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Tuesday, December 3, 2019

कालिंदी 


ज्योत्सना भारती



कालिंदी सुंदर और प्रतिभा सम्पन्न तो थी ही, एक अच्छी वकील भी थी। उसके विवाह को अभी कुछ ही समय हुआ था कि उसकी चाची सास लखनऊ से उसके पास कुछ दिन रहने के लिए आ गईं। चाची जी बहुत ही नेक और समझदार महिला थीं। उन्होंने आते ही अपनी पसंद और नापसंद के बारे में कालिंदी को सब कुछ बता दिया था। साथ ही ये भी बता दिया कि वो कितने दिन तक रुकने वाली हैं। चाची जी का प्रोग्राम सुनकर उसे कुछ परेशानी तो महसूस हुई मगर उसने बड़ी ही चतुरता से स्वयं को संभाल लिया। असल मे उसकी परेशानी का मुख्य कारण चाची जी नही थीं बल्कि ये था कि उसको न तो घर का कोई कार्य आता था और न ही सीखने में रुचि थी। ऐसे में वो चाची जी की सेवा और नित नई फरमाइशें कैसे पूरी करेगी।
चाची जी को उसके पास आए तीन दिन हो गए थे परंतु न तो उसके पास उनके साथ बैठने का समय था और न ही बात करने की फुर्सत। घर में फुल टाइम नौकरानी थी जो सारा घर संभालती थी। कालिंदी को तो आॅफिस और फोन से ही समय नही मिलता था। अतः जो चीज नौकरानी नहीं बना पाती थी वो बाहर से आॅर्डर कर दी जाती थी। जैसा खाना बन जाता था वैसा ही सबको खाना पड़ता था। चाची जी को उसका बनाया हुआ खाना बिल्कुल अच्छा नही लगता था इसलिए पिछले तीन दिनों से खाना और नाश्ता दोनों ही बाहर से आ रहे थे।
आज सुबह  कालिंदी आॅफिस के लिए तैयारी कर ही रही थी कि चाची जी ने उस को आवाज लगाई -'कालिंदी बेटा, इधर तो आओ, कुछ देर हमारे पास भी बैठो। फिर तो हम चले ही जाएंगे।'
कालिंदी सकपका कर उनके पास आकर बैठ गई। उसे आया देख कर चाची जी बड़े प्यार से समझाते हुए बोली - 'बेटा मैं पिछले तीन दिनों से देख रही हूँ कि तुम आॅफिस से आने के बाद भी फोन से ही चिपकी रहती हो, कभी घर का कोई काम  नहीं देखतीं, नौकरानी के भरोसे काम थोड़े ही चलता है। स्वयं भी देखना पड़ता है तभी घर ठीक से चल पाता है। तीन दिनों से देख रही हूँ कि खाना भी बाहर से ही आ रहा है। ऐसा क्यों बेटा?'
चाची जी के इतना कहते ही कालिंदी भड़क उठी। कुछ जोर से चीखते हुए से स्वर में  बोलींं-'चाची जी, आपने हम बहुओं को समझ क्या रखा है, क्या हम बस एक चलती फिरती मशीन हैं जो घर का सारा काम चुपचाप करते रहें और सबके ताने उलाहने भी सुनते रहें और एक चूं तक भी न करें। आपके बेटे की तरह मैं भी तो दिन भर मेहनत करती हूँ, मेरा भी दिमाग़ खर्च होता है, तो क्या मुझे थकान नहीं होती, क्या मेरा मन नहीं करता कि मैं भी घर आकर आराम करूँ। ऐसे में अगर मैंने बाहर से खाना आॅर्डर कर दिया तो क्या कुछ ग़लत किया। आपको तो समय से आपकी पसंद का खाना मिल ही रहा है न। और फिर बाहर काम करने वाली अधिकांश महिलाएं ऐसा ही करती हैं। और हाँ, ये घर के काम मुझसे नहीं होते, न तो मैंने कभी ये काम किए हैं और न ही मुझे पसंद हैं।'
चाची जी अवाक उसका मुँह देखती रह गईं। वो सोच रहीं थीं कि क्या इसीलिए लोग पढ़ी-लिखी लड़की को बहू बना कर लाते हैं कि वो ससुराल आकर घर के काम से जी चुराए और बड़ों को जवाब देकर उनकी बेइज्जती करे। क्या पढ़-लिख कर अपने सारे संस्कार भुला दिए जाने चाहिए। यदि ऐसा है तो वो अनपढ़ ही ठीक हैं। चाची जी को सारी उम्र यही दुख सालता रहा था कि वो अनपढ़ हैं परंतु आज उनको स्वयं पर गर्व महसूस हो रहा था क्योंकि उन्होंने अपने घर, परिवार और बच्चों को एक सुसंकृत वातावरण में पाला और उन्हें एक अच्छा नागरिक बनने में उचित सहायता प्रदान की। यही कारण है कि आज उनके तीनों बेटे और बहुएँ मिलजुल कर एकसाथ रहते हैं, एक दूसरे के काम आते हैं और अपने बच्चों को भी भरपूर समय देकर उनको भली भाँति संस्कारित भी करते हैं। जिससे वो बड़े होकर एक अच्छे नागरिक बन कर शांति पूर्ण प्रेम और सद्भाव के साथ जीवन-यापन कर सकें।


Monday, December 2, 2019

एक यात्रा ऐसी भी


डा. वीरेंद्र पुष्पक             

                

        मैं पत्रकार हूं, एक स्टोरी की कबरेज के लिए देहरादून आया हुआ था। पुराना मित्र मिल गया। बहुत दिनों के बाद मिला था। घूमने के लिए ऋषिकेश आ गए। गंगा के किनारे बैठे थे। आतंकवाद पर बात होने लगी। उसने एक कहानी सुनाई अपनी कश्मीर, विशेष रूप से अनन्तनाग की यात्रा के सम्बन्ध में। मैं अपने मित्र का नाम जानबूझ कर नहीं लिख रहा हूँ। 

 

       उसने कहना शुरू किया कि बात शायद 2014 की है। हमारे यहां से एक बस 10 दिन के टूर पर बाबा बर्फानी अमरनाथ यात्रा पर जा रही है। मेरी पत्नी का निधन हुआ था। मैं उन दिनों डिस्टर्ब सा था। मेरी बेटी ने स्थान परिवर्तन से मेरे मानसिक दबाब को कम करने के लिए अमरनाथ यात्रा का कार्यक्रम बना लिया। मेडिकल, रजिस्ट्रेशन आदि की कबायत पूरी की, जाने की तैयारी करने लगे। कुल मिला कर निश्चित समय पर हम अमरनाथ यात्रा के लिए निकल पड़े। 

 

       कश्मीर की सुंदर वादियों का नजारा देखने का मौका मिला। वास्तव में मन कुछ हल्का हुआ। हमारा टूर पहलगांव से चंदनबाड़ी, पिस्सू टॉप होता हुआ शेषनाग तक पहुंच गया। रात्रि में यहां विश्राम करना था। यहां सेना ने बर्फ को समतल करके बनाये गए मैदान में टैंट लगा कर यात्रियों के रात्रि विश्राम की व्यवस्था की थी। पता नहीं क्या हुआ कि मेरी घबराहट बढ़ने लगी। सोने का प्रयास किया तो सांस लेने में परेशानी होने लगी । मुझे चिकित्सा शिविर में ले जाया गया। लेकिन मुझे वहां भी कोई विशेष राहत नहीं मिली। 

 

         शायद मुझे बाबा बर्फानी के दर्शन होने ही नहीं थे। शायद हम यात्रा की श्रद्धा लेकर नहीं आये थे। मेरी हालत को देखते हुए, मेरी बेटी ने यहीं से वापस चलने का फैसला कर लिया। सुबह का इंतजार करना बड़ा दूभर हो रहा था। सुबह चार बजे ही लौटने के लिए मेरी बेटी ने मेरी हालत बता कर एक पिठ्ठू वाले से रुपये तय किये, उसने बहुत ही मुनासिब यानी 700 रुपये प्रति के हिसाब से चंदनवाड़ी तक पहुचने के बताए। रास्ते में पालकी से उतरने के लिए भी उसमें शामिल थे। 

 

            ये पिठ्ठू और पालकी तो आप समझ गए होंगे। पिठ्ठू का मतलब खच्चर वाला जो खच्चर पर आपको बैठा कर पहाड़ पर चढ़ाते उतारते हैं। पालकी का मतलब एक कुर्सी के दोनों ओर बांस बांधकर डोली बना कर चार लोग कंधे पर लेकर चलते हैं। पिठ्ठू से उतरते समय कलेजा मुँह को आजाता है। जबकि पालकी पर बैठकर तो हर कदम पर मौत ही नजर आती है। 

 

       उस मौत के मंजर को देखते हुए हमें ग्यारह बजे दोपहर में चंदनबाड़ी मिलेट्री बेसकैम्प पहुंच गए। हमें लगा कि बाकई उसने हमने उसे किराया कम लिया था। इस लिए हमने उसे तय किराये से 100 रुपये ज्यादा दिए तो वो बहुत ही ज्यादा अहसानमंद हुआ। वो हमारा दूर तक शुक्रिया अदा करता रहा। सच में आम कश्मीरी आज भी बहुत सीधा सच्चा होता है।  

 

         चांदनबाड़ी से हम कार से पहलगांव आ गए। पहलगांव आकर मैंने खुद को स्वस्थ महसूस किया। अब मुझे लग रहा था कि मेरी बेटी मेरी वजह से बाबा बर्फ़ानी के दर्शन नहीं कर सकी। मन में बोझ हो गया। पहलगांव के एक पार्क में दो बजे तक हम चिनार नदी में पैर डाले बैठे रहे, रास्ते की सारी थकान, लौट कर आने का मन का बोझ, दूर हुआ। बेटी ने बेटों की कमी नहीं होने दी। मेरा मन बेटी के लिए श्रद्धा से भर गया। 

 

       चिनार नदी में ऐसा लगा जैसे हम गंगानदी में हरिद्वार में पैर डालकर बैठने हों। या यूं कहें कि ऐसे जैसे मां की गोद में बैठने पर महसूस करते हैं। लगभग दो घंटे तक हम पानी मे डुबकी लगाते रहे। कपड़े हमारे पास वही थी जो हम पहन कर चढ़ाई कर रहे थे तीन दिन पहले। क्योंकि बाकी कपड़े और समान तो बस में था जो बालटाल जा चुकी थी। अब बस को चार दिन बाद श्रीनगर आना था। इसका सीधा सा मतलब था कि हमें किसी भी तरह ये चार दिन बिताने हैं। हमने निर्णय किया कि श्रीनगर बेस कैंप में लगे यात्रा सेवा शिविर में ही चलते है। वहीं शिविर में ही रहेंगे और चार दिन बिता लेंगे।

 

            वास्तविक किस्सा यहीं से शुरू होता है। हमने प्राइवेट बस पकड़ी जो पहलगांव से अनन्तनाग जाती थी। बस में बैठने पर पता चला कि अनन्तनाग को कश्मीरी आज भी इस्लामाबाद ही कहते हैं। कश्मीर के लोग भारत के लोगो से कितनी नफरत करते हैं ये पता भी बस की यात्रा के दौरान ही हुआ। हमारा हुलिया कुछ कुछ साधारण कश्मीरी जैसा था। इस लिए कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन उनकी बातें सुनकर लगा कि अगर कोई अकेला दुकेले यहां फंस गया तो ये बिना बात ही उसकी रेल बना देंगे। तीन घंटे बस का सफर यादगार सफर रहा। कभी मौका मिला तो उस यात्रा का वर्णन आपको सुनाऊंगा। अभी तो मैं आपको अपने श्रीनगर से कादर भाई के यहां आने जाने का किस्सा सुनने जा रहा हूं। इसलिए मैंने बाकी सारी बातों को संछिप्त कर दिया है। कादर भाई के गांव का किस्सा सुनना है तो अनन्तनाग के बारे में बताना जरूरी समझता हूं। क्योंकि उनका गांव जिला अनन्तनाग में ही है।

 

         बस में चढ़ते ही पता चल गया कि शायद हम बिना पासपोर्ट के पाकिस्तान आगये है। पूरी बस में हिंदुस्तान, मिलेट्री, हिंदुस्तानी, हिन्दू के बारे में ही चर्चा थी। किसी देश के नागरिक इतने जहरीले कैसे हो सकते हैं। बस अनन्तनाग या वहां की भाषा में इस्लामाबाद तक की ही थी। इस लिए बसअड्डे पर उतर गए। यहां से बस, कार आदि श्रीनगर जाती थी। हमने कार के मुकाबले बस को प्राथमिकता देनी ज्यादा सुरक्षित माना। 

 

           बस एक घंटे बाद आनी थी इसलिए बस के इंतजार में यहां हम एक दुकान पर चाय पीने बैठे, दुकान में बैठे लोगो में चर्चा चल रही थी कि हिंदुस्तान ने उन पर जबरदस्ती कब्जा कर रखा है, हिंदुस्तान उनपर बेहद जुल्म कर रहा है। हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियों को तो तोप लगाकर दुनिया के नक्शे से मिटा देना चाहिए। ऐसा लग गया कि ये जिला वाकई आतंकवादियों का गढ़ होगा। या हम बाकई पाकिस्तान में आ गए थे। 

 

      बड़ी इंतजार के बाद आयी बस में भीड़ बहुत ज्यादा थी।खड़े होने तक कि भी जगह नहीं मिल रही थी। बस को छोड़ कर हम टैक्सी में सवार हो गए। हमारे पास बैठा यात्री बता रहा था कि कल रास्ते के कहां कहां पुलिस और मिलेट्री पर हमला किया गया। हम अभी रास्ते में ही थे कि पता चला सड़क पर लंबा जाम लगा है। जाम शायद सात आठ किलोमीटर लंबा लगा था। पता चला कि अभी अभी चार आतंकवादियों ने गस्त कर रही मिलेट्री की टुकड़ी पर हमला कर दिया। इसलिए अब बहुत कड़ी जांच के बाद वाहन निकले जा रहे हैं। 

 

           कार चालक लोकल था। गांव की गलियों से वाकिफ, उसने गाँव के ही रस्तों से निकल कर चैकिंग वाली जगह पर लाकर खड़ा कर दिया, सभी सवारियों की तलाशी हुई, आईडी चैक की गई। रात होते होते हम श्रीनगर आगये। श्रीनगर में बसअड्डे पर मिलेट्री की ओर से अमरनाथ यात्रा सेवा शिविर था। यहां आतंकवादियों के चलते बड़ी कड़ी सुरक्षा थी, शिविर की चारों तरफ के गेट पर कांटो वाली बाढ़ लगी थी। आमतौर पर किसी को भी बाहर जाने की अनुमति नहीं थी। रात का भोजन किया अब हम सोच रहे थे कि इस शिविर में हम कैदियों की तरह किस तरह चार दिन गुजार पाएंगे।  

                                               

          हमसे तो शाम के बाद के वो तीन चार घंटे भी नहीं गुजर रहे थे। जबकि अभी चार दिन गुजरने शेष थे। अचानक याद आया कि पत्नी की बीमारी के समय जब हम पीजीआई चंडीगढ़ में थे, तो हमें ठहरने के लिए रोटरी सराय में एक कम्बाइंड हाल में एक बैड मिला था। हाल में चार बैड थे। हमारे सामने वाले बैड पर कोई कश्मीरी था। जो रात को वहां सोने आता था। कुछ और कश्मीरी भी थे जो रोटरी सराय में ही थे। जिस दिन से हम रोटरी सराय में आये थे हमने महसूस किया कि वो बहुत कम आता था अपने बैड पर। 

 

        हम चर्चा करते थे कि कैसे कश्मीरी या तो आतंकवादी होते हैं या फिर आतंकवादियों के सहयोगी। इधर वो कश्मीरी कभी जरूरत पड़ने पर अपने कपड़े या समान लेने आता था जो एक कम्बाइंड अलमारी में रखा था, उसने मेरे बेटों से कहा कि वे सोने के लिए परेशान न हों उसके बैड का आराम प्रयोग करें। वो अपने साथियों के साथ रह लेगा। इस बीच मेरे बेटों की उससे बातें भी होती, एक सप्ताह बाद जब उसे अस्पताल से छुट्टी मिली उस दिन पहली बार मेरी उससे बात हुई। उसकी भाषा कश्मीरी ही थी मगर वो कुछ कुछ हिंदी समझ तथा कुछ कुछ बोल भी लेता था। 

 

          हमें उसकी बात कुछ कुछ समझ में आती थी लेकिन उसकी हिंदी भी कश्मीरी टोन में ही होती थी। लेकिन एक भाषा है जिसे मन की भाषा कहतें है और उससे हमें वो भलामानस लगा। उसने अपना नाम अब्दल खादर बताया। उसके नाम को समझने में हमें बड़ा समय लगा था। बताया तो अपने गांव का नाम भी था लेकिन वो उसके लाख समझने के बाद भी हमारी समझ में नहीं आया। बस ये समझ में आया कि उसका गांव अनन्तनाग जिले में पड़ता है। जो अमरनाथ यात्रा पर जाने वाले रास्ते से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर है। उसने यह भी बताया था कि उसका एक लड़का मिलेट्री में लेफ्टिनेंट है, दूसरा कश्मीर पुलिस में सबइंस्पेक्टर, लेफ्टिनेंट आजकल हरियाणा में पोस्टेड है। इस तरह जान पहचान हुई। बहरहाल टेलीफोन नंबरों का लेन देन हुआ। कभी आने के आग्रह हुए। जैसे आम तौर पर यात्रा के दौरान यात्रियों में होता है। उसने भी वादा किया कि वो कभी आएगा, मैंने भी। उसका दिया नंबर लैंडलाइन नंबर था।

 

         चंडीगढ़ से आने के बाद हप्ते पन्द्रह दिन में उसका फोन आ ही जाता था। मेरे मोबाइल में उसका नम्बर था। मैंने उसे फोन किया और बताया कि हम श्रीनगर में है आप से मिलना चाहते हैं। उसने हमें अपने गांव का रास्ता बताया।हम ये निश्चित कर के कि सुबह उसके गांव चलेंगे सो गए। उसके  गांव का नाम उसके कश्मीरी उच्चारण के कारण अभी भी हमारी समझ में नहीं आया था। सोचा यहां किसी कश्मीरी सुरक्षाकर्मी से बात करा कर समझ लेंगे। सोकर उठने के बाद हमने शिविर के आयोजकों से बात की उन्हें बताया कि अपने मित्र के गांव जाना चाहते हैं। आयोजकों ने हमें सलाह दी कि अनन्तनाग जिला आतंकवादियों का गढ़ है। जहां आये दिन मुठभेड़ होती रहती हैं। वहां जाना किसी भी दशा में सुरक्षित नहीं है। हमने जैसे तैसे करके दिन गुजरा। लेकिन खाली बैठे बैठे हम थक गए, बोर हो गए। अगला दिन रविवार का दिन था। हम फिर चाय पीने के लिए सुरक्षा में लगे सुरक्षा दल के सीओ से परमिशन लेकर शिविर से बाहर आये। एक रेस्टोरेन्ट में चाय पी थी। रेस्टोरेंट का मालिक युवा था। बातों बातों में पता चला कि वो लुधियाना का रहने वाला था। उसने बताया कि आजादी से काफी पहले उसके दादा ने यहां रेस्टोरेंट शुरू किया था। कश्मीरियों के बारे में चाहे वो कश्मीरी पंडित ही क्यों न हो, उसका अनुभव बड़ा ही खराब था। उसका मानना था कि ये बड़ी बेवफा कौम है। आपने मतलब के यार है। 

 

            खैर चाय पीकर समय बिताने के लिए हम लाल चौक पहुंच गए। यहां हर इतवार को बाजार लगता है। बाजार में अच्छी क्वालिटी का सामान फड़ पर सस्ते में बिक रहा था। बाजार आये थे इसलिए कुछ तो खरीदना ही था इसलिए एक कश्मीरी टोपी और दो तीन बनियान लिए। यहां वहां ठेले पर खाया, पिया। डलझील देखी। ज्यादातर  शिकारे खाली खड़े थे। शायद आतंकवाद की छाया या फिर शायद सीजन खत्म हो गया था। शाम को हम वापस सेवा शिविर में आ गए।

 

            रात में हमने मिलेट्री के कई अधिकारियों से बात की, लेकिन सभी ने हमें वहां न जाने की सलाह दी। इधर कादर भाई से मोबाइल से लगातार बात हो रही थी वो इंतजार कर रहे थे। एक कश्मीरी सुरक्षाकर्मी से कादर भाई की बात कराई उसने भी हमें उस ओर किसी भी दशा में न जाने की सलाह दी। लेकिन एक बात समझ में आ गयी कि कादर भाई का गांव जो अब तक हम समझ नहीं पा रहे थे सुदुरा था। जिसके लिए श्रीनगर रेलवे स्टेशन से ट्रेन भी आती जाती है। इधर उसी रात शिविर के दक्षिणी छोर पर कुछ आतंकवादियों की सुरक्षा बलों से मुठभेड़ हो गयी। काफी देर तक गोलियां चलती रहीं,  भय का माहौल रहा शिविर में। सुबह सब सामान्य था। अब भी हमारा निश्चय था कि सुबह चाहे कुछ भी हो हम कादर भाई के गांव जाएंगे ही। 

 

         सुबह उठे कपड़े तो हमारे पास थे ही नहीं, एक गर्म काली पैजामी,  गर्म पूरी आस्तीन की बनियान, मटमैली जैकेट, पैरो में स्पोर्ट शु, बिटिया के कपड़े भी वही थे जो पहाड़ पर चढ़ने के समय पहन रखे थे। हम अपने हुलिये को लेकर थोड़ा हीनभावना के शिकार थे। ऊपर से तीन दिन हो गए थे ठीक से फ्रेस भी नहीं हुए थे। लेकिन क्योंकि हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। 

 

         हम शिविर से बाहर आये, रैस्टोरेंट पर चाय पी, श्रीनगर रेलवे स्टेशन के लिए बस पकड़ी और पहुंच गए रेलवे स्टेशन श्रीनगर के बाहर। पैदल चलकर रेलवे स्टेशन पहुंचे। स्टेशन पर लगे बोर्ड से पता चला कि हमें जिस जगह जाना है उस स्टेशन का नाम सुडूरा है। हमने टिकिट लिया और ट्रेन का इंतजार करने लगे। स्टेशन पर भी जगह जगह सुरक्षाबल तैनात थे। जो यात्रियों की सुरक्षा का ही ख्याल नहीं रहते, उनकी हर प्रकार की सहायता करते है। उनकी बर्दी भले ही रौबीली हो, उनका व्यवहार बहुत ही मीठा, अपनापन लिए। मैं समझ ही नहीं पाया कि मधुर व्यवहार वाली मिलेट्री का कश्मीरी इतना विरोध क्यों करते हैं। क्या सभी कश्मीरी आतंकवादियों का सुरक्षा कबच बने है? खैर ट्रेन आयी, ट्रेन के डिब्बे खास थे। सिटिंग सिस्टम आरामदेह, बहुत अच्छा था। हर दो सीट पर एक पंखा लगा था। भीड़ इतनी ज्यादा भी न थी इसलिए आराम से जगह मिल गयी। 

 

       श्रीनगर से सातवां या शायद आठवां स्टेशन सुडूरा था। हमारा डिब्बा सबसे पिछला था। सुडूरा स्टेशन पर उतर गए। स्टेशन पर हर तरफ सुरक्षाकर्मी ही सुरक्षाकर्मी थे। हमने वहां एक सुरक्षाकर्मी से गांव के बारे में पूछा उसने हमें गाँव न जाने की सलाह दी। हमें वापस लौट जाने को कहा। कुछ दूर चलने पर स्टेशन के गेट के पास ही अब्दुल कादिर भाई खड़े मिले, वो तपाक से गले मिले। दुआ सलाम, खैरियत खैरसल्लाह की बातें हुईं। उनके साथ हम स्टेशन से बाहर निकले, बाहर कोई सवारी नहीं थी अतः पैदल ही बात करते हुए चल रहे थे। 

 

         स्टेशन पर तो चप्पे चप्पे पर सुरक्षा बल के जवान, बीएसएफ के जवान तथा कश्मीर पुलिस के जवान मौजूद थे ही। रास्ते के दोनों ओर दूरतक बल के जवान दिखाई दे रहे थे, एक दम अलर्ट जैसे मोर्चे पर हो, अब हमें डर लगने लगा था, डर उन कादर भाई से भी जिनसे मिलने आयें हैं। हमारे मन में क्या चल रहा है इससे बेखबर कादर भाई ने दूर दूर रायफल, मशीन गन ताने मुस्तैद खड़े जवान दिखाकर बताया कि इन पहाड़ी रास्तों के पार पाकिस्तान है। जहां से आतंकवादी यहां आते हैं। पहाड़ियों में, जंगल मे छिपे रहते हैं। यहां आए दिन आतंकवादियों से सुरक्षा बलों की मुठभेड़ होती रहती है। गोलियां चलती रहती हैं, खून बहता रहता है, आतंकवादी कहां से आते हैं कहां चले जाते हैं पता ही नहीं चलता। अभी हम बात करते हुए चल ही रहे थे कि गांव की सीमा आ गयी। 

 

         गांव के रास्ते पर कुछ लोग बैठे थे, जैसे ये बैठक हो। ऐसा लगा कि वो किसी के भी गाँव मे प्रवेश के बारे में पता लगाने के लिए बैठे थे। शायद ताड़ सकें चाहे की आने वाला खुफिया विभाग का है या आतंकवादी। शायद वो तो दोनों से ही भयभीत थे। अब जिधर देखो सेव के बाग थे जिनपर हरे हरे सेव लगे थे। कादर भी ने बताया कि ये सबसे ज्यादा खतरनाक जगह है जहां आतंकवादी छिपे होते हैं। डर कर हम तेजी से चलने लगे, बाग, सड़क के किनारे बैठे और आने जाने वाले कादर भाई के साथ अस्सलामालेकुम- बालेकुम अस्सलाम के साथ कश्मीरी भाषा में सब खैरियत और ये कौन है मालूम कर रहे थे। अब माहौल में इतना ख़ौफ़ था कि हमें लगने लगा था कि हमें शिविर के संचालक, शिविर के सुरक्षा बल के अधिकारियों, रैस्टोरेंट वाले युवा की बात मान लेनी चाहिए थी। हमें सुडूरा आना ही नहीं चाहिए था। ऐसे किसी स्टेशन पर या किसी अस्पताल में किसी से जान पहचान होने का मतलब ये तो नहीं है कि उठे और चल दिये साहब। 

 

            पूरे माहौल पर ही आतंक का साया था। किसी तरह हम कादर भाई के घर पहुंचे। पूरा घर लकड़ी का बना था। दूसरी मंजिल पर किचन था। किचन में टीवी लगा था। जिसपर उस समय कोई हिंदी सीरियल चल रहा था।  इस मंजिल पर कादर भाई का परिवार रहता था। तीसरी मंजिल पर मेहमानखाना था। कमरों को अलग अलग चित्रकारी कर सजाया हुआ था। छत पर भी आर्ट का शानदार प्रदर्शन था। नीचे कालीन बिछी थी। हर कमरा बेहद साफ हवादार था। नीचे बाथरूम था, जहां गर्म और ठंडे पानी का इंतजाम था। कादर भाई हमें फ़्रेश होने के लिए नीचे लाये। गर्म पानी गीजर से नहीं ऊपर रखे टैंक के नीचे लकड़ी जलाकर किया जाता था। ऊपर से नीचे तक घर का रखरखाव बहुत ही शानदार था। रास्ते में लोगों द्वारा किये गए सलाम, और घर के रखरखाव से ही पता चल रहा था कि कादर भाई गांव के असरदार, बड़े आदमियों में से एक है। 

 

         ये रमजान के महीना था। शायद 11वां रोजा था। रमजान में परिवार में सब का रोजा था। फ़्रेश होकर हमें मेहमानखाने में ले जाया गया। परिवार के सभी सदस्यों  वहां आगये। उस समय वहां कादर भाई की बीबी और चार लड़कियां थी सभी आगयीं जैसे हम कोई परिवार के खास रिस्तेदार हों, सभी बहुत ही सुंदर, सलीकेदार, दीनदार थीं। बहुत मुहब्बत और खुलूस से बातें शुरू हुईं। हिंदुस्तान की कश्मीर की, विकास की। एक परेशानी थी कि उन्हें हिंदी नहीं ही आती थी और हमें तो कश्मीरी बिल्कुल भी नहीं आती थी। 

 

            इस बात का अंदाजा इस बात से लगा लो कि कादर भाई का नाम हमें बहुत मुश्किल से समझ में आया था। कादर भाई की पत्नी को तो हिंदी बिल्कुल भी नहीं आती थी। हमारी बातों को कादर भाई ट्रांसलेट करके उन्हें बताते थे। हां लड़कियां कुछ कुछ हिंदी समझ लेतीं थी। मगर बोल भी ठीक से नहीं पातीं थीं। शायद हिंदी सीरियल की बजह हो। वैसे वहां पढ़ाई उर्दू में होती है, हिंदी बोलना शायद मना है कश्मीर में। 

 

           हाँ तो भाषा की इस उलझन के बाबजूद पूरे परिवार ने हमसे जमकर बातें की। रमजान होने और हमारे लाख मना करने के बाबजूद कहवा बनाया, नास्ता बनाया। उनके घर पर पहुंचकर परिवार के व्यवहार से मन में बैठा डर दूर हुआ। कादर भाई ने अपने घर पर लगे देशी अंजीर तोड़ कर दिए। हमारे वापस लौटने का समय हो रहा था, परिवार के सदस्य हमें गेट तक छोड़ने आए। जैसे किसी रिश्तेदार को छोड़ने गेट तक आते हैं। कादर भाई हमें स्टेशन पर छोड़कर चैन की सांस लेते चले गए, शायद उनके मन में भी कुछ अनहोनी का भय था, हमारे किसी अनिष्ठ की चिंता थी। हमें स्टेशन पर सकुशल छोड़ कर कादर भाई अपने गांव के लिए चल पड़े।  स्टेशन पर हमने मालूम किया कि श्रीनगर के लिए ट्रेन कब आएगी। हमारी भाषा से स्टेशन पर तैनात मिलेट्री के जवानों पहचान गए कि हम कश्मीरी नहीं हैं। 

 

            हमारी भाषा में उत्तरप्रदेश की भाषा का पुट था। दो तीन जवान उत्तर प्रदेश के भी थे। उन्होंने हमें बैठने के लिए स्टेशन मास्टर के कमरे से दो कुर्सी निकल कर बहुत ही सम्मान के साथ बैठाया। हमारे आने जाने का कारण पूछा। हमने बताया पूरा घटना क्रम उन्हें बता दिया। उन्होंने कहा कि अगर गांव जाने से पहले उन्हें मालूम होता तो वे हमें कभी भी न जाने देते या फिर एक टुकड़ी सुरक्षा के लिए साथ जाती। कादर भाई ठीक आदमी हो सकते हैं लेकिन इस गांव में  आतंकवादियों की कोई न कोई बारदात होती ही रहती है। जवान शुरू से ही हमारा सम्मान कर रहे थे। 

 

              शायद मैं उन्हें चेहरे से कोई मिलेट्री या पुलिस का अधिकारी लग रहा था। हमारे लिए चाय बनवाई गई। बिस्कुट मंगवाए गए। बाहर जहां हम लोग बैठे थे, थोड़ा गर्मी थी, एक जवान ने अपने कैम्प से लेकर पंखा लगा दिया। उन्होंने बताया कि अब आखरी एक ट्रेन है जो  बारामुला से चलकर श्रीनगर, सुडूरा होते हुए बनिहाल जाएगी। फिर वही ट्रेन बनिहाल से वापस  सुडूरा श्रीनगर होते हुए बारामूला जाएगी। ट्रेन के आने में बहुत समय था। 

 

           हम स्टेशन पर मिलेट्री के जवानों के साथ आराम से बैठे थे कि पता चला कि सुडूरा गांव के रास्ते में आतंकवादियों ने किसी पर हमला कर दिया। उसे बचाने के लिए सुरक्षा बलों की आतंकवादियों से मुठभेड़ हो गयी। बहुत देर तक गोलियां चलती रहीं। अंत में आतंकवादी जंगल का लाभ उठाकर भाग गए। हमले में कोई हताहत नहीं हुआ। सुरक्षा बलों के जवानों ने यह भी बताया कि शायद ये हमला हमारे मित्र पर ही हुआ हो। क्योंकि हमें गाँव में खुफिया एजेंसी का समझा गया होगा। लेकिन इस हमले में कोई भी हताहत नहीं हुआ। ये सोचकर मन को शांति हुई। दुख भी हुआ अपने आने पर कि हमारी वजह से कादर भाई इस मुसीबत में फंस गए।         

 

         आखिरी ट्रेन होने के कारण स्टेशन पर और भी ज्यादा भीड़ थी। अभी हम ट्रेन का इंतजार कर ही रहे थे कि उन जवानों ने हमें सुझाव दिया कि सुडूरा से बनिहाल होते हुए श्रीनगर का टिकिट ले लें। इस तरह यहां से श्रीनगर से आने वाली ट्रेन में बनिहाल चले जाना और उसी ट्रेन से श्रीनगर चले जाना। एक तो भीड़ की समस्या से बच जाओगे, दूसरा पीर पंजाल की 11 किलोमीटर लंबी सुरंग को भी देख लोगे। लोग डलझील की तरह इस सुरंग को देखने भी आते है। सुझाव पसन्द आया।

 

         जवानों में से एक ने हमारे टिकिट लाकर दे दिया। ट्रेन आने पर ट्रेन के सामान्य डिब्बो में बहुत भीड़ होने पर हमें गार्ड के डिब्बे में बैठा दिया गया। पता चला कि यहां सुरक्षाकर्मियों के लिए दो सीट होती है, उन जवानों ने हमें उसी सीट पर बैठा दिया। ट्रेन के सुरक्षाकर्मियों ने भी हमारा बहुत सम्मान किया। ट्रेन चली काजीगुंड पार कर पीर पंजाल की 11 किलोमीटर लम्बी सुरंग पार बनिहाल पहुंची। सुरंग वो भी 11 किलोमीटर लंबी से जब ट्रेन गुजर रही थी तो कुछ डर कुछ रोमांच का अनुभव हुआ। लौटते हुए और भी ज्यादा आनंद आया सुंरग का।  ट्रेन में सुरक्षाकर्मी जो शायद बारामुला और सौपोर के थे अपने व्यक्तिगत आतंकवाद से सम्बंधित सुनाते चल रहे थे। बनिहाल पहुंचने पर सुरक्षाकर्मी हमारे लिए चाय और बिस्कुट और एक बोतल पानी की ले आए आये। 10 मिनट के बाद ट्रेन फिर चली और दो घंटे के सफर के बाद हम श्रीनगर रेलवे स्टेशन पर थे। सुरक्षाकर्मी हमें स्टेशन से बाहर तक छोड़ने आये। रात होने लगी थी, हमने बस पकड़ी और अपने शिविर में आगये। किसी को कुछ नहीं बताया लेकिन मन पर एक बोझ से लिये रात को सो गए। सुबह से बस के आने का इंतजार शुरू हो गया। 

 

         मेरे मित्र ने कहानी का अंत करके मेरी ओर देखा। मेरे पास शब्द ही नहीं थे कि उसकी तारीफ करूं। लेकिन मैंने उससे ये वादा किया कि मैं उसकी कहानी को कागज पर उतारूंगा। आज उसकी कहानी आपके सामने उसी के शब्दों में पेश कर रहा हूं। मुझे लग रहा है कि वो कश्मीर के बारे में ठीक से समझ नहीं पाया। क्योंकि मैंने भी कश्मीर की यात्रा की है। कश्मीरियों से मुझे भी मिलने का मौका मिला। वैसे उसकी कहानी का कादर भाई भी तो कश्मीरी ही था। मुझे तो आम कश्मीरी भले ही लगे थे। बस ये जरूर मालूम करते थे कि हिंदुस्तान से आये हो? हो सकता है कुछ कश्मीरी युवक भटक गए हो। उन्हें जिहाद के नाम पर मक्कार लोगों ने अहिंसा का पाठ पढ़ा दिया गया हो। या फिर मजहब या राजनीति के नाम उन्हें आतंकवादी बना रहे हों। लेकिन अधिकांश कश्मीरी बहुत ही भलेमानस मिले मुझे तो। खैर दोस्त से किया वादा पूरा कर रहा हूँ उसकी कहानी पेश कर रहा हूँ।

 

मेरे कहानी संग्रह 'एक कहानी मैं कहूं' से कहानी सम्पूर्ण 

 @कहानीकार डा. वीरेंद्र पुष्पक

Wednesday, November 27, 2019

उसने कहा था


चंद्रधर शर्मा गुलेरी


 


बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढीवाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर बचो खालसा जी। हटो भाई जी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हटो बाछा, कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं - हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा लंबी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है? बच जा।


ऐसे बंबूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गुथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।


    'तेरे घर कहाँ हैं?'
    'मगरे में; और तेरे?'
    'माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?'
    'अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।'
    'मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरु बजार में हैं।'


इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा ले कर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकरा कर पूछा, - 'तेरी कुड़माई हो गई?' इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।


दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरी कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही 'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली - 'हाँ हो गई।'


'कब?'


'कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।' लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उँड़ेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।


 


2


'राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खंदकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं; - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खंदक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।'


'लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खंदक में बिता ही दिए। परसों रिलीफ आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खा कर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में - मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आए हो।'


'चार दिन तक एक पलक नींद नहीं मिली। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े - संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था - चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो - '


'नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?' सूबेदार हजारासिंह ने मुसकरा कर कहा -'लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?'


'सूबेदार जी, सच है,' लहनसिंह बोला - 'पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाईं में दोनों तरफ से चंबे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।'


'उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ ले कर खाईं का पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाईं के दरवाजे का पहरा बदल ले।' - यह कहते हुए सूबेदार सारी खंदक में चक्कर लगाने लगे।


वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाईं के बाहर फेंकता हुआ बोला - 'मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!' इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए।


लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में दे कर कहा - 'अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।'


'हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा जमीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।'


'लाड़ी होराँ को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम - '


'चुप कर। यहाँवालों को शरम नहीं।'


'देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तंबाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है,और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं।'


'अच्छा, अब बोधासिंह कैसा है?'


'अच्छा है।'


'जैसे मैं जानता ही न होऊँ! रात-भर तुम अपने कंबल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।'


'मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।'


वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ा कर कहा - 'क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे -


    दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
    कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
    कर लेणा नाड़ेदा सौदा अड़िए -
    (ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
    कद्दू बणया वे मजेदार गोरिए,
    हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।


कौन जानता था कि दाढ़ियोंवाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, पर सारी खंदक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।


 


3


दो पहर रात गई है। अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कंबल बिछा कर और लहनासिंह के दो कंबल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाईं के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।


'क्यों बोधा भाई, क्या है?'


'पानी पिला दो।'


लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा - 'कहो कैसे हो?' पानी पी कर बोधा बोला - 'कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।'


'अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!'


'और तुम?'


'मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।'


'ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए - '


'हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुन कर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें।' यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।


'सच कहते हो?'


'और नहीं झूठ?' यों कह कर नाँहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।


आधा घंटा बीता। इतने में खाईं के मुँह से आवाज आई - 'सूबेदार हजारासिंह।'


'कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!' - कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।


'देखो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाईं है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पंद्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खंदक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।'


'जो हुक्म।'


चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कंबल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझा कर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा - 'लो तुम भी पियो।'


आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला - 'लाओ साहब।' हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?' शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।


'क्यों साहब, हम लोग हिंदुस्तान कब जाएँगे?'


'लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसंद नहीं ?'


'नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे -


'हाँ, हाँ - '


'वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मंदिर में जल चढ़ाने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का - सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कंधे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएँगे।'


'हाँ पर मैंने वह विलायत भेज दिया - '


'ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?'


'हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?'


'पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ' - कह कर लहनासिंह खंदक में घुसा। अब उसे संदेह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।


अँधेरे में किसी सोनेवाले से वह टकराया।


'कौन? वजीरासिंह?'


'हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?'


 


4


'होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।'


'क्या?'


'लपटन साहब या तो मारे गए है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?'


'तो अब!'


'अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होराँ, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाईं पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।


सूबेदार से कहो एकदम लौट आएँ। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।'


'हुकुम तो यह है कि यहीं - '


'ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम - जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।'


'पर यहाँ तो तुम आठ है।'


'आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।'


लौट कर खाईं के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जा कर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने -


इतने में बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बंदूक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुंदा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'ऑख! मीन गौट्ट' कहते हुए चित्त हो गए। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।


साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला - 'क्यों लपटन साहब? मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगाएँ होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिना डेम के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।'


लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले।


लहनासिंह कहता गया - 'चालाक तो बड़े हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। हिंदुस्तान में आ जाएँगे तो गोहत्या बंद कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रुपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकाल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो - '


साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आए।


बोधा चिल्लया - 'क्या है?'


लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बंदूकें ले कर तैयार हो गए। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।


इतने में सत्तर जर्मन चिल्ला कर खाईं में घुस पड़े। सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था - वह खड़ा था, और, और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोडे से मिनटों में वे - अचानक आवाज आई, 'वाह गुरुजी की फतह? वाह गुरुजी का खालसा!! और धड़ाधड़ बंदूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछेवालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।


एक किलकारी और - अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरुजी दी फतह! वाह गुरुजी दा खालसा! सत श्री अकालपुरुख!!! और लड़ाई खतम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिखों में पंद्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कंधे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खंदक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबंद की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव - भारी घाव लगा है।


लड़ाई के समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा में 'दंतवीणोपदेशाचार्य' कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौडा-दौडा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पा कर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।


इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाईंवालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँध कर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रक्खी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जाएगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा - 'तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनीजी की सौगंध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।'


'और तुम?'


'मेरे लिए वहाँ पहुँच कर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।'


'अच्छा, पर - '


'बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को चिट्ठी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।'


गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा - 'तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?'


'अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।'


गाड़ी के जाते लहना लेट गया। 'वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबंद खोल दे। तर हो रहा है।'


 


5


मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुंध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।


*** *** ***


लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब धत् कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा - 'हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू? सुनते ही लहनासिंह को दुख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?


'वजीरासिंह, पानी पिला दे।'


***    ***      ***


पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी ले कर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिट्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।


जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला - 'लहना, सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।' लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।


'मुझे पहचाना?'


'नहीं।'


'तेरी कुड़माई हो गई - धत् - कल हो गई - देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में -


भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।


'वजीरा, पानी पिला' - 'उसने कहा था।'


***    ***      ***


स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है - 'मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घँघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी। अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन ताँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मुझे उठा कर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।


रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।


'वजीरासिंह, पानी पिला' - 'उसने कहा था।'


***    ***      ***


लहना का सिर अपनी गोद में लिटाए वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना चुप रहा, फिर बोला - 'कौन! कीरतसिंह?'


वजीरा ने कुछ समझ कर कहा - 'हाँ।'


'भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।' वजीरा ने वैसे ही किया।


'हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।' वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।


***    ***      ***


कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा -


फ्रांस और बेल्जियम - 68 वीं सूची - मैदान में घावों से मरा - नं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह ।


Friday, November 22, 2019

नन्हों


शिवप्रसाद सिंह


 


चिट्ठी-डाकिए ने दरवाजे पर दस्‍तक दी तो नन्हों सहुआइन ने दाल की बटुली पर यों कलछी मारी जैसे सारा कसूर बटुली का ही है। हल्‍दी से रँगे हाथ में कलछी पकड़े वे रसोई से बाहर आईं और गुस्‍से के मारे जली-भुनी, दो का एक डग मारती ड्योढ़ी के पास पहुँचीं।


'कौन है रे!' सहुआइन ने एक हाथ में कलछी पकड़े दूसरे से साँकल उतार कर दरवाजे से झाँका तो डाकिए को देख कर धक से पीछे हटीं और पल्‍लू से हल्‍दी का दाग बचाते, एक हाथ का घूँघट खींच कर दरवाजे की आड़ में छिपकली की तरह सिमट गईं।


'अपने की चिट्ठी कहाँ से आएगी मुंशीजी, पता-ठिकाना ठीक से उचार लो, भूल-चूक होय गई होयगी,' वे धीरे से फुसफुसाईं। पहले तो केवल उनकी कनगुरिया दीख रही थी जो आशंका और घबराहट के कारण छिपकली की पूँछ की तरह ऐंठ रही थी।


'नहीं जी, कलकत्‍ते से किसी रामसुभग साहु ने भेजी है, पता-ठिकाना में कोई गलती नहीं...'


'रामसु...' अधकही बात को एक घूँट में पी कर सहुआइन यों देखने लगीं जैसे पानी का धक्‍का लग गया हो। कनगुरिया का सिरा पल्‍ले में निश्‍चेष्‍ट कील की तरह अड़ गया था - 'अपने की ही है मुंशीजी...'


मुंशीजी ने चिट्ठी आगे बढ़ाई, कनगुरिया फिर हिली, पतंगे की तरह फड़फड़ाती चिट्ठी को पंजे में दबोच कर नन्‍हों सहुआइन पीछे हटीं और दरवाजे को झटके से भेड़ लिया। असँगन के कोने में पानी रखने के चबूतरे के पास खड़ी हो कर उन्‍होंने चिट्ठी को पढ़ा। रासुभग आ रहा है, लिखा था चिट्ठी में। केवल तीन सतर की इबारत थी पूरी। पर नन्‍हों के लिए उसके एक-एक अक्षर को उचारने में पहाड़-सा समय लग गया जैसे। चबूतरे के पास कलसी के नीचे, पानी गिरने से जमीन नम हो गई थी, जौ के बीज गिरे थे जाने कब के, इकट्ठे एक में सटे हुए उजले-हरे अँखुए फूटे थे। नन्‍हों सहुआइन एकटक उन्‍हें देखती रहीं बड़ी देर तक।


पाँच साल का समय कुछ कम तो नहीं होता। लंबे-लंबे पाँच साल! पूरे पाँच साल के बाद आज रामसुभग को भौजी की याद आई है। पाँच साल में उसने एक बार भी कुशल-मंगल का हाल नहीं दिया। एक बार भी नहीं पूछा कि भौजी जीती है या मर गई। जब अपना ही नहीं रहा हाल-चाल लेनेवाला, तो दूसरा कौन पूछता है किसे? नन्हों सहुआइन ने चारपाई के पास से माची खींची और उस पर बैठ गईं। हल्‍दी-सनी अँगुलियों के निशान 'कार्ड' पर उभर आए थे - जैसे वह किसी के शादी-ब्‍याह का न्‍यौता था। शादी-ब्‍याह का ख्‍याल आते ही नन्‍हों सहुआइन की आँखें चलवे मछली-सी चिलक उठीं। जाने कितनी बार सोचा है उन्‍होंने अपनी शादी के बारे में। कई बार सोचा, इस दुखदायी बात को फिर कभी न सोचूँगी। जो भाग में न था उस पर पछतावा क्‍या? पर वह औरत क्‍या अपनी शादी पर न सोचे और एक ऐसी औरत जिसकी शादी उसकी जिंदगी का दस्‍तावेज बन कर आई हो, जिंदगी सिर्फ उसकी गिरो ही नहीं बनी उसने तो नन्हों के समूचे जीवन को रेतभरी परती की तरह वीरान कर दिया।


गाँव की सभी औरतों की तरह नन्‍हों का भी ब्‍याह हुआ। उसकी भी शादी में वही हुआ जो सभी शादियों में होता है। बाजा-गाजा, हल्‍दी-सिंदूर, मौज-उत्‍सव, हँसी-रुलाई - सब कुछ वही।


एक बात में जरूर अंतर था कि नन्‍हों की शादी उसके मायके में नहीं, ससुराल में हुई। इस तरह की शादियाँ भी कोई नई नहीं हैं। जो जिंदगी के इस महत्‍वपूर्ण मौके का भी उत्‍साह और इच्‍छा के बावजूद रंगीनियों से बाँधने के उपकरण नहीं जुटा पाते वे बारात चढ़ा कर नहीं, डोला उतार कर शादी करते हैं। इसलिए नन्हों की शादी भी डोला उतार कर ही हुई तो इसमें भी कोई खास बात तो नहीं हो गई। नन्‍हों का पति मिसरीलाल एक पैर का लँगड़ा था, पैदाइशी लँगड़ा। उसका दायाँ पैर जवानी में भी बच्‍चों की बाँह की तरह ही मुलायम और पतला था। डंडा टेक कर फुदकता हुआ चलता। नाक-नक्‍शे से कोई बुरा नहीं था, वैसे काला चेहरा, उभरी हुई हड्डियों की वजह से बहुत वीरान लगता। घर में किराने की दुकान होती, जिसमें खाने-पीने के जरूरी सामानों के अलावा तंबाकू, बीड़ी-माचिस और जरूरत की कुछ सब्जियाँ भी बिकतीं। अक्‍सर सब्‍जियाँ बासी पड़ी रहतीं, क्‍योंकि अनाज से बराबर के भाव खरीदनेवाले अच्‍छे गृहस्‍थ्‍ा भी मेहमान के आने पर ही इस तरह का सौदा किया करते।


मिसरीलाल की शादी पक्‍की हुई तो नन्‍हों का बाप बड़ा खुश था, क्‍योंकि मिसरीलाल के नाम पर जो लड़का दिखाया गया वह शक्‍ल में अच्‍छा और चाल-चलन में काफी शौकी़न था। लंबे-लंबे उल्‍टे फेरे हुए बाल थे, रंग वैसे साँवला था, पर एक चिकनाई थी जो देखने में खूबसूरत लगती थी। इसीलिए लड़के वालों ने जब जोर दिया कि हमें बरात चढ़ा के शादी सहती नहीं, डोला उतारेंगे, तो थोड़ी मीन-मेख के बाद नन्‍हों का बाप भी तैयार हो गया, क्‍योंकि इसमे उसका भी कम फायदा न था। खर्चे की काफी बचत थी।


डोला आया, उसी दिन हल्‍दी-तेल की सारी रस्‍में बतौर टोटके के पूरी हो गईं और उसी रात को बाजे-गाजे के बीच नन्‍हों की शादी मिसरीलाल से हो गई। बाजों की आवाजें हमेशा जैसी ही खुशी से भरी थीं, मंडप की झंडियाँ और चँदोवे में हवा की खुशी-भरी हरकतें भी पूर्ववत थीं, पर नन्हों अपने हाथ भर के घूँघट के नीचे आँसुओं को सुखाने की कितनी कोशिश कर रही थी, इसे किसी ने न देखा। एक भारी बदसूरत पत्‍थर को गले में बाँधे वह वेदना और पीड़ा के अछोर समुद्र में उतार दी गई जहाँ से उसकी सिसकियों की आवाज भी शायद ही सुनाई पड़ती।


'कहो भौजी, बाबा ने देखा तो मुझको, पर शादी हुई मिसरी भैया की।' रामसुभग ने दूसरे दिन कोने में बैठी नन्‍हों से मुसकराते हुए कहा, 'अपना-अपना भाग है, ऐसी चाँद-सी बहू पाने की किस्‍मत मेरी कहाँ है?' भौजी मजाक के लिए बनी है, पर ऐसे मजाक का भी क्‍या जवाब? नन्‍हों की आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे जिन्‍हें वह पूरे चौबीस घंटे से लगातार रोके हुए थी। रामसुभग बिलकुल घबरा गया, उसने दुखी करने के लिए ही चोट की थी, पर घायल सदा पंख समेटे शिकारी के चरणों में ही तो नहीं गिरता, कभी-कभी खून की बूँदें-भर गिरती हैं और पंछी तीर को सीने में समाए ही उड़ता जाता है।


'ठीक कहा लाला तुमने, अपना-अपना भाग ही तो है...' नन्‍हों ने कहा और चुपचाप पलकों से आँसुओं की चट्टानों को ठेलती रही।


रामसुभग मिसरीलाल का ममेरा भाई है। अक्‍सर वह यहीं रहता है, एक तो इसलिए कि उसे अपना घर पसंद न था। बाप सख्‍ती से काम कराता और आना-कानी की तो बूढ़े बाप के साथ दूसरे भाइयों का मिला-जुला क्रोध उसके लिए बहुत भारी पड़ता। दूसरे, मिसरीलाल का भी इरादा था कि वह अक्‍सर यहाँ आता-जाता रहे ताकि उसे दुकान के लिए सामान वगैरह खरीदवाने में आसानी पड़े। रामसुभग के लिए मिसरीलाल का घर अपना जैसा ही था। उसने मिसरीलाल की शादी की बात सुनी तो बड़ा खुश हुआ था कि घर में एक औरत आ जाएगी, थोड़ी चहल रहेगी और मुरव्वत में अक्सर जो उसे चूल्‍हा फूँकने का काम भी कर देना पड़ता, उससे फुरसत मिल जाएगी। पर नन्‍हों को देख कर रामसुभग को लगा कि कुछ ऐसा हो गया है जैसा कभी सोचा न था। नन्‍हों वह नहीं है जिसे मिसरीलाल की औरत के रूप में देख कर उसे कुछ अड़चन न मालूम हो। वह काफी विश्‍वास के साथ आया था नन्‍हों से बात करने, उसे जता देने कि रामसुभग भी कुछ कम नहीं है, मिसरीलाल का बड़ा आदर मिलता है उसे, यह घर जैसे उसी के सहारे टिका है और भौजी के लिए रामसुभग-सा देवर भी कहाँ मिलेगा और शादी के पहले तो नन्‍हों के बाप ने भी उसे ही देखा था पर जाने क्‍या है नन्‍हों की झुकी हुई आँखों में कि रामसुभग सब भूल गया। चारपाई के नीचे बिछी रंगीन सुहागी चटाई पर पैरों को हाथ में लपेटे नन्‍हों बैठी थी गुड़ीमुड़ी, उसकी लंबी बरौनियाँ बारिश में भीगी तितली के पैरों की तरह नम और बिखरी थीं और वह एकटक कहीं देख रही थी, शायद मन के भीतर किसी बालियों से लदी फसल से ढके लहराते हुए एक खेत को, जिसमें किसी ने अभी-अभी जलती हुई लुकाठी फेंक दी है।


रामसुभग बड़ी देर तक वैसे ही चुप बैठा रहा। वह कभी आँगन में देखता था कभी मुँडेरे पर। वह चाहता था कि इस चुप्‍पी को नन्‍हों ही तोड़े, वही कुछ कहे, अपने मन से ही जो कहना ठीक समझे, क्‍योंकि उसके कहने से शायद बात कुछ ठीक बने, न बने, पर नन्‍हों तो कुछ बोलती ही नहीं।


ब्‍याह के दूसरे दिन के रसम-रिवाज पूरे हो रहे थे, कमारी डाले में अक्षत-सिंदूर ले कर गाँव की तमाम सतियों के चौरे पूज आई थी, और सबसे मिसरीलाल की मृत माँ की ओर से वर-वधू के लिए आशीर्वाद माँग आई थी। रात-भर गाने से थकी हुई भाटिनें अपने मोटे और भोंडे स्‍वरों में अब भी राम और सीता की जोड़ी की असीसें गा रही थीं। कुछ बचे-खुचे लोग एक तरफ बैठे खा रहे थे, पुरवे-पत्‍तल इधर-उधर बिखरे पड़े थे।


'अच्‍छा भौजी...' रामसुभग इस मौन को और न झेल सका। चुपचाप उठ कर आँगन में चला आया।


'क्‍या बबुआ, भौजी पसंद आई?' एक मनचली भाटिन ने मोटी आवाज में पूछा।


'हाँ, हाँ, बहुत।' रामसुभग इस प्रश्‍न की चुभन को भाँप गया था। उसने मुसकराने की कोशिश की, पर गर्दन ऊपर न उठ सकी। वह चुपचाप सिर झुकाए दालान में जा कर मिसरीलाल के पास चारपाई पर बैठ गया। उस समय मिसरीलाल दो-एक नाते-रिश्‍ते के लोगों से बातें कर रहा था। पीले रंग की धोती उसके काले शरीर पर काफी फब रही थी, पर उसके चेहरे की वीरानी में कोई अंतर न था, खुशी उसके चेहरे पर ऐसी लग रही थी जैसे किसी ने जंग-लगी पिचकी डिबिया में कपूर रख दिया हो। उसके दाहिने हाथ का कंगन एक मरे हुए मकड़े की तरह झूल रहा था...' जाने क्‍यों आज रामसुभग को मिसरीलाल बहुत बदसूरत लग रहा था, शादी के कपड़ों में कोई ऐसा भद्दा लगता है, यह रामसुभग ने पहली बार देखा।


'सुभग,' मिसरीलाल ने बातचीत से निपट कर दालान में एकांत देख कर पूछा, 'कयों रे भौजी कैसी लगी - सच कहना, अपनों से क्‍या दुराव - गया था न, कुछ कह रही थी?'


'नहीं तो,' रामसुभग ने कहा, 'काफी हँसमुख है, वैसे मायका छूटने पर तो सभी दुलहिनें थोड़ी उदास रहती हैं।' मिसरीलाल अजीब तरीके से हँसा, 'अरे वाह रे सुंभू, तू तो भई दुलहिनें पहचानने में बेजोड़ निकला। उदास क्‍यों लगती है भला वह? किसी परिवारवाले घर में जाती, सास-जिठानियों की धौंस से कलेजा फट जाता, दिन-रात काँव-काँव, यहाँ तो बस दो परानी हैं, राज करना है, है कि नहीं?'


'हूँ,' रामसुभग गर्दन झुकाए चारपाई के नीचे देख रहा था, उसने वैसे ही हामी भर दी जैसे उसने पूरी सुनी ही न हो।


'मीसरी साह!' दरवाजे से कमारी ने पुकारा, 'बाबाजी बुला रहे हैं चौके पर कंगन छूटने की साइत बीत रही है।' मिसरीलाल धीरे से उठे और फुदकते हुए चौके पर जा बैठे। लाल चूनर में लपेटे, गुड़िया की तरह उठा कर नन्‍हों को कमारी ले आई और मिसरीलाल की बगल में बिठा दिया।


मिसरीलाल की शादी हुए एक सतवारा बीत चुका था। इस बीच जाने कितनी बार रामसुभग नन्‍हों के पास बैठा। नन्‍हों के पास बैठने में उसे बड़ी घुटन महसूस होती, उसे हर बार लगता कि वह गलती से आ गया, उसका मन हर बार एक अजीब किस्‍म की उदासी से भर जाता। वह सोचता कि अब उसके पास नहीं जाऊँगा, जो होना था सो हो गया, पर उसका जी नहीं मानता। नन्‍हों ने इस बीच मुश्किल से उससे दो-चार बातें की होंगी। कभी शायद ही उसकी ओर देखा होगा, पर पता नहीं उन झुकी हुई बरौनियों से घिरी आँखों में कैसा भाव है कि रामसुभग खिंचा चला आता है। वे आँखें उसे कभी नहीं देखतीं, कहीं और देखती हैं, पर उनका इस तरह देखना रामसुभग के मन में आँधी की तरह घुमड़ उठता है। वह बार-बार सोचता कि शायद नन्‍हों के बाप के सामने वह दूल्‍हा बन कर न खड़ा होता तो नन्‍हों आज यहाँ न होती। झुकी हुई पलकों से घिरी इन आँखों की पीड़ा उसी की पैदा की हुई है। वही दोषी है, वही अपराधी है। रामसुभग इसीलिए नन्‍हों के पास जाने को विकल हो उठता है पर पास पहुँचने पर यह विकलता कम नहीं होती। उसकी माँ ने बहू को 'मुँहदिखाई' देने के लिए दो रुपए न्‍योता के साथ भेजे थे, पर नन्‍हों को देख कर उसकी हिम्‍मत न होती कि वे रुपए माँ की ओर से उसे दे दे। वह बाजार से सिल्‍क का एक रूमाल भी खरीद लाया। रुपए उसी में बाँध लिए। पर रूमाल हमेशा उसकी जेब में पड़ा रहा, वह उसे नन्‍हों को दे न सका।


'क्‍यों लाला, इतने उदास क्‍यों हों?' एक दिन पूछा था नन्‍हों ने, 'यहाँ मन नहीं लगता, भाई-भौजाइयों की याद आती हेागी...'


'नहीं तो, उदास कहाँ हूँ, तुम जो हो...' रामसुभग ने मुसकराते हुए कहा।


'मैं... हाँ, मैं तो हूँ ही, पर लाला, मैं तो दुख की साझीदार हूँ, सुख कहाँ है अपने पास जो दूसरों को दूँ? उदासी में पली, उदासी में ही बढ़ी। जन्‍मी तो माँ मर गई, बड़ी हुई तो बाप को बोझ बनी। मैं भला दूसरे की उदासी क्‍या दूर कर सकूँगी...'


'देखो भौजी...' रामसुभग ने पूरी साझेदारी से कहा - 'जो होना था वह हो गया... दिन-रात घुलते रहने से क्‍या फायदा... कुछ खुश रहा करो... थोडा हँसा करो...'


नन्‍हों मुसकराने लगी - 'अच्‍छा लाला, तुम कहते हो तो खुश रहा करूँगी, हँसूँगी, पर बुरा न मानना, बेबान के काम में थोड़ी देर लगती ही है।'


उस दिन रामसुभग बड़ा प्रसन्‍न था। सिर का भारी बोझ हट गया। जैसे किसी ने कलकते हुए काँटे को खींच कर निकाल दिया। नन्‍हों का मुसकराना भी गजब है, वह सोच रहा था। उदास रहेगी तब भी, मुसकराएगी तब भी, हर हालत में जाने क्‍या है उसके चेहरे में जो रामसुभग का मन उचाट देता है। गाँव में घूमता रहे, बाजार से सौदा लाता रहे, लोगों के बीच में बैठ कर गप्‍पें हाँकता रहे... नन्‍हों के चेहरे की सुध आते ही एकरस सूत झटके से टूट जाता, सोई सतह में लहरें वृत्‍ताकार घूमने लगतीं। सन्‍नाटे में जैसे मंदिर के घंटे की अनुगूँज झनझना उठती।


चैती हवा में गर्मी बढ़ गई थी। उसमें केवल नीम की सुवासित मंजरियों की गंध ही नहीं, एक नई हरकत भी आ गई थी... उसकी लपेट में सूखी पत्तियाँ, सूखे फूल, पकी फसलों की टूटी बालियाँ तक उड़ कर आँगन में बिखर जातीं। दोपहर में खाना खा कर मिसरीलाल दालान में सो जाता और रामसुभग बाजार गया होता या कहीं घूमने। नन्‍हों घर में अकेली बैठी सूखे पत्‍तों का फड़फड़ाना देखती रहती। उसके आँगन के पास भी खंडहर में नीम का पेड़ था। ऐसे दिनों में जब नीम हरी निबौरियों से लद जाता, वह ढेर-सी निबौरियाँ तोड़ कर घर ले आती और उन्‍हें तोड़-तोड़ कर ताजे दूध-से गालों पर तरह-तरह की तस्‍वींरें बनाती... शीशे में ठीक ऐपन की पुतरी मालूम होती। रामलीला में देखा था, राम और सीता बननेवाले लड़कों के गालों पर ऐसी ही तस्‍वीरें बनती थीं...।


हवा का एक तेज झोंका आया, किवाड़ झटके से खड़खड़ाया, देखा, सामने रामसुभग खड़ा था मुस्कराता हुआ।


'भौजी,' वह पास की चारपाई पर बैठ गया - 'एक गिलास पानी पिला दो। बड़ी प्‍यास लगी है।'


'कहाँ गए थे इतनी धूप में?' नन्‍हों उठी और आँगन के कोने में चबूतरे पर रखी गगरी से पानी ढाल कर ले आई।


जाने क्‍या हो गया था उस दिन रामसुभग को कि उसने गिलास के साथ ही नन्‍हों की बाँह को दोनों हाथों से पकड़ लिया। एक झटके के साथ बाँह काँपी और साँप की तरह ऐंठ कर सुभग के हाथों से छूट गई। गिलास धब्‍ब की आवाज के साथ जमीन पर गिर पड़ा।


'सरम नहीं आती तुम्‍हें...।' नन्‍हों साँपिन की तरह फुफकारती हुई बोली - 'बड़े मर्द थे तो सबके सामने बाँह पकड़ी होती। तब तो स्‍वाँग किया था, दूसरे के एवज तने थे, सूरत दिखा कर ठगहारी की थी। अब दूसरे की बहू का हाथ प‍कड़ते सरम नहीं आती...।'


'मैं तो भौजी तुम्‍हें यह देने आया था...।' रामसुभग ने रूमाल निकाला जिसकी खूँट में दो रुपए बँधे थे।


'क्‍या है यह?' - नन्‍हों ने गुस्‍से में ही पूछा।


'मुँहदेखाई के रुपए हैं। कई बार सोचा देने को, पर दे न सका।'


उसने रूमाल वहीं चारपाई पर रख दिया और लड़खड़ाता हुआ बाहर चला गया। सारा आँगन झूले की तरह डोल रहा था। गाँव की गलियाँ, दरवाजे जैसे उसकी ओर घूर रहे थे। उसी दिन वह अपने गाँव चला गया।


दो महीने बीत गए, रामसुभग का कोई समाचार न मिला। मिसरीलाल कभी उसकी चर्चा भी करता, तो नन्‍हों को चुप देख, एक-दो बातें चला कर मौन हो जाता। दुकान के लिए सारी चीजें रामसुभग ही खरीद कर लाता था। उसके न होने से मिसरीलाल को बहुत तकलीफ होती। किसी लद्दू, टट्टू या बैलवाले से सामान तो मँगवा लेता पर चीजें मन-माफिक नहीं मिलतीं और उनके साथ बाजार जा कर चीजें खरीदने में उसे काफी दिक्‍कत भी होती। दोपहर के वक्‍त, जब कि सूरज सिर पर तपता होता, लू में डंडे के सहारे टेकता, पसीने से लथपथ किसी तरह वह घर पहुँचता। इस तरह की आवा-जाही में एक दिन उसे लू लग गई और वह बिस्‍तर पर गिर पड़ा। नन्‍हों ने आम के पने पिलाए। हाथों और पैरों में भुने आम की लुगदी भी लगाई, पर ताप कम न हुआ। पीड़ा के मारे वह छटपटाता रहा। नन्‍हों घर से निकलती न थी, किसी से मदद माँगना भी मुश्किल था। उसने कमारी को बुला कर रामसुभग के गाँव भेजा। कहलाया कि कुछ सोचने-विचारने की जरूरत नहीं है, खबर मिलते ही जल्‍दी-से-जल्‍दी चले आवें। तीन-चार घड़ी रात गए रामसुभग मिसरीलाल के दरवाजे पर पहुँचा तो वहाँ काफी भीड़ थी। भीतर औरतों के रोने की चीत्‍कार गूँज रही थी। बाहर मिसरीलाल का शव रखा था। नन्‍हों विधवा हो चुकी थी।


रामसुभग मिसरीलाल के क्रिया-कर्म में लगा रहा, नन्‍हों से कुछ कहने की उसे फुर्सत ही न मिली। कभी सामने नन्‍हों दिख भी गई तो उसमें इतना साहस न हुआ कि सांत्‍वना के दो शब्‍द भी कह सके। काँच की चूड़ियाँ भी किस्‍मत का अजीब खेल खेला करती हैं। नन्‍हों जब इन्‍हें पहनना नहीं चाहती थी तब तो ये जबर्दस्‍ती उसके हाथों में पहनाई गईं और अब इन्‍हें उतारना नहीं चाहती तो लोगों ने जबर्दस्‍ती उसके हाथों से उतरवा दिया। कार-परोजन के घर में इतनी फुर्सत ही कहाँ थी कि नन्‍हों बैठ जाती। परंतु कभी-कभी दोपहर में दो-एक घड़ी फुर्सत मिलती तो वह अपनी उसी सुहागी चटाई पर बैठी हुई चुपचाप आँगन में देखा करती। रामसुभग उसके इस देखने के ढंग से इतना परेशान हो जाता कि काम-काज के बीच में भी नन्‍हों की वे तिरती आँखें उसके हृदय को बेधने लगतीं। आँगन में इधर-उधर आने-जाने में वह घबराता।


कहीं नन्‍हों पर नजर न पड़ जाए, इसीलिए गाँव के दूसरे लोगों को काम सौंप कर वह बाहर के कामों में सुबह से शाम तक जुता रहता। किरिया-करम बीत जाने पर वह घर में कम ही बैठ पाता। अक्‍सर सौदा-सामान खरीदने बाजार निकल जाता या खाली रहा तो गाँव में किसी के दरवाजे पर बैठा दिन गुजार देता।


कई महीने बीत गए। बरसात आई और गई। पानी सूख गया। बादलों का घिरना बंद हो गया। बौछारों से टूटी-जर्जर दीवारों के घाव भर गए। नई मिट्टी से सज-सँवर कर वे पहले-जैसी ही प्रसन्‍न मालूम होतीं। ऐसा लगता जैसे इन पर कभी बौछार की चोट पड़ी ही न हो, कभी इनके तन पर ठेस लगी ही न हो।


उस दिन चमटोली में गादी लगी थी। कातिक की पूनो को हमेशा यह गादी लगती। बीच चौकी पर सतगुरु की तसवीर फूल-मालाओं से सजा कर रखी हुई थी। अगरबत्तियों के धुएँ से चमरौटी की गंदी हवा भी खुशबूदार हो गई थी। कीर्तन-मंडली बैठी हुई थी। गाँव की औरतें, बूढ़े-बच्‍चे इकट्ठे हो कर भजन सुन रहे थे :


जो तुम बाँधे मोह फाँस हम प्रेम बंधन तुम बाँधे


अपने छूटन की जतन करहु हम छूटे तुम आराधे।


जो तुम गिरिवर तउ हम मोरा


जो तुम चंदा हम भए हैं चकोरा।


माधव तुम तोरहु तो हम नहिं तोरहिं


तुम सों सो तोर कवन सों जोरहिं।


काफी देर तक कीर्तन चलता रहा। नन्‍हों लौटी तो उसके मन में रैदास के गीत की पंक्तियाँ बार-बार गूँजती रहीं। 'तुम तोरहु तो हम नहिं तोरहिं' वह धीरे-धीरे गुनगुना रही थी। दालान का दरवाजा रामसुभग ने बंद कर रखा था। साँकल खटखटाई तो उसने आ कर दरवाजा खोला।


'इतनी रात को इस तरह तुम्‍हारा गली-गली में घूमना ठीक नहीं है, भौजी...' जाने कहाँ का साहस आ गया था उसे। रामसुभग दरवाजा बंद करते हुए बोला।


'हूँ,' नन्‍हों ने और कुछ न कहा।


'मैं तुम्‍हीं से कह रहा हूँ।'


नन्‍हों एक झटके के साथ घूमी। रामसुभग के चेहरे पर उसकी आँखें इस तरह टिकी थीं मानो बेध कर भीतर घुस जाएँगी, 'इतनी कलक होती है तो पहले ही ब्‍याह कर लिया होता। इस तरह डाँट रहे हो लाला, जैसे मैं तुम्‍हारी जोरू हूँ। खबरदार, फिर कभी आँख दिखाई तो।' रामसुभग माथा पकड़ कर बैठ गया। गुस्‍से और ग्‍लानि के मारे उसका सारा बदन जल रहा था, पर मुँह से एक शब्‍द भी न निकला। उसने चादर खींच कर मुँह ढक लिया और भीतर-ही-भीतर उफनता-उबलता रहा।


और तब से पाँच बरस बीत गए। आज पहली बार रामसुभग की चिट्ठी आई है कि वह कलकत्‍ते से गाँव आ रहा है। ये पाँच बरस जाने नन्‍हों ने कैसे बिताए हैं। रामसुभग उसी रात को लापता हो गया। रोते-रोते नन्‍हों की आँखें सूज गईं। मेरा कोई न होगा, मैं अकेली रहने के लिए ही जन्‍मी हूँ। वह अपने को धिक्‍कारती, कलपती। कभी मन पूछता - पर इसमें मेरी क्‍या गलती थी, मैं तो गादी देखने-भर चली गई थी, कौन नहीं गई थी वहाँ, मैंने क्‍या कर दिया था ऐसा। हाँ, गलती जरूर थी। मैं विधवा हूँ, उत्‍सव-तमाशा मेरे लिए नहीं है।


'बबुआ नहीं हैं क्‍या?' दूसरे दिन शाम को कमारी ने पूछा था, 'देखो दुलहिन, मेरी बात मानो, सुभग से ब्‍याह कर लो, तुम्‍हारी जात में यह मना भी नहीं है, कब तक ऐसे रहोगी...।'


'चुप रह...।' नन्‍हों ने उसे बरज दिया था। दूसरे ही क्षण शरम से गड़ गई थी। जाने क्‍यों लोग मन के छुपे राज को भाँप लेते हैं। जिसे जितना छिपाओ, उसे उतनी ही जल्‍दी लोग खींच कर सामने कर देते हैं।


'चुप तो रहूँगी दुलहिन, पर पछताओगी, ऐसा दूल्‍हा हाथ न आएगा। वह जिंदगी-भर तुम्‍हारे लिए कुँवारा नहीं बैठा रहेगा, ऐसा मौका हमेशा नहीं आता...' तुम्‍हारे बाबूजी ने उसी को देखा था, मिसरीलाल से तो ब्‍याह धोखे से हुआ।'


'मैं कहती हूँ चुप कर...।' नन्‍हों की आखें डबडबा आईं - 'मेरी जिनगानी में धोखा ही मिला है, तो उसे कौन मेट सकता है।'


कमारी सकपका कर चुप हो गई। आँसुओं की धार सँभालना उसके वश के बाहर था। वह चुपचाप दरवाजा भेड़ कर चली गई।


'नन्‍हों चाची, नन्‍हों चाची...' दुकान से कोई लड़का चीख रहा था, नन्‍हों माची पर से उठी और दुकान की ओर लपक कर चली।


'क्‍या है रे - क्‍यों चीख रहा है ऐसे?'


'यह देखो, किसना बेर ले कर भाग रहा है...' जन्‍नू ने हकलाते हुए कहा। वह ललचाई आँखों से लाल-लाल बेरों से भरी टोकरी को देख रहा था।


'अच्‍छा, भाग रहा है तो भागने दे, तू भी ले और भाग यहाँ से, हल्‍ला मत मचाओ यहाँ।' लड़के जेबों में बेर भर खिलखिलाते हुए बाहर चले गए। नन्‍हों ने दरवाजा बंद कर लिया और रसोई में चली गई।


कलकत्‍ते की गाड़ी शाम सात बजे के करीब आती थी। नन्‍हों आँगन में चारपाई डाले लेटी थी। झिलँगी चारपाई थी, मूँज की। पैरों में रेशों की चुभन अजीब लगती। हवा पहले जैसी सर्द न थी। हल्‍की गर्मी गुलाबी रंग की तरह हर झकोरे में समाई हुई थी। नन्‍हों के खुले हुए काले बाल सिरहाने की पाटी से जमीन तक लटके हुए थे। वह चुपचाप नीले आसमान के तारों को देख रही थी। आँगन की पूर्वी दीवार की आड़ से शायद चाँद निकल रहा होगा, क्‍योंकि उजला-उजला ढेर-सा प्रकाश मुँडेरे की छाजन पर मिट्टी की पटरियों से टकरा कर चमक रहा था।


साँकल खड़की।


'भौजी।'


सुभग पाँच साल के बाद लौटा था।


नन्‍हों ने दरवाजा खोला। सुभग था सामने। अँधेरे में वह उसे देखती रही।


'आ जाओ।' पंखुड़ियों के चिटकने जैसी आवाज सन्‍नाटे में उभर कर खो गई। दोनों बिलकुल खामोश थे। रामसुभग आँगन की चारपाई पर आ कर बैठ गया। एक अजीब सन्‍नाटा दोनों को घेर कर बैठ गया था।


खा-पी कर रामसुभग जब सोने के लिए अपनी चारपाई पर गया, तो माची खींच कर नन्हों उसके पास ही बैठ गई।


'क्‍यों बाबू, बहुत दिनों के बाद सुध ली।' नन्‍हों ने ही बात शुरू की - 'बहुत दुबले हो गए हो, बीमार तो नहीं थे?'


'नहीं तो,' रामसुभग बोला - 'पाँच साल तक भुलाने की कोशिश करता रहा भौजी, पर भूलता नहीं। मैंने कई बार सोचा कि चल कर तुमसे माफी माँग लूँ, पर हिम्‍मत न हुई। अब की मैंने तय किया कि जो कहना है कह ही जाऊँ। मैंने अनजाने में गलती कर दी भौजी। मैं नहीं जानता था कि मेरी तनिक-सी गलती इतना फल देगी। मैंने जो कुछ किया मिसरी भैया की खुशी के लिए ही, पर कसूर तो है ही, चाहे वह जैसे भी मन से हो।' रामसुभग ने जमीन पर देखते हुए कहा - 'मेरे कसूर को तुम ही माफ कर सकती हो।'


'कसूर कैसा लाला, तुम जिसे कसूर कहते हो वह मेरे भाग्‍य का फल था। तुम समझते हो कि बाबूजी को कुछ नहीं मालूम था। मालूम तो उन्‍हें भी हो गया जब डोला भेजने की बात हुई। बिगड़नेवाली बात को सभी पहले से जान लेते हैं बाबू, जिनके पास बल है उसे नहीं होने देते, जो कमजोर है उसे धोखा कह कर छिपाते हैं। बाबू को सब मालूम हो गया था, पर अच्‍छे घर के लिए जो चाहिए वह बाबू कहाँ से लाते। इसमें तुम तो एक बहाना बन गए, तुम्‍हारा क्‍या कसूर है इसमें...।' नन्‍हों ने आँचल से आँखें पोंछ लीं। रामसुभग बेवकूफ की तरह आँखें फाड़ कर अँधेरे में नन्‍हों को देखता रहा।


'अच्‍छा बाबू, थके हो, सबेरे बातें कर लूँगी।' नन्‍हों उठ कर अपने घर में चली गई।


रामसुभग तीन दिन तक रहा। तीन दिनों में शायद ही वह एक-दो बार गाँव में घूमने गया। दिन-रात नन्‍हों से बातें करना ही उसका काम था - दुनिया-भर की बातें, कलकत्‍ते की, बाप की, माँ की, भाइयों और भौजाइयों की। नन्‍हों रामसुभग को एकदम बदली हुई लगती। उसकी आँखों में जब पहले-जैसी तीखी चमक नहीं थी, उसके स्‍थान पर ममता और स्‍नेह का जल भरा था। अब वह एकटक सुनसान कोने को नहीं देखती थी, पर बरौनियों में नमी अब भी पहले जैसी ही थी। नन्‍हों को इस नए रूप में देख कर सुभग का मन नई आशा से भरने लगा। तो क्‍या यह सब हो जाएगा - क्‍या भाग्‍य की गणना फिर सही हो जाएगी? पर नन्‍हों से कुछ कह पाना उसके लिए सदा ही कठिन रहा है। वह आज भी पिछली दो घटनाओं को भूला नहीं था, पर नन्‍हों भी तो ऐसी पहले न थी।


आज नन्‍हों को फिर पुरानी बातें याद आ रही हैं। रैदास के गीत की पंक्ति न जाने फिर क्‍यों बार-बार याद आने लगी है।


'जो तुम तोरहु तो हम नाहिं तोरहिं, तुम सों तोर कवन सों जोरहिं?'


वह खुश है, प्रसन्‍न है। पर रामसुभग को चैन नहीं। शायद चलने की बात करूँ तो वह कुछ खुल के कहेगी। इसी आशा से उस दिन सुबह ही सुभग ने कहा - 'भौजी, अब मैं गाँव जाऊँगा, आज रातवाली गाड़ी से।'


'क्‍यों बाबू, मन नहीं लग रहा है?'


'मन तो लग रहा है... पर...।'


'अच्‍छा, ठीक है।'


रामसुभग इस उत्‍तर से कुछ समझ न सका। वह मन-मारे अपने कमरे में बैठा रहा। शायद चलते वक्‍त कुछ कहे, शायद फिर लौट आने के लिए आग्रह करे।


शाम को अपना सामान बाँध कर जब सुभग तैयार हुआ, तो नन्‍हों अपने घर से निकल कर आई।


'तैयारी हो गई लाला?'


'हाँ।'


नन्‍हों ने आँचल से हाथ निकाला और रामसुभग की ओर हाथ बढ़ा कर कहा - 'यह तुम्‍हारा रूमाल है लाला।'


रामसुभग काठ की तरह निश्‍चेष्‍ट हो गया - 'पर इसे तो मैंने 'मुँहदेखाई' में दे दिया था भाभी।'


'बाबू ने तुम्‍हारा मुँह देख कर अनदेखा सुहाग सौंपा था, तुम्‍हारी माँ ने उसी के अमर रहने के लिए रुपए दिए थे आशीर्वाद में। बड़ों ने जो दिया उसे मैंने माथे पर ले लिया। मैं कमजोर थी बाबू, भाग्‍य से हार गई। पर आज तो मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ, आज मुझे तुम हारने मत दो। तुम्‍हारा रूमाल मेरे पाँव बाँध देता है लाला, इसी से लौटा रही हूँ, बुरा न मानना ।'


रामसुभग ने धीरे से रूमाल ले लिया। नन्‍हों उसका जाना भी देख न सकी। आँखें जल में तैर रही थीं। दीए की लौ जटामासी के फूल की तरह कई फाँकों में बँट गई। नन्‍हों ने किवाड़ तो बंद कर लिया, पर साँकल न चढ़ा सकी।


रसप्रिया


फणीश्वरनाथ रेणु


 


धूल में पड़े कीमती पत्थर को देख कर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई - अपरूप-रूप!


चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया की मुँह से निकल पड़ा - अपरुप-रुप!


...खेतों, मैदानों, बाग-बगीचों और गाय-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुंदरता!


मिरदंगिया की क्षीण-ज्योति आँखें सजल हो गईं।


मोहना ने मुस्करा कर पूछा, 'तुम्हारी उँगली तो रसपिरिया बजाते टेढ़ी हो गई है, है न?'


'ऐ!' - बूढ़े मिरदंगिया ने चौंकते हुए कहा, 'रसपिरिया? ...हाँ ...नहीं। तुमने कैसे ...तुमने कहाँ सुना बे...?'


'बेटा' कहते-कहते रुक गया। ...परमानपुर में उस बार एक ब्राह्मण के लड़के को उसने प्यार से 'बेटा' कह दिया था। सारे गाँव के लड़कों ने उसे घेर कर मारपीट की तैयारी की थी - 'बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेर कर! ...मृदंग फोड़ दो।'


मिरदंगिया ने हँस कर कहा था, 'अच्छा, इस बार माफ कर दो सरकार! अब से आप लोगों को बाप ही कहूँगा!'


बच्चे खुश हो गये थे। एक दो-ढाई साल के नंगे बालक की ठुड्‌डी पकड़ कर वह बोला था, 'क्यों, ठीक है न बाप जी?'


बच्चे ठठा कर हँस पड़े थे।


लेकिन, इस घटना के बाद फिर कभी उसने किसी बच्चे को बेटा कहने की हिम्मत नहीं की थी। मोहना को देख कर बार-बार बेटा कहने की इच्छा होती है।


'रसपिरिया की बात किसने बताई तुमसे? ...बोलो बेटा!'


दस-बारह साल का मोहना भी जानता है, पँचकौड़ी अधपगला है। ...कौन इससे पार पाए! उसने दूर मैदान में चरते हुए अपने बैलों की ओर देखा।


मिरदंगिया कमलपुर के बाबू लोगों के यहाँ जा रहा था। कमलपुर के नंदूबाबू के घराने में भी मिरदंगिया को चार मीठी बातें सुनने को मिल जाती हैं। एक-दो जून भोजन तो बँधा हुआ ही है, कभी-कभी रसचरचा भी यहीं आ कर सुनता है वह। दो साल के बाद वह इस इलाके में आया है। दुनिया बहुत जल्दी-जल्दी बदल रही है। ...आज सुबह शोभा मिसर के छोटे लड़के ने तो साफ-साफ कह दिया - 'तुम जी रहे हो या थेथरई कर रहे हो मिरदंगिया?'


हाँ, यह जीना भी कोई जीना है! निर्लज्जता है, और थेथरई की भी सीमा होती है। ...पंद्रह साल से वह गले में मृदंग लटका कर गाँव-गाँव घूमता है, भीख माँगता है। ...दाहिने हाथ की टेढ़ी उँगली मृदंग पर बैठती ही नहीं है, मृदंग क्या बजाएगा! अब तो, 'धा तिंग धा तिंग' भी बड़ी मुश्किल से बजाता है। ...अतिरिक्त गाँजा-भाँग सेवन से गले की आवाज विकृत हो गई है। किंतु मृदंग बजाते समय विद्यापति की पदावली गाने की वह चेष्टा अवश्य करेगा। ...फूटी भाथी से जैसी आवाज निकलती है, वैसी ही आवाज-सों-य,सों-य!


पंद्रह-बीस साल पहले तक विद्यापति नाम की थोड़ी पूछ हो जाती थी। शादी-ब्याह, यज्ञ-उपनैन, मुंडन-छेदन आदि शुभ कार्यों में विदपतिया मंडली की बुलाहट होती थी। पँचकौड़ी मिरदंगिया की मंडली ने सहरसा और पूर्णिया जिले में काफी यश कमाया है। पँचकौड़ी मिरदंगिया को कौन नहीं जानता! सभी जानते हैं, वह अधपगला है! ...गाँव के बड़े-बूढ़े कहते हैं - 'अरे, पँचकौड़ी मिरदंगिया का भी एक जमाना था!'


इस जमाने में मोहना-जैसा लड़का भी है - सुंदर, सलोना और सुरीला! ...रसप्रिया गाने का आग्रह करता है, 'एक रसपिरिया गाओ न मिरदंगिया!'


'रसपिरिया सुनोगे? ...अच्छा सुनाऊँगा। पहले बताओ, किसने...'


'हे-ए-ए-हे-ए... मोहना, बैल भागे...!' एक चरवाहा चिल्लाया, 'रे मोहना, पीठ की चमड़ी उधेड़ेगा करमू!'


'अरे बाप!' मोहना भागा।


कल ही करमू ने उसे बुरी तरह पीटा है। दोनों बैलों को हरे-हरे पाट के पौधों की महक खींच ले जाती है बार-बार। ...खटमिट्ठाल पाट!


पँचकौड़ी ने पुकार कर कहा, 'मैं यहीं पेड़ की छाया में बैठता हूँ। तुम बैल हाँक कर लौटो। रसपिरिया नहीं सुनोगे?'


मोहना जा रहा था। उसने उलट कर देखा भी नहीं।


रसप्रिया!


विदापत नाचवाले रसप्रिया गाते थे। सहरसा के जोगेंदर झा ने एक बार विद्यापति के बारह पदों की एक पुस्तिका छपाई थी। मेले में खूब बिक्री हुई थी रसप्रिया पोथी की। विदापत नाचवालों ने गा-गा कर जनप्रिया बना दिया था रसप्रिया को।


खेत के 'आल' पर झरजामुन की छाया में पँचकौड़ी मिरदंगिया बैठा हुआ है, मोहना की राह देख रहा है। ...जेठ की चढ़ती दोपहरी में काम करनेवाले भी अब गीत नहीं गाते हैं। ...कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूकना भूल जाएगी क्या? ऐसी दोपहरी में चुपचाप कैसे काम किया जाता है! पाँच साल पहले तक लोगों के दिल में हुलास बाकी था। ...पहली वर्षा में भीगी हुई धरती के हरे-हरे पौधों से एक खास किस्म की गंध निकलती है। तपती दोपहरी में मोम की तरह गल उठती थी - रस की डाली। वे गाने लगते थे बिरहा, चाँचर, लगनी। खेतों में काम करते हुए गानेवाले गीत भी समय-असमय का खयाल करके गाए जाते हैं। रिमझिम वर्षा में बारहमासा, चिलचिलाती धूप में बिरहा, चाँचर और लगनी -


'हाँ... रे, हल जोते हलवाहा भैया रे...'


खुरपी रे चलावे... म-ज-दू-र!


एहि पंथे, धनी मोरा हे रुसलि...।


खेतों में काम करते हलवाहों और मजदूरों से कोई बिरही पूछ रहा है, कातर स्वर में - उसकी रुठी हुई धनी को इस राह से जाते देखा है किसी ने?...


अब तो दोपहरी नीरस कटती है, मानो किसी के पास एक शब्द भी नहीं रह गया है।


आसमान में चक्कर काटते हुए चील ने टिंहकारी भरी - टिं...ई...टिं-हि-क!


मिरदंगिया ने गाली दी - 'शैतान!'


उसको छोड़ कर मोहना दूर भाग गया है। वह आतुर होकर प्रतीक्षा कर रहा है। जी करता है, दौड़ कर उसके पास चला जाए। दूर चरते हुए मवेशियों के झुंडों की ओर बार-बार वह बेकार देखने की चेष्टा करता है। सब धुँधला!


उसने अपनी झोली टटोल कर देखा - आम हैं, मूढ़ी है। ...उसे भूख लगी। मोहन के सूखे मुँह की याद आई और भूख मिट गई।


मोहना-जैसे सुंदर, सुशील लड़कों की खोज में ही उसकी जिंदगी के अधिकांश दिन बीते हैं। ...विदापत नाच में नाचनेवाले 'नटुआ' का अनुसंधान खेल नहीं। ...सवर्णों के घर में नहीं, छोटी जाति के लोगों के यहाँ मोहना-जैसे लड़की-मुँहा लड़के हमेशा पैदा नहीं होते। ये अवतार लेते हैं समय-समय पर जदा जदा हि...


मैथिल ब्राह्मणों, कायस्थों और राजपूतों के यहाँ विदापतवालों की बड़ी इज्जत होती थी। ...अपनी बोली - मिथिलाम - में नटुआ के मुँह से 'जनम अवधि हम रुप निहारल' सुन कर वे निहाल हो जाते थे। इसलिए हर मंडली का 'मूलगैन' नटुआ की खोज में गाँव-गाँव भटकता फिरता था - ऐसा लड़का, जिसे सजा-धजा कर नाच में उतारते ही दर्शकों में एक फुसफुसाहट फैल जाए।


'ठीक ब्राह्मणी की तरह लगता है। है न?'


'मधुकांत ठाकुर की बेटी की तरह...।'


'नः! छोटी चंपा-जैसी सुरत है!'


पँचकौड़ी गुनी आदमी है। दूसरी-दूसरी मंडली में मूलगैन और मिरदंगिया की अपनी-अपनी जगह होती है। पँचकौड़ी मूलगैन भी था और मिरदंगिया भी। गले में मृदंग लटका कर बजाते हुए वह गाता था, नाचता था। एक सप्ताह में ही नया लड़का भाँवरी दे कर परवेश में उतरने योग्य नाच सीख लेता था।


नाच और गाना सिखाने में कभी कठिनाई नहीं हुई, मृदंग के स्पष्ट 'बोल' पर लड़कों के पाँव स्वयं ही थिरकने लगते थे। लड़कों के जिद्दी माँ-बाप से निबटना मुश्किल व्यापार होता था। विशुद्ध मैथिली में और भी शहद लपेट कर वह फुसलाता...


'किसन कन्हैया भी नाचते थे। नाच तो एक गुण है। ...अरे, जाचक कहो या दसदुआरी। चोरी डकैती और आवारागर्दी से अच्छा है। अपना-अपना 'गुन' दिखा कर लोगों को रिझा कर गुजारा करना।'


एक बार उसे लड़के की चोरी भी करनी पड़ी थी। ...बहुत पुरानी बात है। इतनी मार लगी थी कि ...बहुत पुरानी बात है।


पुरानी ही सही, बात तो ठीक है।


'रसपिरिया बजाते समय तुम्हारी उँगली टेढ़ी हुई थी। ठीक है न?'


मोहना न जाने कब लौट आया।


मिरदंगिया के चेहरे पर चमक लौट आई। वह मोहना की ओर एक टकटकी लगा कर देखने लगा ...यह गुणवान मर रहा है। धीरे-धीरे, तिल-तिल कर वह खो रहा है। लाल-लाल होठों पर बीड़ी की कालिख लग गई है। पेट में तिल्ली है जरुर!...


मिरदंगिया वैद्य भी है। एक झुंड बच्चों का बाप धीरे-धीरे एक पारिवारिक डॉक्टर की योग्यता हासिल कर लेता है। ...उत्सवों के बासीटटका भोज्यान्नों की प्रतिक्रिया कभी-कभी बहुत बुरी होती। मिरदंगिया अपने साथ नमक-सुलेमानी, चानमार-पाचन और कुनैन की गोली हमेशा रखता था। ...लड़कों को सदा गरम पानी के साथ हल्दी की बुकनी खिलाता। पीपल, काली मिर्च, अदरक वगैरह को घी में भून कर शहद के साथ सुबह-शाम चटाता। ...गरम पानी!


पोटली से मूढ़ी और आम निकालते हुए मिरदंगिया बोला, 'हाँ, गरम पानी! तेरी तिल्ली बढ़ गई है, गरम पानी पियो।'


'यह तुमने कैसे जान लिया? फारबिसगंज के डागडरबाबू भी कह रहे थे, तिल्ली बढ़ गई है। दवा...।'


आगे कहने की जरूरत नहीं। मिरदंगिया जानता है, मोहना-जैसे लड़कों के पेट की तिल्ली चिता पर ही गलती है! क्या होगा पूछ कर, कि दवा क्यों नहीं करवाते!


'माँ, भी कहती है, हल्दी की बुकनी के साथ रोज गरम पानी। तिल्ली गल जाएगी।'


मिरदंगिया ने मुस्करा कर कहा, 'बड़ी सयानी है तुम्हारी माँ!'


केले के सूखे पतले पर मूढ़ी और आम रख कर उसने बड़े प्यार से कहा, 'आओ, एक मुट्ठी खा लो।'


'नहीं, मुझे भूख नहीं।'


किंतु मोहना की आँखों से रह-रह कर कोई झाँकता था, मूढ़ी और आम को एक साथ निगल जाना चाहता था। ...भूखा, बीमार, भगवान!


'आओ, खा लो बेटा! ...रसपिरिया नहीं सुनोगे?'


माँ के सिवा, आज तक किसी अन्य व्यक्ति ने मोहना को इस तरह प्यार से कभी परोसे भोजन पर नहीं बुलाया। ...लेकिन, दूसरे चरवाहे देख लें तो माँ से कह देगें। ...भीख का अन्न!


'नहीं, मुझे भूख नहीं।'


मिरदंगिया अप्रतिभ हो जाता है। उसकी आँखें फिर सजल हो जाती हैं। मिरदंगिया ने मोहना - जैसे दर्जनों सुकुमार बालकों की सेवा की है। अपने बच्चों को भी शायद वह इतना प्यार नहीं दे सकता। ...और अपना बच्चा! हूँ! ...अपना-पराया? अब तो सब अपने, सब पराए।...


'मोहना!'


'कोई देख लेगा तो?'


'तो क्या होगा?'


'माँ से कह देगा। तुम भीख माँगते हो न?'


'कौन भीख माँगता है?' मिरदंगिया के आत्म-सम्मान को इस भोले लड़के ने बेवजह ठेस लगा दी। उसके मन की झाँपी में कुडंलीकार सोया हुआ साँप फन फैला कर फुफकार उठा, 'ए-स्साला! मारेंगे वह तमाचा कि...


'ऐ! गाली क्यों देते हो!' मोहना ने डरते-डरते प्रतिवाद किया।


वह उठ खड़ा हुआ, पागलों का क्या विश्वास।


आसमान में उड़ती हुई चील ने फिर टिंहकारी भरी ...टिंही ...ई ...टिं-टिं-ग!


'मोहना!' मिरदंगिया की अवाज गंभीर हो गई।


मोहना जरा दूर जा कर खड़ा हो गया।


'किसने कहा तुमसे कि मैं भीख माँगता हूँ? मिरदंग बजा कर, पदावली गा कर, लोगों को रिझा कर पेट पालता हूँ। ...तुम ठीक कहते हो, भीख का ही अन्न है यह। भीख का ही फल है यह। ...मै नहीं दूँगा। ...तुम बैठो, मैं रसपिरिया सुना दूँ।'


मिरदंगिया का चेहरा धीरे-धीरे विकृत हो रहा है। ...आसमान में उड़नेवाली चील अब पेड़ की डाली पर आ बैठी है। ...टिं-टिं-हिं टिंटिक!


मोहना डर गया। एक डग, दो डग ...दे दौड़। वह भागा।


एक बीघा दूर जा कर उसने चिल्लाकर कहा, 'डायन ने बान मार कर तुम्हारी उँगली टेढ़ी कर दी है। झूठ क्यों कहते हो कि रसपिरिया बजाते समय...'


'ऐं! कौन है यह लड़का? कौन है यह मोहना? ...रमपतिया भी कहती थी, डायन ने बान मार दिया है।'


'मोहना!'


मोहना ने जाते-जाते चिल्ला कर कहा, 'करैला!' अच्छा, तो मोहना यह भी जानता है कि मिरदंगिया 'करैला' कहने से चिढ़ता है! ...कौन है यह मोहना?


मिरदंगिया आतंकित हो गया। उसके मन में एक अज्ञात भय समा गया। वह थर-थर काँपने लगा। उसमें कमलपुर के बाबुओं के यहाँ जाने का उत्साह भी नहीं रहा। ...सुबह शोभा मिसर के लड़के ने ठीक ही कहा था।


उसकी आँखों में आँसू झरने लगे।


जाते-जाते मोहना डंक मार गया। उसके अधिकांश शिष्यों ने ऐसा ही व्यवहार किया है उसके साथ। नाच सीख कर फुर्र से उड़ जाने का बहाना खोजनेवाले एक-एक लड़के की बातें उसे याद हैं।


सोनमा ने तो गाली ही दी थी - 'गुरुगिरी कहता है, चोट्टा!'


रमपतिया आकाश की ओर हाथ उठा कर बोली थी - 'हे दिनकर! साच्छी रहना। मिरदंगिया ने फुसला कर मेरा सर्वनाश किया है। मेरे मन में कभी चोर नहीं था। हे सुरुज भगवान! इस दसदुआरी कुत्ते का अंग-अंग फूट कर...।'


मिरदंगिया ने अपनी टेढ़ी उँगली को हिलाते हुए एक लंबी साँस ली। ...रमपतिया? जोधन गुरुजी की बेटी रमपतिया! जिस दिन वह पहले-पहल जोधन की मंडली में शामिल हुआ था - रमपतिया बारहवें में पाँव रख रही थी। ...बाल-विधवा रमपतिया पदों का अर्थ समझने लगी थी। काम करते-करते वह गुनगुनाती - 'नव अनुरागिनी राधा, किछु नाँहि मानय बाधा।'...मिरदंगिया मूलगैनी सीखने गया था और गुरु जी ने उसे मृदंग थमा दिया था... आठ वर्ष तक तालीम पाने के बाद जब गुरु जी ने स्वजात पँचकौड़ी से रमपतिया के चुमौना की बात चलाई तो मिरदंगिया सभी ताल-मात्रा भूल गया। जोधन गुरु जी से उसने अपनी जात छिपा रखी थी। रमपतिया से उसने झूठा परेम किया था। गुरु जी की मंडली छोड़ कर वह रातों-रात भाग गया। उसने गाँव आ कर अपनी मंडली बनाई, लड़कों को सिखाया-पढ़ाया और कमाने-खाने लगा। ...लेकिन, वह मूलगैन नहीं हो सका कभी। मिरदंगिया ही रहा सब दिन। ...जोधन गुरु जी की मृत्यु के बाद, एक बार गुलाब-बाग मेले में रमपतिया से उसकी भेंट हुई थी। रमपतिया उसी से मिलने आई थी। पँचकौड़ी ने साफ जवाब दे दिया था - 'क्या झूठ-फरेब जोड़ने आई है? कमलपुर के नंदूबाबू के पास क्यों नहीं जाती, मुझे उल्लू बनाने आई है। नंदूबाबू का घोड़ा बारह बजे रात को...।' चीख उठी थी रमपतिया - पाँचू! ...चुप रहो!'


उसी रात रसपिरिया बजाते समय उसकी उँगली टेढ़ी हो गई थी। मृदंग पर जमनिका दे कर वह परबेस का ताल बजाने लगा। नटुआ ने डेढ़ मात्रा बेताल हो कर प्रवेश किया तो उसका माथा ठनका। परबेस के बाद उसने नटुआ को झिड़की दी - 'एस्साला! थप्पड़ों से गाल लाल कर दूँगा।'...और रसपिरिया की पहली कड़ी ही टूट गई। मिरदंगिया ने ताल को सम्हालने की बहुत चेष्टा की। मृदंग की सूखी चमड़ी जी उठी, दाहिने पूरे पर लावा-फरही फूटने लगे और तल कटते-कटते उसकी उँगली टेढ़ी हो गई। झूठी टेढ़ी उँगली! ...हमेशा के लिए पँचकौड़ी की मंडली टूट गई। धीरे-धीरे इलाके से विद्यापति-नाच ही उठ गया। अब तो कोई भी विद्यापति की चर्चा भी नहीं करते हैं। ...धूप-पानी से परे, पँचकौड़ी का शरीर ठंडी महफिलों में ही पनपा था... बेकार जिंदगी में मृदंग ने बड़ा काम दिया। बेकारी का एकमात्र सहारा - मृदंग!


एक युग से वह गले में मृदंग लटका कर भीख माँग रहा है - धा-तिंग, धा-तिंग!


वह एक आम उठा कर चूसने लगा - लेकिन, लेकिन, ...लेकिन ...मोहना को डायन की बात कैसे मालूम हुई?


उँगली टेढ़ी होने की खबर सुन कर रमपतिया दौड़ी आई थी, घंटों उँगली को पकड़ कर रोती रही थी - 'हे दिनकर, किसने इतनी बड़ी दुश्मनी की? उसका बुरा हो। ...मेरी बात लौटा दो भगवान! गुस्से में कही हुई बातें। नहीं, नहीं। पाँचू, मैंने कुछ भी नहीं किया है। जरुर किसी डायन ने बान मार दिया है।'


मिरदंगिया ने आँखें पोंछते हुए सूरज की ओर देखा। ...इस मृदंग को कलेजे से सटा कर रमतपिया ने कितनी रातें काटी हैं! ...मिरदंग को उसने अपने छाती से लगा लिया।


पेड़ की डाली पर बैठी हुई चील ने उड़ते हुए जोड़े से कहा - टिं-टिं-हिंक्‌!


'एस्साला!'उसने चील को गाली दी। तंबाकू चुनिया कर मुँह में डाल ली और मृदंग के पूरे पर उँगलियाँ नचाने लगा - धिरिनागि, धिरिनागि, धिरिनागि-धिनता!


पूरी जमनिका वह नहीं बजा सका। बीच में ही ताल टूट गया।


-अ‌‌‌-कि-हे-ए-ए-हा-आआ-ह-हा!


सामने झरबेरी के जंगल के उस पार किसी ने सुरीली आवाज में, बड़े समारोह के साथ रसप्रिया की पदावली उठाई -


'न-व-वृंदा-वन, न-व-न-व-तरु-ग-न, न-व-नव विकसित फूल...'


मिरदंगिया के सारे शरीर में एक लहर दौड़ गई उसकी उँगलियाँ स्वयं ही मृदंग के पूरे पर थिरकने लगीं। गाय-बैलों के झुंड दोपहर की उतरती छाया में आ कर जमा होने लगे।


खेतों में काम करनेवालों ने कहा, 'पागल है। जहाँ जी चाहा, बैठ कर बजाने लगता है।'


'बहुत दिन के बाद लौटा है।'


'हम तो समझते थे कि कहीं मर-खप गया।'


रसप्रिया की सुरीली रागिनी ताल पर आ कर कट गई। मिरदंगिया का पागलपन अचानक बढ़ गया। वह उठ कर दौड़ा। झरबेरी की झाड़ी के उस पार कौन है? कौन है यह शुद्ध रसप्रिया गानेवाला? इस जमाने में रसप्रिया का रसिक...? झाड़ी में छिप कर मिरदंगिया ने देखा, मोहना तन्मय होकर दूसरे पद की तैयारी कर रहा है। गुनगुनाहट बंद करके उसने गले को साफ किया। मोहना के गले में राधा आ कर बैठ गई है! ...क्या बंदिश है!


'न-वी-वह नयनक नी...र!


आहो...पललि बहए ताहि ती...र!'


मोहना बेसुध होकर गा रहा था। मृदंग के बोल पर वह झूम-झूम कर गा रहा था। मिरदंगिया की आँखें उसे एकटक निहार रही थीं और उसकी उँगलियाँ फिरकी की तरह नाचने को व्याकुल हो रही थीं। ...चालीस वर्ष का अधपागल युगों के बाद भावावेश में नाचने लगा। ...रह-रह कर वह अपनी विकृत आवाज में पदों की कड़ी धड़ता - फोंय-फोंय, सोंय-सोंय!


धिरिनागि-धिनता!


'दुहु रस...म...य तनु-गुने नहीं ओर।


लागल दुहुक न भाँगय जो-र।'


मोहना के आधे काले और आधे लाल होंठों पर नई मुस्कराहट दौड़ गई। पद समाप्त। करते हुए वह बोला, 'इस्स! टेढ़ी उँगली पर भी इतनी तेजी?'


मोहना हाँफने लगा। उसकी छाती की हड्डियाँ!


...उफ! मिरदंगिया धम्म से जमीन पर बैठ गया - 'कमाल! कमाल!...किससे सीखे? कहाँ सीखी तुमने पदावली? कौन है तुम्हारा गुरु?'


मोहना ने हँस कर जवाब दिया, 'सीखूँगा कहाँ? माँ तो रोज गाती है। ...प्रातकी मुझे बहुत याद है, लेकिन अभी तो उसका समय नहीं।'


'हाँ बेटा! बेताले के साथ कभी मत गाना-बजाना। जो कुछ भी है, सब चला जाएगा। ...समय-कुसमय का भी खयाल रखना। लो,अब आम खालो।'


मोहना बेझिझक आम ले कर चूसने लगा।


'एक और लो।'


मोहना ने तीन आम खाए और मिरदंगिया के विशेष आग्रह पर दो मुट्ठी मूढ़ी भी फाँक गया।


'अच्छा, अब एक बात बताओगे मोहना! तुम्हारे माँ-बाप क्या करते हैं?'


'बाप नहीं है, अकेली माँ है। बाबू लोगों के घर कुटाई-पिसाई करती है।'


'और तुम नौकरी करते हो! किसके यहाँ?'


'कमलपुर के नंदूबाबू के यहाँ।'


'नंदूबाबू के यहाँ?'


मोहना ने बताया उसका घर सहरसा में है। तीसरे साल सारा गाँव कोसी मैया के पेट में चला गया। उसकी माँ उसे ले कर अपने ममहर आई है... कमलपुर।


'कमलपुर में तुम्हारी माँ के मामू रहते हैं?'


मिरदंगिया कुछ देर तक चुपचाप सूर्य की ओर देखता रहा। ...नंदूबाबू - मोहना - मोहना की माँ!


'डायनवाली बात तुम्हारी माँ कह रही थी?'


'हाँ।'


'और एक बार सामदेव झा के यहाँ जनेऊ में तुमने गिरधर-पटटी मडंलीवालों का मिरदंग छीन लिया था। ...बेताला बजा रहा था। ठीक है न?'


मिरदंगिया की खिचड़ी दाढ़ी मानो अचानक सफेद हो गई। उसने अपने को सम्हाल कर पूछा, 'तुम्हारे बाप का नाम क्या है?'


'अजोधादास!'


'अजोधादास?'


बूढ़ा अजोधादास, जिसके मुँह में न बोल, न आँख में लोर। ...मंडली में गठरी ढोता था। बिना पैसा का नौकर बेचारा अजोधादास!


'बड़ी सयानी है तुम्हारी माँ।' एक लंबी साँस ले कर मिरदंगिया ने अपनी झोली से एक छोटा बटुआ निकला। लाल-पीले कपड़ों के टुकड़ों को खोल कर कागज की एक पुड़िया निकाली उसने।


मोहना ने पहचान लिया - 'लोट? क्या है, लोट?'


'हाँ, नोट है।'


'कितने रुपएवाला है? पचटकिया। ऐं... दसटकिया? जरा छूने दोगे? कहाँ से लाए?' मोहना एक ही साँस में सब कुछ पूछ गया, 'सब दसटकिया हैं?'


'हाँ, सब मिला कर चालीस रुपए हैं।' मिरदंगिया ने एक बार इधर-उधर निगाहें दौड़ाई, फिर फुसफुसा कर बोला, 'मोहना बेटा! फारबिसगंज के डागडरबाबू को दे कर बढ़िया दवा लिखा लेना। ...खट्ट-मिट्ठा परहेज करना। ...गरम पानी जरुर पीना।'


'रुपए मुझे क्यों देते हो?'


'जल्दी रख ले, कोई देख लेगा।'


मोहना ने भी एक बार चारों ओर नजर दौड़ाई। उसके होंठों की कालिख और गहरी हो गई।


मिरदंगिया बोला, 'बीड़ी-तंबाकू भी पीते हो? खबरदार!'


वह उठ खड़ा हुआ।


मोहना ने रुपए ले लिए।


'अच्छी तरह गाँठ बाँध ले। माँ से कुछ मत कहना।'


'और हाँ, यह भीख का पैसा नहीं। बेटा, यह मेरी कमाई के पैसे हैं। अपनी कमाई के...।'


मिरदंगिया ने जाने के लिए पाँव बढ़ाया।


'मेरी माँ खेत में घास काट रही है। चलो न!' मोहना ने आग्रह किया।


मिरदंगिया रुक गया। कुछ सोच कर बोला, 'नहीं मोहना! तुम्हारे-जैसा गुणवान बेटा पा कर तुम्हारी माँ 'महारानी' हैं, मैं महाभिखारी दसदुआरी हूँ। जाचक, फकीर...! दवा से जो पैसे बचें, उसका दूध पीना।'


मोहना की बड़ी-बड़ी आँखें कमलपुर के नंदूबाबू की आँखों-जैसी हैं...।


'रे-मो-ह-ना-रे-हे! बैल कहाँ हैं रे?'


'तुम्हारी माँ पुकार रही है शायद।'


'हाँ। तुमने कैसे जान लिया?'


'रे-मोहना-रे-हे!'


एक गाय ने सुर-में-सुर मिला कर अपने बछड़े को बुलाया।


गाय-बैलों के घर लौटने का समय हो गया। मोहना जानता है, माँ बैल हाँक कर ला रही होगी। झूठ-मूठ उसे बुला रही है। वह चुप रहा।


'जाओ।' मिरदंगिया ने कहा, 'माँ बुला रही है। जाओ।...अब से मैं पदावली नहीं, रसपिरिया नहीं, निरगुन गाऊँगा। देखो, मेरी उँगली शायद सीधी हो रही है। शुद्ध रसपिरिया कौन गा सकता है आजकल?...


'अरे, चलू मन, चलू मन- ससुरार जइवे हो रामा,


कि आहो रामा,


नैहिरा में अगिया लगायब रे-की...।'


खेतों की पगडंडी, झरबेरी के जंगल के बीच होकर जाती है। निरगुन गाता हुआ मिरदंगिया झरबेरी की झाड़ियों में छिप गया।


'ले। यहाँ अकेला खड़ा होकर क्या करता है?' कौन बजा रहा था मृदंग रे?' घास का बोझा सिर पर ले कर मोहना की माँ खड़ी है।


'पँचकौड़ी मिरदंगिया।'


'ऐं, वह आया है? आया है वह?' उसकी माँ ने बोझ जमीन पर पटकते हुए पूछा।


'मैंने उसके ताल पर रसपिरिया गाया है। कहता था, इतना शुद्ध रसपिरिया कौन गा सकता है आजकल! ...उसकी उँगली अब ठीक हो जाएगी।


माँ ने बीमार मोहना को आह्लाद से अपनी छाती से सटा लिया।


'लेकिन तू तो हमेशा उसकी टोकरी-भर शिकायत करती थी - बेईमान है, गुरु-दरोही है, झूठा है!'


'है तो! वैसे लोगों की संगत ठीक नहीं। खबरदार, जो उसके साथ फिर कभी गया! दसदुआरी जाचकों से हेलमेल करके अपना ही नुकसान होता है। ...चल, उठा बोझ!'


मोहना ने बोझ उठाते समय कहा, 'जो भी हो, गुनी आदमी के साथ रसपिरिया...।'


'चौप! रसपिरिया का नाम मत ले।'


अजीब है माँ! जब गुस्साएगी तो वाघिन की तरह और जब खुश होती है तो गाय की तरह हुँकारती आएगी और छाती से लगा लेगी। तुरत खुश, तुरत नाराज...


दूर से मृदंग की आवाज आई - धा-तिंग, धा-तिंग!


मोहना की माँ खेत की ऊबड़-खाबड़ मेड़ पर चल रही थी। ठोकर खा कर गिरते-गिरते बची। घास का बोझ गिर कर खुल गया। मोहना पीछे-पीछे मुँह लटका कर जा रहा था। बोला, 'क्या हुआ, माँ?'


'कुछ नहीं।'


-धा-तिंग, धा-तिंग!


मोहना की माँ खेत की मेड़ पर बैठ गई। जेठ की शाम से पहले जो पुरवैया चलती है, धीरे-धीरे तेज हो गई ...मिटटी की सुंगध हवा में धीरे-धीरे घुलने लगी।


-धा-तिंग, धा-तिंग!


'मिरदंगिया और कुछ बोलता था, बेटा?' मोहना की माँ आगे कुछ बोल न सकी।


'कहता था, तुम्हारे-जैसा गुणवान बेटा...'


'झूठा, बेईमान!' मोहना की माँ आँसू पोंछ कर बोली, 'ऐसे लोगों की संगत कभी मत करना।'


मोहना चुपचाप खड़ा रहा।


Tuesday, November 19, 2019

चाय वाली ताई


आलोक त्यागी                                                   


पढ़ाई पूरी करते-करते मेरा चयन, एक प्रसिद्ध दवाई की कंपनी में सहायक मेडिकल आॅफिसर के लिए हो गया तो मैं हरिद्वार अपने बच्चों के साथ रहने लगा। मेरा काम आॅफिस के अतिरिक्त फील्ड में जाना भी है। अपनी नौकरी का कत्र्तव्य निभाने के लिए प्रत्येक माह कम से कम दो बार मैं क्षेत्र में जरूर जाता हूँ। मेरे कार्यक्षेत्र के एक कस्बे के सभी दवा विक्रेताओं से मेरी अच्छी जान पहचान भी हो गयी। जब भी किसी दवाई की दुकान पर संपर्क करने जाता हूँ या किसी डाॅक्टर से मिलता हूँ, तो चाय अवश्य ही झेलनी पड़ती है। 
यहां एक खास बात यह है कि डाॅक्टर चाय मंगवाए या दवा विक्रेता, आॅर्डर देने के दस मिनट में चाय लेकर हमेशा ताई ही आती है, चाय भी स्पेशल कुल्हड़ में, कम मीठी, इलायची और अदरक की मिलीजुली महक, कड़क पत्ताी, जो सारी थकान पलों में उतार देती। 
शुरू में तो मुझे सामान्य लगा लेकिन मेरे मन मंे जिज्ञासा हुई। मैंने एक दिन दवा विक्रेता से पूछा- आप हमेशा ताई से ही चाय क्यों मंगवाते हो, दुकानें तो और भी हैं? लेकिन सन्तोषजनक उत्तर न मिला। मैंने डाॅक्टर से भी पूछा मगर वह भी टालते से लगे तो मेरेे प्रश्न के उत्तरों की चाह ने, मुझे ताई की दुकान की ओर आकर्षित किया।
दुकान क्या? एक छोटा सा तख्त, उस पर कोने में रखा बिस्तर, कुछ बर्तन और ताई की दुकान का सामान। मैंने इधर-उधर नजरें दौड़ा कर देखा तो ताई ने कहा- 'बेटा! बैठने को कुछ नहीं मिलेगा। यहाँ चाय खड़े होकर ही पीनी पड़ेगी है। वैसे भी चाय खड़े होकर पीने के कई फायदे हैं।' ताई किसी दार्शनिक की भांति बोलती जा रही थी और मैं उनके सामान को एकटक देख रहा था। 
दुकान क्या वो मुझे ताई का घर लगा। मैं अभी देख ही रहा था कि ताई कब उठकर पड़ौसी की दुकान से कुर्सी ले आयी मुझे पता ही नहीं चला। ताई ने मेरा हाथ पकड़कर हिलाया- 'बैठो बेटा!' 
मैं जैसे निद्रा से जागा। ताई के पड़ौसी दुकानदार ने उत्सुकता से मुझे देखते हुए ताई से पूछ ही लिया-'कोई रिश्तेदार है क्या?'
मुझे लगा कि शायद मैं पहला व्यक्ति था जिसके लिए ताई कुर्सी ले कर आई थी। 
- 'नहीं भईया, ये तो अफसर हैं। कहते हुए ताई ने चाय का कुल्हड़ मेरे हाथ में पकड़ा दिया।
मेरे हाथ किसी मशीन की तरह चले जैसे कोई अनैच्छिक क्रिया हुई हो। अनैच्छिक क्रिया पर याद आ रहा है कि यह क्रिया रीढ़ के माध्यम से होती है। ऐसी क्रियाओं में दिमाग़ का कोई लेना देना नहीं होता है। मुझे उस दिन वास्तव में अहसास हुआ कि रीढ़ वाले लोगों को ही समाज में होना चाहिए। दिमाग़ वाले लोग क्या-क्या कर गुज़रते हैं यह कोई कहने या सुनने वाली बात नहीं है। 
ताई भी रीढ़ वाली थी। तभी तो वह मुझे बैठाने के लिए कुर्सी लेकर आई थी। पड़ौसी के पूछने के अंदाज से मैं अनुमान लगा चुका था कि ताई सबका इतना सम्मान नहीं करती, जितना कि उसने मेरा किया। मैं भी तो उसमें एक ऐसी औरत को तलाशने में जुटा था जो अपना स्वाभिमान बचाने के लिए तपती धूप में पत्थर तोड़ने से भी गुरेज नहीं करती है।
- 'बेटा बिस्कुट चलेगा या मठरी?' ताई ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
-हाँ-हाँ कुछ भी। अनायास ही मेरे मुंह से निकला। ताई ने प्लेट में रखी मठरी मेरे सामने रख दी तो मैंने बड़े ही सहज भाव से पूछा- 'ताई कब से यहाँ चाय की दुकान चलाती हो?'
ताई का चेहरा एकदम लाल-भभूका हो गया। ताई से ऐसी उम्मीद नहीं थी मुझे। ...लगा कि ताई की दुखती रग पे हाथ रखा गया है। ताई के चेहरे को देखकर मैं हत्प्रभ था। 
- 'चाय पियो चाय।' कहते हुए ताई ने मेरी ओर से अपना चेहरा घुमा लिया। मैं नहीं समझ पा रहा था कि आखिर मुझसे कौन सा अपराध हो गया है, बस एक साधारण सा प्रश्न ही तो किया था। मैं नहीं समझ पा रहा था कि मैं अब क्या करूं? मैंने किसी अबोध बच्चे की तरह मचलते हुए कहा- 'नहीं अम्मा! मैं तो पूछ कर ही रहँूंगा।'
सुनते ही क्रोध से तमतमाए और फिर एकदम से मुरझाए ताई के चेहरे को मैं देखता रह गया। परंतु धीरे से ताई ने अपनी सांसों और क्रोध पर असफल नियंत्रण पाने की कोशिश के साथ पूछा- 'क्या कहां?' और इसी के साथ उसके गले में जैसे कुछ अटक गया हो। आगे कुछ कहना चाहती थी मगर शब्दों ने उसके गले में ही दम तोड़ दिया। उसका गला भर आया। परंतु मैं भी अपने उस प्रश्न का उत्तर पाना चाहता था जिसके लिए मैं यहां आया था। सच कहूं तो इस प्रश्न ने पिछली कई रातों से मुझे सोने नहीं दिया। मैंने हिम्मत कर पुनः दोहराया- 'माँ! आज मैं पूछ कर ही रहूंँगा।'
मेरे दोबारा पूछने पर, ताई अपने आँसुओं को नहीं रोक पाई। रुक-रुक कर चल रहा स्टोव उसने बंद कर दिया और चेहरा छुपाकर अपने आँचल से आंसू पोछने लगी और एक क्षण में सामान्य होने का नाटक करने लगी। लेकिन आँसुओं की बरसात ने रुकने का नाम नहीं लिया। मेरे अंदर सैंकड़ों प्रश्न दौड़ने लगे- 'अगले टर्न पर पूछ लूंगा।' लेकिन मेरे पैरों ने भी चलने से इंकार कर दिया। इस सन्नाटे में हम दोनो शांत थे। तभी फोन की घंटी घनघना उठी। 
ताई ने फोन रिसीव किया, शायद चाय का आर्डर  था। ताई ने पुनः स्टोव चलाने का प्रयास किया लेकिन उसके हाथ काँप रहे थे। मैंने स्थिति को समझते हुए स्टोव जलाने में ताई की मदद की। ताई के आंसुओं की धार थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। मैं अजीब पसोपेश मे था, क्या कंरू? 
चाय उबल गयी कुल्हड़ में भी हो गई। ताई की स्थिति ऐसी थी कि वो चाय लेकर जा नहीं सकती थी।
मैंने पूछा-'चाय किस दुकान पर जानी है?'
उसने सामने की ओर इशारा किया- 'अजीत मेडिकल पर।'
मेरे पास उसका फोन नंबर था। मैंने फोन करके उससे बता दिया और उसका नौकर चाय लेकर चला गया। 
ताई ने सामान्य हो कर पूछा-'अब बताओ बाबूजी! क्या पूछना है?'
ताई के मुंह से अपने लिए बाबू जी शब्द सुनना अच्छा नहीं लग रहा था। मैंने उसे कुरेदने की गरज से पूछा-'क्या अपने बेटे को भी बाबू जी ही कहती हो?'
शायद ताई को भी मेरे द्वारा पूछे गए इस सवाल की उम्मीद नहीं थी। मुझे लगा कि वह दीपावली की रात में जलाए गए चिराग़ की सुबह सी हो गई है। उसका यूं मुरझाना मुझे कतई अच्छा नहीं लगा तो मैंने मनुहार भरे अंदाज में कहा-'बाबूजी नहीं बेटा कहो  माँ जी।'
ताई ने शिकारी के भय से छिपती हुई हिरनी की आंखों से मुझे देखा। मैं ताड़ गया कि वह बेहद परेशान है। उसकी परेशानी की वजह जानने के लिए मैं जैसे मरा जा रहा था।
-'आप कब से चाय की दुकान चलाती हैं?' मैंने धीरे से पूछा।
अबकी बार ताई ने जैसे मेरी मुराद पूरी करने का निर्णय ले ही लिया। उसने मेरी आंखों में झांकते हुए बताया-'बेटा कई बरस हो गये। तेरे ताऊ जी की मौत के बाद मैं अकेली हो गयी। 
-'आपका घर?' मैंने पूछा। 
-'घर भी था, खेती की जमीन भी थी।'
-'आपके बच्चे?'
-'हाँ है, मेरा बेटा दुबई में इंजीनियर है। मेरा विकासकृ...हमने कितने चाव से पढ़ाया, और वो पढ़ा भीकृ...सब कहते थे। विकास से होशियार कोई नहीं, उसने आईआईटी से पढ़ाई की और उसका नंबर नौकरी के लिए दुबई आ गया। ...वहीं रहता है।'
-'माँ! विकास आपको लेने नहीं आया?'
-'आया था, अपने पिताजी की मौत पर... 13 दिन रहा। बोला माँ अब यहाँ पर क्या है? मेरे साथ चलो ये घर और खेती की ज़मीन बेच देते हैं।... मैंने कहा-बेटा सब कुछ तो तेरा है। जैसा तेरा मन करे वैसा कर ले...।' कहते-कहते ताई का गला रुँध गया। उसने किसी तरह अपने आप पर काबू पाया और पुनः बताने लगी-'बस फिर क्या था? तेरे ताँऊ के अरमानांे के घर और उनकी कर्मभूमि, खेती की ज़मीन का सौदा होने लगा। मेरे सामने ही लहलहाती फसल को मानो कोई सैलाब बहा कर ले गया हो। मैंने हिम्मत करके विकास से कहा, घर मत बेचो, उसने समझाया, माँ हम सब तो विदेश में रहेंगे। इस घर का क्या करना? वैसे भी मिट्टी का ही तो है। मेरा तो जैसे कालेजा बैठ गया, हिम्मत करके मैंने कहा, बेटा तेरे बापू ने इसे अपने हाथों से इसे बनाया था। दिन-रात लगे रहते थे। उनकी निशानी है। लेकिन वह बोला, माँ जब पिता जी ही नहीं रहे तो अब इस घर की देखभाल कौन करेगा।' बताते हुए ताई की आंखों से पानी बहने लगा। मैं शांत ही रहा। मुझे पता था कि अब ताई पूरी बात बताएगी ही। उसकी बात सुनने के लिए मेरा शांत ही रहना बेहतर था। हुआ भी यही।
कुछ ही देर बाद वह बोलने लगी- 'और फिर उसने सब कुछ बेच दिया, बेटा!'
ताई के मुंह से निकलने वाले यह सात शब्द मानों कयामत हों। ताई के बोलने से  ऐसा लग रहा था कि मानों चंद्रयान दो मिशन पर विक्रम लैंडर नहीं उतर पाने का दुःख व्यक्त किया हो या फिर चीन के द्वारा अक्साई चीन पर कब्जे का दुःख झेल रही हो। अपनी जमीन चले जाने का दुःख क्या होता है? यह वही बता सकता है जिसने जमीन को मां समझा हो। लेकिन जो लोग अपनी माँ को ही भूल जाते हैं उन्हें भला जमीन का दुख क्या होगा? मैंने पुनः हिम्मत करने के बाद पूछा-'विकास आपको अपने साथ लेकर नहीं गया अम्मा?'
ताई पहले तो शांत रही मगर फिर धीरे से बोली- 'जिस दिन सुबह हम जाने वाले थे। उसी रात पुलिस की गाड़ी आकर रूकी और पुलिस वाले विकास को भला-बुरा कहने लगे। मुहल्ले के लोग इकठ्ठा होने लगे। एक पुलिस वाला कह रहा था, विकास बहुत बड़ा चोर है। हम इसे लेकर दिल्ली जा रहे हैं। इसका सामान भी जप्त किया जाता है। मैं रोती बिलखती रही। वो मेरे विकास को लेकर चले गए। ...मेरे विकास ने एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा। शायद वो नही चाहता था कि माँ मुझे देखकर रोये, मैंने ही हिम्मत करके कहा, विकास तू फिक्र मत कर, मैं खुद थाने आऊँगी। तुझे कुछ नहीं होगा। ...और पुलिस उसको सामान सहित ले गई।' कहते-कहते ताई अचेत हो गई।
मैंने उसे संभाला और आराम से लिटा दिया तभी उसका पड़ोसी रईस भी वहाँ आ गया। रईस ताई की दुकान के पास हजामत बनाने का काम करता है। उसने अपने चेले को आवाज़ दी और ताई के पास रहने को कहा। 
मैने समय को भाँपते हुए कहा-'मैं ताई के गुज़रे हुए कल के बारे में पूछ रहा था और ताई बेहोश...कृ।'
अभी मैं बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि रईस ने मुहँ पर अंगुली रखकर शांत रहने का इशारा किया और मेरी बाह पकड़कर दुकान से दूर ले आया। 
-'साहब इस बेचारी को तो वास्तविकता का पता ही नहीं। जिस रात विकास को पुलिस ले गई थी, उसके अगले दिन मैं प्रधान जी के साथ थाने गया था। थानेदार से सारी बातें बताईं। तब थानेदार ने ऐसे किसी भी मामले की जानकारी से इंकार किया। उसने बताया कि जब किसी दूसरे थाने की पुलिस आती है तो स्थानीय थाने की पुलिस को जरूर सूचित किया जाता है परंतु हमें ऐसी कोई सूचना नहीं है। हमारी बार-बार की विनती करने पर थानेदार गाॅव मे आया और लोगों से पूछताछ की। खोजबीन के बाद उसने हमें बताया कि कोई ऐसा रिकार्ड ज़िले भर में नहीं है, जिससे विकास को अपराधी साबित किया जा सके। 
घटना के दो दिन बाद विकास के एक दोस्त का फोन मेरे पास आया था। फोन मैंने ही सुना था। जिसकी बात सुनकर मैं अपने कानों पर भरोसा नहीं कर पाया। 
-'क्या बताया उसने?' मैंने जिज्ञासावश पूछा।
-'उसने बताया, विकास ने अपनी माँ को धोखा दिया है। वह हमें पुलिस वाला बनाकर लाया था। परंतु जब हमें पता चला कि उसने अपनी माँ को अपने साथ ले जाने से बचने के लिए ये नाटक रचा है तो मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कारा। अब विकास की सच्चाई तुम्हें बताकर मन हल्का हो गया है।' कहकर उधर से फोन काट दिया गया।
बताते-बताते रईस की जुबान भी लड़खड़ा गई, उसने रुमाल निकालकर आँसू पोछे। फिर संभल कर बोला-'साहब मैंने, ये सच्चाई ताई को नहीं बताई है। ये बेचारी तो इसी भ्रम में जिंदा है कि जब विकास उसे लेने आएगा। तो कहाँ ढूंढेगा? इसलिए अपनी किसी रिश्तेदारी में भी नहीं जाती। 
रईस के बताते-बताते शाम हो गई थी। पास ही स्थित मंदिर से जैसे ही  लाउडस्पीकर के बजने की ध्वनी सुनाई दी, मैंने तुरंत मोबाइल में समय देखा। ठीक छः बज रहे थे। मैं सकपकाया। अचानक मुझे याद आया कि आज तो अहोई अष्टमी है। माँ वृत खोलने के लिए मेरा इंतजार कर रही होगी। मैंने अपनी जेब से रुमाल निकाला और आँखों को साफ करते हुए अपने घर की ओर चल दिया। 
जैसे-जैसे मेरे कदम आगे बढ़ रहे थे वैसे-वैसे मंदिर से आती आरती की ध्वनि तेज़ हो रही थी।
-'पूत कपूत सुने हैं पर माता सुनी ना कुमाता।...... 


 


वैशाली

  अर्चना राज़ तुम अर्चना ही हो न ? ये सवाल कोई मुझसे पूछ रहा था जब मै अपने ही शहर में कपडो की एक दूकान में कपडे ले रही थी , मै चौंक उठी थी   ...