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आज का श्रवण कुमार

नीरज त्यागी           पापा मैं ये बीस कम्बल पुल के नीचे सो रहे गरीब लोगो को बाट कर आता हूँ।इस बार बहुत सर्दी पड़ रही है।श्रवण अपने पिता से ये कहकर घर से निकल गया।             इस बार की सर्दी हर साल से वाकई कुछ ज्यादा ही थी। श्रवण उन कंबलों को लेकर पुल के नीचे सो रहे लोगो के पास पहुँचा।वहाँ सभी लोगो को उसने अपने हाथों से कम्बल उढा दिया।             हर साल की तरह इस बार भी एक आदर्श व्यक्ति की तरह कम्बल बाटकर वह अपने घर वापस आया और बिना अपने पिता की और ध्यान दिये अपने कमरे में घुस गया।            श्रवण के पिता 70 साल के एक बुजुर्ग व्यक्ति है और अपने शरीर के दर्द के कारण उन्हें चलने फिरने में बहुत दर्द होता है।बेटे के वापस आने के बाद पिता ने उसे अपने पास बुलाया।             किन्तु रोज की तरह श्रवण अपने पिता को बोला।आप बस बिस्तर पर पड़े पड़े कुछ ना कुछ काम बताते ही रहते है।बस परेशान कर रखा है और अपने कमरे में चला गया।             रोज की तरह अपने पैर के दर्द से परेशान श्रवण के पिता ने जैसे तैसे दूसरे कमरे से अपने लिए कम्बल लिया और रोज की तरह ही नम आँखों के साथ अपने दुखों को कम्बल में ढक कर सो ग

बापू का सपना था

बापू का सपना था सात वर्ष की वय से- सात वर्ष तक, हर बालक का  शिक्षा पर हो अधिकार, केवल अक्षर ज्ञान नहीं, व्यवसायिक शिक्षा थी जिसका आधार। तन-मन-संकल्प शक्ति से श्रम की साधना, स्वावलम्बन की आराधना, स्वाभिमान से दीपित भाल, चौहदह वर्ष में अपना ले वह रोजगार। न रहे कोई हाथ बेगार-बेकार हर हाथ को मिले काम स्वाभिमान संग देश उन्नति में भाग, मिले संस्कार , सम्मान संग अपनों का साथ। रहे गाँव आबाद स्व श्रम के स्वामी सब मजदूर न कोई कहलाए।   डॉ साधना गुप्ता, झालवाड़

वाह रे किसान

अमन कुमार भूकंप के आने से गज सिंह को बड़ा नुकसान हुआ था। पिछले दिन ही तो उसने अपने मकान का लिंटर डलवाया था। लिंटर अभी सैट भी नहीं हुआ था कि करीब पाँच घंटे बाद ही भूकंप आ गया था। भूकंप की तीव्रता इतनी तेज थी कि लिंटर में जगह-जगह दरार आ गई थी। सुबह होते-होते गाँव के लोग इकट्ठा होने लगे थे। सबकी अपनी-अपनी राय थी। मजमा लग चुका था। गज सिंह परेशान हो उठे। उन्होंने सूरज निकलने से पहले ही राज मिस्त्री को बुलवा लिया।  -‘मिस्त्री साहब, जो भी हो नुकसान होने से बचा लो, मेरे पास अब इतना पैसा नहीं है कि मैं पूरा लिंटर डलवा सकूँ।’ गज सिंह ने मिस्त्री को अपनी स्थिति बता दी।  -‘वो तो ठीक है मालिक, मगर अब तक तो सिमेंट सैट हो चुका है, सब तुड़वाना ही पड़ेगा, दरारों को भर देने से भी कोई लाभ नहीं होने वाला है, बारिश में टपकेगा।’ मिस्त्री ने असमर्थता व्यक्त की।  -‘अब क्या होगा?’  -‘होना क्या है? दो कट्टे सीमेंट मँगा लो, प्रयास करता हूँ, दो-चार साल तो काम चल ही जाएगा।’ मिस्त्री ने हिम्मत बधाई तो गज सिंह की जान में जान आई।  -‘ठीक कर दो भैया, बाकी दो-चार साल बाद देखा जाएगा।’ गज सिंह ने कहते हुए एक बार फिर ढुल्ले

राजनीति को वोट की जरूरत होती है

अमन  कुमार त्‍यागी   अंधे को आंख की लंगड़े को टांग की लूले को हाथ की गूंगे को जीभ की बहरे को कान की जैसे जरूरत होती है वैसे ही राजनीति को वोट की जरूरत होती है भूखे को ब्रेड की प्रिय को प्रेम की नंगे को वस्त्र की योद्धा को अस्त्र की बच्चे को मां की जैसे जरूरत होती है वैसे ही राजनीति को वोट की जरूरत होती है वोट की जरूरत दिखाई देती है बटन दबाने तक या मोहर लगाने तक उसके बाद होता है खेल रेलमपेल धकमधकेल धकमधकेल रेलमपेल

बोलो हिन्दुस्तान

- इन्द्रदेव भारती   बोलो हिन्दुस्तान """""""""""""""""""""""""""""" " बोलो  हिन्दुस्तान  कहाँ तक, कितनी  हिंसा  और  सहोगे ।  आज अगर चुप बैठे तो कल, कहने   लायक  नहीं  रहोगे ।     बारूदी   शब्दों   की  भाषा, किसनेआखिर क्यूँ बोली है । अंबर   ने   बरसाये   पत्थर, धरती  ने  उगली  गोली  है ।    प्यार के  गंगाजल में   कैसे, नफरत का  तेज़ाब घुला है । गौतम, गाँधी का  ये आंगन, सुबह लहू से धुला मिला है ।   किस  षड्यंत्री  ने  फेंकी  है,  षड्यंत्रों   की   ये  चिंगारी । गलियों, सड़कों, चौराहों  पे, मौत   नाचती  है   हत्यारी ।   यहीं जन्म लेकर के आखिर, कहो अकारण क्यूँ मर जाएं । क्यूँ अपना घर,गली,ये बस्ती, छोड़ वतन हम कहाँपे जायें ।   कहाँपे जायें ?  कहाँपे जायें ? कहाँपे जायें ?  कहाँपे जायें ?                 - इन्द्रदेव भारती

हम आये तुम आये चले जायेंगे इक रोज

    हम आये तुम आये चले जायेंगे इक रोज समय के शिलापट्ट पर कालजयी कुछ होता नहीं । एक दो रोज पढ़े जाओगे एक दो रोज सब गुनगुनायेंगे। दोहरायेंगे कुछ दिन वेद ऋचा सा फिर सब तुम्हें भूल जायेंगे। दो चार दिन आँसू बहाते हैं सब कोई हम पर जनम भर रोता नहीं ये खजुराहो के मंदिर ये अजंता एलोरा की गुफायें। कुछ प्रतिबिंब अधूरी तपस्याओं के कुछ में चित्रित हैं कुंठित वासनाये। देह पर ही लिखे गए हैं नेह के इतिहास सारे जग में मन जैसा कुछ भी होता नहीं । क्यूँ नाचती है मीरा दीवानी सूफी किसके लिये गीत गाते। प्रीत की चादर बुनते किसके लिए कबीरा सूर किसको रहे अंत तक बुलाते। वाचन मात्र मानस का होता यहाँ राम चरित में कोई भी खोता नहीं । समय के शिलापट्ट पर कालजयी कुछ होता नहीं ।  

मुझको मत मरवाय री

  गीतकार इन्द्रदेव भारती   कन्या भ्रूण  की  गुहार का  ये गीत  'शोधादर्श' पत्रिका   में प्रकाशित करने के लिये संपादक श्री अमन  कुमार त्यागी का हार्दिक आभार। -------------- मुझको  मत  मरवाय  री । -------------- माँ !  मैं  तेरी  सोनचिरैया,  मुझको  मत  मरवाय  री । काली गैया  जान  मुझे  तू, प्राण - दान दिलवाय री ।   हायरी मैया,क्या-क्या दैया जाने    मुझे   दबोचे   री । यहाँ-वहाँ से,जहाँ-तहाँ से, काटे  है  री,.....नोचे  री । सहा न जावे,और तड़पावे चीख़  निकलती जाय री । मुझको.................री ।।   यह कटी  री, उँगली मेरी, कटा अँगूठा जड़  से  री । पंजा काटा, घुटना काटा, टाँग कटी झट धड़ से री । माँ लंगड़ी ही,जी लूँगी री, अब  तो  दे  रुकवाय री । मुझको.................री ।।   पेट भी  काटा, गुर्दा काटा, आँत औ दिल झटके में री । कटी सुराही, सी गर्दन भी, पड़े   फेफड़े  फट  के  री । नोने - नोने  हाथ  सलोने, कटे   पड़े   छितराय  री । मुझको..................री ।।   आँख निकाली कमलकली सी गुल - गुलाब से  होंठ  कटे । नाक कटी री,  तोते - जैसी, एक-एक करके  कान कटे । जीभ कटी वो,माँ कहती जो, कंठ  रहा......गुंग

बाबा नागार्जुन को पढ़ते हुए

इन्द्रदेव भारती भिखुआ उजरत लेके आया, बहुत दिनों के बाद झोपड़िया ने दिया जलाया, बहुत दिनों के बाद खाली डिब्बे और कनस्तर फूले नहीं समाये नून, मिरच, घी, आटा आया, बहुत दिनों के बाद हरिया हरी मिरच ले आया, धनिया, धनिया लाई सिल ने बट्टे से पिसवाया, बहुत दिनों के बाद चकला, बेलन, तवा, चीमटा खड़के बहुत दिनों में चूल्हा चन्दरो ने सुलगाया, बहुत दिनों के बाद फूल के कुप्पा हो गयी रोटी, दाल खुशी से उबली भात ने चौके को महकाया, बहुत दिनों के बाद काली कुतिया कूँ-कूँ करके आ बैठी है दुआरे छक कर फ़ाक़ो ने फिर खाया, बहुत दिनों के बाद दिन में होली, रात दीवाली, निर्धनिया की भैया घर-भर ने त्योहार मनाया, बहुत दिनों के बाद ए-3, आदर्श नगर, नजीबाबाद-246763 (बिजनौर) उप्र

वैशु

निधि भंडारे   निशि बहुत बेचेन थी| रह रहकर उसके मन में वैशु का खयाल आ रहा था| अभी 16 साल की उम्र, छोटी बच्ची और शादी भी हो गई| वैशु, 10 दिन ही हुए थे वैशु को उसके ऑफिस में काम करते हुए| निशि को याद है सोनाली ने बताया था, “म्याम, एक लड़की आयी है, उसेही काम की बहुत ज़रूरत है, सफाई के लिए रख लू? “तुम्हे ठीक लगता है तो रख लों,” सोनाली शादी में गई थी तो निशि जल्दी ऑफिस गई| जैसे ही ऑफिस पहुँची तो बाहर सीधियों में एक लड़की बैठी| निशि को लगा कोई बैठी होगी और निशि ने ऑफिस का ताला खोला और अंदर चली गई| तभी 5 मिनट बाद वही लड़की अंदर आयी| नमस्ते मैडम” वो बोली| नमस्ते, निशि ने जवाब दिया|   मैडम, मैं वैशु, आपके ऑफिस में सफाई करती हूं, वो बोली| निशि कुछ देर कुछ ना बोल पाई, छुपचाप उसे देखती रह गई| मैडम, पंधरा साल, अभी दसवी में हूं, वैशु धीरे से बोली, तो बेटा, पढाई करो, ये सब काम क्यों करती हो? निशि ने वैशु से कहा| मैडम, अब पढाई नहीं होगी, शादी हो गई ना, वैशु बोली| कब हुई शादी? निशि ने पूछा| नौ महीने हो गये, वैशु ने बताया| निशि को वैशु के घरवालों पर बहुत गुस्सा आया| उसने पूछा, तुम्हारे माता पिता ने तुम्हारी

मां

निधि भंडारे   राहुल ने अचानक घडी देखी, ६ बज गये थे, काम बहुत बाकी रह गया था| तभी उसकी नज़र रानू पे गई| अरे रानू, क्या बात है? आज कैसे इतनी देर तक रुक गई? सतीश इंतजार कर रह होगा, राहुल ने पूछा| उडा लो मजाक तुम, तुम्हारा वक्त आयेगा तब देखेंगे, रानू हस्ते हुई बोली. तभी सखाराम, ऑफिस का पिओन आया और बोला राहुल सर आपको बड़े साब ने तुरंत ऑफिस में बुलाया है, रानू ने जैसे ही सुना हँसकर बोली, और उडाओ मजाक, अब देखो तुम्हारी क्लास लेंगे संजय सर| राहुल मुस्कुराया और संजय सर के केबिन की तरफ चला गया| मे आय कम इन सर?  राहुल ने पूछा| यस माय डिअर, कम इन, संजय सर मुस्कुराते हुए बोले, “राहुल, सच में ऑफिस में तुम्हारे लोग हैं इसलिए हम इतना आगे बढे है| थैंक यू सर, बस आशीर्वाद है, राहुल बोला| एक जरुरी काम के लिए बुलाया है तुम्हें, संजय सर बोले| हुकुम कीजिये सर, राहुल बोला| कल रात तुमको कुछ जरुरी डॉक्यूमेंटस लेकर बिलासपुर निकलना होगा, वही पास एक गाँव हैं, करेली, वहां के पंच का साईन लाना है और ये काम सिर्फ तुम ही कर सकते हो, संजय सर बोले| थोड़ी तकलीफ होगी तुम्हें क्योकि ट्रेन सिर्फ बिलासपुर तक जाति है| फिर वहां से

देश यही पागल बदलेगा

लगभग चालीस साल पहले प्रकाशित इन्‍द्रदेव भारती जी की कविता 'देश यही पागल बदलेगा' हाथ लगी तो सोचने पर मजबूर कर दिया. आप भी आनन्‍द लीजिए और झाडू वाले नेता के बारे में चालीस साल पहले की कल्‍पना का चमत्‍कार भी देखिए. कविता के कॉपीराइट लेखक के पास है   इन्‍द्रदेव भारती

भूख

इन्द्रदेव भारती आदमखोरों को सरकारी, अभिरक्षण   वरदान  है । अपने हिंदुस्तान का भैया  अद्भुत......संविधान  है । इंसां  को  गुलदार मारे, उसको  पूरी   शह  यहाँ । गुलदार को  इन्सान  मारे, जेल   जाना   तय  यहाँ । रोज बकरा  यूँ  बलि  का बन    रहा   इन्सान   है । अपने हिंदुस्तान का भैया अद्भुत......संविधान  है । रोज  जंगल  कट  रहे हैं, जब   शहर   के  वास्ते । क्यूँ न जंगल ढूंढलें फिर खुद  शहर   के   रास्ते   इंसांं  हो   या   हो   हैवां, भूख का क्या विधान  है । अपने  इस  जहान   का, अज़ब ग़ज़ब विधान है ।  

सात ग़ज़लेें

अल्लामा ताजवर नजीबाबादी 1. बम चख़ है अपनी शाहे रईयत पनाह से   बम चख़ है अपनी शाहे रईयत पनाह से इतनी सी बात पर कि 'उधर कल इधर है आज' । उनकी तरफ़ से दार-ओ-रसन, है इधर से बम भारत में यह कशाकशे बाहम दिगर है आज । इस मुल्क में नहीं कोई रहरौ मगर हर एक रहज़न बशाने राहबरी राहबर है आज । उनकी उधर ज़बींने-हकूमत पे है शिकन अंजाम से निडर जिसे देखो इधर है आज । (२ मार्च १९३०-वीर भारत (लाहौर से छपने वाला रोज़ाना अखबार) (रईयत पनाह=जनता को शरण देने वाला, दार-ओ-रसन=फांसी का फंदा, कशाकशे- बाहम दिगर=आपसी खींचतान, रहरौ=रास्ते का साथी, रहज़न=लुटेरा, ज़बींने=माथा,शिकन=बल)   2. ऐ आरज़ू-ए-शौक़ तुझे कुछ ख़बर है आज   ऐ आरज़ू-ए-शौक़ तुझे कुछ ख़बर है आज हुस्न-ए-नज़र-नवाज़ हरीफ़-ए-नज़र है आज हर राज़दाँ है हैरती-ए-जलवा-हा-ए-राज़ जो बा-ख़बर है आज वही बे-ख़बर है आज क्या देखिए कि देख ही सकते नहीं उसे अपनी निगाह-ए-शौक़ हिजाब-ए-नज़र है आज दिल भी नहीं है महरम-ए-असरार-ए-इश्क़ दोस्त ये राज़दाँ भी हल्क़ा-ए-बैरून-ए-दर है आज कल तक थी दिल में हसरत-ए-अज़ादी-ए-क़फ़स आज़ाद आज हैं तो ग़म-ए-बाल-ओ-पर है आज   3. ग़म-ए-मोहब्बत में दिल के

तफ़ाउत

अख़्तर-उल-ईमान   हम कितना रोए थे जब इक दिन सोचा था हम मर जाएँगे और हम से हर नेमत की लज़्ज़त का एहसास जुदा हो जाएगा छोटी छोटी चीज़ें जैसे शहद की मक्खी की भिन भिन चिड़ियों की चूँ चूँ कव्वों का एक इक तिनका चुनना नीम की सब से ऊँची शाख़ पे जा कर रख देना और घोंसला बुनना सड़कें कूटने वाले इंजन की छुक छुक बच्चों का धूल उड़ाना आधे नंगे मज़दूरों को प्याज़ से रोटी खाते देखे जाना ये सब ला-यानी बेकार मशाग़िल बैठे बैठे एक दम छिन जाएँगे हम कितना रोए थे जब पहली बार ये ख़तरा अंदर जागा था इस गर्दिश करने वाली धरती से रिश्ता टूटेगा हम जामिद हो जाएँगे लेकिन कब से लब साकित हैं दिल की हंगामा-आराई की बरसों से आवाज़ नहीं आई और इस मर्ग-ए-मुसलसल पर इन कम-माया आँखों से इक क़तरा आँसू भी तो नहीं टपका

आख़िरी मुलाक़ात

अख़्तर-उल-ईमान आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम आती नहीं कहीं से दिले-जिंदा की सदा सूने पड़े हैं कूच'ओ-बाज़ार इश्क के है शमए-अंजुमन का नया हुस्ने-जां-गुदाज़ शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले ताज़ा न रख सकेगी रिवायाते-दश्तो-दार वो फ़ितनासर गये जिन्हें कांटे अज़ीज़ थे अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएं हम आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें क्या जाने अब न उल्फ़ते-देरीना याद आए इस हुस्ने-इख्तियार पे आँखें झुका तो लें बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़ संभले हुए तो हैं पे ज़रा डगमगा तो लें आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम

तन्हाई में

अख़्तर-उल-ईमान मेरे शानों पे तिरा सर था निगाहें नमनाक अब तो इक याद सी बाक़ी है सो वो भी क्या है? घिर गया ज़ेहन ग़म-ए-ज़ीस्त के अंदाज़ों में सर हथेली पे धरे सोच रहा हूँ बैठा काश इस वक़्त कोई पीर-ए-ख़मीदा आ कर किसी आज़ुर्दा तबीअत का फ़साना कहता! इक धुँदलका सा है दम तोड़ चुका है सूरज दिन के दामन पे हैं धब्बे से रिया-कारी के और मग़रिब की फ़ना-गाह में फैला हुआ ख़ूँ दबता जाता है सियाही की तहों के नीचे दूर तालाब के नज़दीक वो सूखी सी बबूल चंद टूटे हुए वीरान मकानों से परे हाथ फैलाए बरहना सी खड़ी है ख़ामोश जैसे ग़ुर्बत में मुसाफ़िर को सहारा न मिले उस के पीछे से झिजकता हुआ इक गोल सा चाँद उभरा बे-नूर शुआओं के सफ़ीने को लिए मैं अभी सोच रहा हूँ कि अगर तू मिल जाए ज़िंदगी गो है गिराँ-बार प इतनी न रहे चंद आँसू ग़म-ए-गीती के लिए, चंद नफ़स एक घाव है जिसे यूँ ही सिए जाते हैं मैं अगर जी भी रहा हूँ तो तअज्जुब क्या है मुझ से लाखों हैं जो ब-सूद जिए जाते हैं कोई मरकज़ ही नहीं मेरे तख़य्युल के लिए इस से क्या फ़ाएदा जीते रहे और जी न सके अब इरादा है कि पत्थर के सनम पूजूँगा ताकि घबराऊँ तो टकरा भी सकूँ मर भी सकूँ ऐ

सिलसिले

अख़्तर-उल-ईमान   शहर-दर-शहर, क़र्या-दर-क़र्या साल-हा-साल से भटकता हूँ बार-हा यूँ हुआ कि ये दुनिया मुझ को ऐसी दिखाई दी जैसे सुब्ह की ज़ौ से फूल खिलता हो बार-हा यूँ हुआ कि रौशन चाँद यूँ लगा जैसे एक अंधा कुआँ या कोई गहरा ज़ख़्म रिसता हुआ मैं बहर-ए-कैफ़ फिर भी ज़िंदा हूँ और कल सोचता रहा पहरों मुझ को ऐसी कभी लगन तो न थी हर जगह तेरी याद क्यूँ आई

शीशे का आदमी

अख़्तर-उल-ईमान   उठाओ हाथ कि दस्त-ए-दुआ बुलंद करें हमारी उम्र का इक और दिन तमाम हुआ ख़ुदा का शुक्र बजा लाएँ आज के दिन भी न कोई वाक़िआ गुज़रा न ऐसा काम हुआ ज़बाँ से कलमा-ए-हक़-रास्त कुछ कहा जाता ज़मीर जागता और अपना इम्तिहाँ होता ख़ुदा का शुक्र बजा लाएँ आज का दिन भी उसी तरह से कटा मुँह-अँधेरे उठ बैठे प्याली चाय की पी ख़बरें देखीं नाश्ता पर सुबूत बैठे बसीरत का अपनी देते रहे ब-ख़ैर ओ ख़ूबी पलट आए जैसे शाम हुई और अगले रोज़ का मौहूम ख़ौफ़ दिल में लिए डरे डरे से ज़रा बाल पड़ न जाए कहीं लिए दिए यूँही बिस्तर में जा के लेट गए

राह-ए-फ़रार

अख़्तर-उल-ईमान   इधर से न जाओ इधर राह में एक बूढ़ा खड़ा है जो पेशानियों और चेहरों पे ऐसी भभूत एक मल देगा सब झुर्रियाँ फट पड़ेंगी सियह, मार जैसे, चमकते हुए काले बालों पे ऐसी सपीदी उमँड आएगी कुछ तदारुक नहीं जिस का कोई कोई रास्ता और ढूँडो कि इस पीर-ए-फ़र्तूत की तेज़ नज़रों से बच कर निकल जाएँ और इस की ज़द में न आएँ कभी हम इधर से न जाओ इधर मैं ने इक शख़्स को जाते देखा है अक्सर जवानों को जो राह में रोक लेता है उन से वहीं बातें करता है मिल कर जो सुक़रात करता था यूनान के मनचलों से यक़ीनन उसे एक दिन ज़हर पीना पड़ेगा इधर से न जाओ इधर रौशनी है कहीं आओ छुप जाएँ जाकर तमाम आफ़तों से मुझे एक तह-ख़ाना मालूम है ख़ुशनुमा सा जो शाहान-ए-देहली ने बनवाया था इस ग़रज़ से कि अबदालियों, नादिरी फ़ौज की दस्तरस से बचें और बैठे रहें सारे हंगामों की ज़द से हट कर ये दर-अस्ल मीरास है आप की मेरी सब की सलातीन-ए-देहली से पहले किसी और ने इस की बुनियाद रक्खी थी लेकिन वो अब क़ब्ल-ए-तारीख़ की बात है कौन जाने इधर से न जाओ इधर शाह-नादिर नहीं आज कोई भी लेकिन वही क़त्ल-ए-आम आज भी हो रहा है ये मीरास है आप की मेरी सब की ये सौग़ात

हम मतवाले

डा. वीरेंद्र पुष्पक   हम मतवाले टोली लेकर, निकले स्वच्छ बनाने को। सुंदर वतन रहे अपना, सन्देश यही पहुँचाने को। बच्चे दिल के होते सच्चे, सन्देश लिए मन से अच्छे, माना होते हैं ये कच्चे, निर्मल इन्हें बनाने को। तन स्वच्छ रहे मन स्वच्छ रहे, भारत को स्वच्छ बनाने को। हम मतवाले टोली लेकर निकले स्वच्छ बनाने को। सुंदर वतन रहे अपना सन्देश यही पहुंचाने को।। देश को जागरूक करने खातिर, स्वच्छ भारत अभियान चला है, शौच खुले में कहां भला है, बीमारी का खुला निमन्त्रण, टाले भला ये कहीं टला है।  बस यही बात समझाने को। हम मतवाले टोली लेकर निकले स्वच्छ बनाने को। सुंदर वतन रहे अपना सन्देश यही पहुंचाने को।। गांव गांव खुशहाली होगी,  खेतों में हरियाली होगी,  खिल उठेगा चमन हमारा, प्रफुल्लित हर डाली होगी,  घर, पड़ौस, गलियां महकेंगी, निकले चमन बनाने को।। हम मतवाले टोली लेकर निकले स्वच्छ बनाने को। सुंदर वतन रहे अपना सन्देश यही पहुंचाने को।।