारी कब तक सरमाए के धंधे, कब तक यह सरमायादारी बोल ! अरी, ओ धरती बोल ! राज सिंहासन डाँवाडोल! नामी और मशहूर नहीं हम, लेकिन क्या मज़दूर नहीं हम धोखा और मज़दूरों को दें, ऐसे तो मजबूर नहीं हम मंज़िल अपने पाँव के नीचे, मंज़िल से अब दूर नहीं हम बोल ! अरी, ओ धरती बोल ! राज सिंहासन डाँवाडोल! बोल कि तेरी खिदमत की है, बोल कि तेरा काम किया है बोल कि तेरे फल खाये हैं, बोल कि तेरा दूध पिया है बोल कि हमने हश्र उठाया, बोल कि हमसे हश्र उठा है बोल कि हमसे जागी दुनिया बोल कि हमस

साल मुबारक

अमृता प्रीतम   जैसे सोच की कंघी में से एक दंदा टूट गया जैसे समझ के कुर्ते का एक चीथड़ा उड़ गया जैसे आस्था की आँखों में एक तिनका चुभ गया नींद ने जैसे अपने हाथों में सपने का जलता कोयला पकड़ लिया नया साल कुछ ऐसे आया... जैसे दिल के फिकरे से एक अक्षर बुझ गया जैसे विश्वास के कागज पर सियाही गिर गयी जैसे समय के होंठों से एक गहरी साँस निकल गयी और आदमजात की आँखों में जैसे एक आँसू भर आया नया साल कुछ ऐसे आया... जैसे इश्क की जबान पर एक छाला उठ आया सभ्यता की बाँहों में से एक चूड़ी टूट गयी इतिहास की अँगूठी में से एक नीलम गिर गया और जैसे धरती ने आसमान का एक बड़ा उदास-सा खत पढ़ा नया साल कुछ ऐसे आया...

ओ देस से आने वाले बता!

अख्तर शीरानी   ओ देस से आने वाले बता! क्‍या अब भी वहां के बाग़ों में मस्‍ताना हवाएँ आती हैं? क्‍या अब भी वहां के परबत पर घनघोर घटाएँ छाती हैं? क्‍या अब भी वहां की बरखाएँ वैसे ही दिलों को भाती हैं?   ओ देस से आने वाले बता! क्‍या अब भी वतन में वैसे ही सरमस्‍त नज़ारे होते हैं? क्‍या अब भी सुहानी रातों को वो चाँद-सितारे होते हैं? हम खेल जो खेला करते थे अब भी वो सारे होते हैं? ओ देस से आने वाले बता! शादाबो-शिगुफ़्ता1 फूलों से मा' मूर2 हैं गुलज़ार3 अब कि नहीं? बाज़ार में मालन लाती है फूलों के गुँधे हार अब कि नहीं? और शौक से टूटे पड़ते है नौउम्र खरीदार अब कि नहीं?   ओ देस से आने वाले बता! क्‍या शाम पड़े गलियों में वही दिलचस्‍प अंधेरा होता हैं? और सड़कों की धुँधली शम्‍मओं पर सायों का बसेरा होता हैं? बाग़ों की घनेरी शाखों पर जिस तरह सवेरा होता हैं?   ओ देस से आने वाले बता! क्‍या अब भी वहां वैसी ही जवां और मदभरी रातें होती हैं? क्‍या रात भर अब भी गीतों की और प्‍यार की बाते होती हैं? वो हुस्‍न के जादू चलते हैं वो इश्‍क़ की घातें होती हैं? 1 प्रफुल्‍ल स्‍फुटित 2 परिपूर्ण 3 बाग   ओ देस से आने व

ख़ाके-हिन्द

बृज नारायण चकबस्त   अगली-सी ताज़गी है फूलों में और फलों में करते हैं रक़्स अब तक ताऊस जंगलों में अब तक वही कड़क है बिजली की बादलों में पस्ती-सी आ गई है पर दिल के हौसलों में गुल शमअ-ए-अंजुमन है,गो अंजुमन वही है हुब्बे-वतन नहीं है, ख़ाके-वतन वही है बरसों से हो रहा है बरहम समाँ हमारा दुनिया से मिट रहा है नामो-निशाँ हमारा कुछ कम नहीं अज़ल से ख़्वाबे-गराँ हमारा इक लाशे -बे-क़फ़न है हिन्दोस्ताँ हमारा इल्मो-कमाल-ओ-ईमाँ बरबाद हो रहे हैं ऐशो-तरब के बन्दे ग़फ़लत, में सो रहे हैं ऐ सूरे-हुब्बे-क़ौमी ! इस ख़्वाब को जगा दे भूला हुआ फ़साना कानों को फिर सुना दे मुर्दा तबीयतों की अफ़सुर्दगी मिटा दे उठते हुए शरारे इस राख से दिखा दे हुब्बे-वतन समाए आँखों में नूर होकर सर में ख़ुमार हो कर, दिल में सुरूर हो कर है जू-ए-शीर हमको नूरे-सहर वतन का आँखों को रौशनी है जल्वा इस अंजुमन का है रश्क़े- महर ज़र्र: इस मंज़िले -कुहन का तुलता है बर्गे-गुल से काँटा भी इस चमन का ग़र्दो-ग़ुबार याँ का ख़िलअत है अपने तन को मरकर भी चाहते हैं ख़ाके-वतन क़फ़न को